मुगल बादशाह और जैनाचार्य
भारत में श्रमण परंपरा दीर्घकाल से चलती आ रही है , तथा बहुत प्रचलित है । श्रमण भगवान महावीर के अनुयाई - आचार्यों के त्याग ,अहिंसा और आत्मिक प्रेरणा ने सामान्य जनता के साथ ,मुगल बादशाहों पर भी प्रभाव डाला था । मोहम्मद तुगलक ने एक बार धाराधार विद्वान से पूछा कि इस समय कौन बड़ा ज्ञानी है । तब उसने जैन आचार्य श्री जीनप्रभासूरी जी का नाम बताया। यह घटना सन 1328 की है । बादशाह ने उन्हें दरबार में बुलाया । दरबार में आचार्य श्री ने बादशाह को एक सुंदर संस्कृत श्लोक के द्वारा आशीर्वाद दिया। तथा अर्ध रात्रि तक उन्होंने विविध धर्मों की चर्चा में प्रभावी ढंग से भाग लिया । उनके ज्ञान और प्रस्तुति की सुंदर शालीनता से बादशाह अत्यंत प्रभावित हुए । अतः उन्होंने राज्य में फरमान निकाला कि जैन धर्मावलंबियों को सताया न जाए। उस समय दूसरे धर्म वाले जैन साधु साध्वी यों को सताते थे । मोहम्मद तुगलक में जयदेवसूरीजी को भी दरबार में बुलाया था । और उनके ज्ञान और त्याग से प्रसन्न होकर जैन मोहल्ला बसाया था । जहां मंदिर , उपासना और जैन बस्ती के मकान थे। अकबर बादशाह भी जैन धर्म के उदात्त विचारों से प्रभावित हुआ था । उसने 1582 में जैन आचार्य हरीविजयसूरीजी को आमंत्रित किया था । अतः वे गुजरात से आगरा गए थे । उनका बड़ा स्वागत किया । उन्होंने धर्म तत्व को समझाया । अहिंसा की महिमा बताई, जिससे अकबर बादशाह ने मांसाहार त्याग किया था । और जो कैदि ज्यादा सजा भुगत रहे थे , उन्हें छुड़ाया । कसाईघर व शिकार भी कुछ दिनों तक वर्जित किया था। बादशाह ने जैन आचार्य हरीविजय सूरी जी को ' जगतगुरु ' की उपाधि से सुशोभित किया था । अबुल फजल के विद्वानों की सूची के 21 नामों मे उनका नाम पहला नाम था । उनके शिष्य शांति चंद्रजी , भानुचंद्रजी और विजयसेनसूरीजी दरबार में जाते रहे थे । सन 1591 मे अकबर बादशाह को खरतर गच्छाचार्य श्री जीनचंद्रसूरी के गुणों की जानकारी हुई ; तो उन्हें भी बादशाह ने बुलाया। वे खंभात से पद विहार करते हुए सन 1591 लाहौर पहुंचे । उनका बादशाह ने स्वागत किया । उनके उपदेश को सुनकर उन्होंने सोने जवाहरात भेंट करने लगे , तो उन्होंने लेने से इनकार कर दिया । उनके ज्ञान व त्याग से प्रभावित होकर बादशाह ने उन्हें ' युगप्रधान ' की पदवी दी । उस साल उनका चातुर्मास लाहौर में हुआ । सन 1592 मे वे कश्मीर पधारे । तब बादशाह उनके साथ कश्मीर भी गए। सन 1593 मे वे लाहौर से विहार कर गए। अकबर ने जानवरों का शिकार खेलना बंद कर दिया । उनके राज्य में मांसाहार भी कम हो गया। शिकार वर्जित दिनों पर शिकार करने वालों को दंडित भी किया था।भारत मे तब से यह परंपरा चलती आ रही हैं।
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प्रो जवाहर लाल मूथा जी की fb वाल से यथावत साभार
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