*अहिंसकता का विकास*
आर्ष ग्रंथों में चार प्रकार की हिंसायें बताकर यह दिखाया हैकि गृहस्थ संकल्पी हिंसा का तो पूर्ण त्यागी होती ही है । यदि वह विवेकी है, ज्ञानी है तो वह अपने इरादे से किसी भी जीव का अकल्याण नहीं चाहता । लेकिन आरंभ के प्रसंगों में, उद्यमों के प्रसंगों में अथवा किसी शत्रु द्वारा आक्रमण हुआ हो ती वहाँ पर जो हिंसायें हो जाती हैं उन हिंसाओं का त्यागी यह अविरत गृहस्थ नहीं है । फिर संयमासंयम के बीच में जैसे-जैसे उसकी प्रतिमा बढ़ती रहती है, प्रतिज्ञा बढ़ती रहती है, आशय विरक्ति की ओर जाता है तैसे-तैसे उन तीन प्रकार की हिंसावों में भी उसका त्याग बढ़ता जाता है और संयत हो जाने पर तो सर्वप्रकार की हिंसावों का सर्वथा त्याग हो जाता है । अब रह गया यह कि वे साधु श्वास तो लेते हैं ओर श्वास लेने पर भी जीव मरते हैं तो जो इस तन, मन, वचन के अनुकूल किया ही न जा सकता हो ऐसी स्थिति अशक्यानुष्ठान में कहलाती है और आशय रंच भी किसी के घात को न होने से वहाँ वह अहिंसक ही कहलाता है।
*हिंसा का दोष*
तो जैसे पदवियों के अनुसार कर्तव्य का विभिन्न-विभिन्न वर्णन है, पर विभिन्न वर्णन होते हुए भी सम्यग्दृष्टि गृहस्थ है यदि, तो अपने निर्णय में तो वह साधु की तरह ही वस्तुस्वरूप लिए हुए है कि भले ही गृहस्थ उन तीन हिंसावों का त्यागी नहीं है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि गृहस्थ को उन तीन हिंसावों का दोष नहीं लगता । जो भाव, जो कर्म जिस प्रकार के निमित्तनैमित्तिक भाव को लिए हुए होते हैं वहाँ फेर नहीं पड़ सकता । कर्मों के यह ज्ञान नहीं है, कर्म जड़ हैं । वे यह न सोच सकेंगे कि यह ज्ञानी गृहस्थ सम्यग्दृष्टि घर में रह रहा है अथवा अन्य कोई गृहस्थ सम्यग्दृष्टि ही न सही, घर में रह रहा है और इसका कर्तव्य हिंसावों के त्याग का बताया है और यह तीन हिंसावों को कर रहा है तो इसको हम न बाँधें । आगम में लिखा है ना । तो वहाँ यह बात नहीं है । वहाँ तो निमित्तनैमित्तिक भावों की जो विधि है उस विधि के अनुसार बंधन होगा ही।
*विरति व अविरति की स्थिति में हुई हिंसा का दोष* ― हाँ यह बात बतायी है आगम में कि गृहस्थ तीन हिंसावों का त्यागी नहीं है अर्थात् चार प्रकार की हिंसावों का त्यागी साधु संतपुरुष यदि उनमें किसी प्रकार की हिंसा करे तो उसके महादोष है, त्याग किए हुए को उसने पकड़ा और यह प्रवृत्ति उसमें कषायों की तीव्रता जगे बिना नहीं हुई । जैसे गृहस्थ एक साधारणरूप से रसोई बनाता है, खा लेता है और कोई मुनि किसी समय बड़ी ही शुद्ध विधि से कोई थोड़ी-सी रसोई बना ले और खा ले तो अंदाज करो कि साधु को कितनी तेज कषाय करनी पड़ी होगी अंतर में तब वह ऐसी प्रवृत्ति कर सका । जो पुरुष जिस नियम पर रहता है उस नियम से च्युत होने के लिए कषाय तीव्र करना होता है, तब वह महादोष है । इस प्रकार का दोष तीन प्रकार की हिंसा में रहने वाले गृहस्थ को नहीं लगा।
*संकल्पी हिंसा*
संकल्पी हिंसा कहते हैं - इरादतन जीवों का घात करना, शिकार खेलना, किसी दूसरे को सताना, पीड़ा पहुंचाना, जीव हत्यायें करना, ये सब संकल्पी हिंसायें हैं। कसाईखाना खोलना, हिंसा का रोजगार रखना, कोई डाक्टरी सीखने के लिए मेंढक वगैरह चीरना―ये सब संकल्पीहिंसा में हैं। वैसे कुछ लोग यह कहते हैं कि उसमें तो उद्यमी हिंसा होनी चाहिए, क्योंकि आगे उद्यम करेंगे, डाक्टरी सीखेंगे, पैसा आयेगा, तो यह उद्यमी हिंसा होनी चाहिए, किंतु भैया ! उद्यमी हिंसा कहते उसे हैं कि हिंसा बचाते हुए, साक्षात् हिंसा न करते हुए उद्यम करे और फिर उस उद्यम में हमारे बिना जाने जो हिंसा हो जाय वह उद्यमी हिंसा है। यदि इस मेंढक आदि चीरने को उद्यमीहिंसा कहने लगे तो कसाईखाना खोलना, जीवघात करना उसे क्यों न उद्यमीहिंसा में माना जाय? यह सब संकल्पीहिंसा है।
*संकल्पीहिंसा का त्यागी श्रावक*
श्रावक इरादतन संकल्पीहिंसा को नहीं किया करते हैं, ऐसी परिस्थिति है कि चाहे कितना भी लाभ होता हो, उस लाभ में लोभित होकर श्रावक संकल्पी हिंसा नहीं करता। एक बार की घटना है टीकमगढ़ की। राजा ने सुना कि जैनी पुरुष हिंसा नहीं किया करता, वह बलि नहीं करता है, चींटी तक को भी नहीं मारता। एक बार वही टीकमगढ़ का राजा बग्घी पर सवार हुए चला जा रहा था। रास्ते में कोई जैन मिला। पास ही एक बकरी जा रही थी। तो राजा ने कहा ऐ भाई ! उस बकरी को पकड़कर यहाँ ले आवो। वह उस बकरी को पकड़कर ले आया। राजा ने कहा कि लो यह छुरी है, इस बकरी को अभी काट दो। तो उसने छुरी नहीं ली और राजा के मुकाबले डटकर खड़े होकर कहा कि राजन् यह काम तो एक जैनी से नहीं हो सकता है, चाहे कुछ भी दंड दें, किंतु जैनी से छुरी नहीं उठ सकती है किसी जीव को मारने के लिए। तो वह प्रसन्न हुआ और कहा कि ठीक है, जैन श्रावक बड़े दयालु होते हैं।
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