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गुण ग्रहण करो

*गुण ग्रहण करो* 

 
-प्रो. वीरसागर जैन

                                                 व्यालाश्रयापि विफलापि सकंटकापि,
वक्रापि पंकिलभवापि दुरासदापि |
एकेन जन्तु रस केतकी सर्वभावं,
एको गुण: खलु निहन्ति समस्तदोषम् ||

नीति का यह श्लोक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है | इसका हिन्दी अर्थ यह है कि केतकी में अनेक कमियां होती हैं, उस पर सर्प लिपटे रहते हैं, वह फलरहित भी होती है, उसमें कांटे भी होते हैं, वह कीचड़ में भी होती है, वह दुरासद (दुष्प्राप्य) भी होती है, इत्यादि, किन्तु एक गन्ध गुण के कारण सबको प्रिय होती है | ठीक ही है, एक गुण सर्व दोषों को नष्ट कर देता है |

उक्त श्लोक भारतीय संस्कृति के इस महान संदेश की सुन्दरतम प्रस्तुति है कि हमें कभी भी किसी के दोष नहीं देखना चाहिए, मात्र उसके गुण ग्रहण करना चाहिए | यदि किसी में हजार दोष हों और मात्र कोई एक ही गुण हो तो भी हमें उसके उन हजार दोषों पर ध्यान न देकर मात्र उस एक गुण पर ध्यान देना चाहिए और उसके उस एक गुण को ग्रहण कर लेना चाहिए |

काश, यह बात हम सबकी समझ में आ जाए | न केवल समझ में आ जाए, जीवन में ही उतर जाए तो हमारा जीवन निहाल हो जाए | यदि दुनिया के सभी लोग इसे अपना लें तो यह पूरी दुनिया ही स्वर्ग बन जाए |

परन्तु वर्तमान में तो हमारी स्थिति एकदम उलटी हो रही है | हम तो यदि किसी में हजार गुण हों और मात्र एक दोष हो तो हम उसके उन हजार गुणों को नहीं देखते, मात्र उसका एक दोष ही देखते हैं | हमारा कैसे उद्धार होगा ?

एक बार एक आदमी घूमने गया | वह एक उद्यान में पहुंचा | वहाँ उसने सर्वप्रथम एक कोयल को गाते हुए सुना | उसका मन प्रसन्न हो गया | उसके कानों में मिश्री घुल रही थी | उसने उसे जी भरकर सुना | किन्तु चलते समय उससे यही कहा कि काश, तू काली नहीं होती तो कितना अच्छा रहता |

इसके बाद वह आगे गया तो उसने एक गुलाब का पुष्प देखा | इतना सुन्दर पुष्प उसने जीवन में पहली बार देखा था | वह बहुत प्रसन्न हुआ | परन्तु चलते समय उसने उससे भी यही कहा कि काश, तुझमें कांटे नहीं होते तो कितना अच्छा रहता |

इसके बाद वह एक समुद्र के किनारे पहुँच गया | इतना विशाल एवं शान्त समुद्र भी उसने जीवन में पहली बार देखा था | वह उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ | उसके किनारों पर उसने खूब घंटों तक जलक्रीडा की | परन्तु चलते समय उसने उससे भी यही कहा कि काश, तू खारा नहीं होता तो कितना अच्छा रहता |

अब रात्रि हो चली थी | वह अपने घर की ओर लौट चला | संयोग से उस दिन शरद पूर्णिमा थी | चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं के साथ खिला हुआ था | अपने सुधाकर नाम को ही चरितार्थ किये हुए था | उसे उसकी शीतल चांदनी भी आज बहुत ही सुखद प्रतीत हो रही थी | उसने उसका बहुत आनन्द लिया | परन्तु चलते समय उससे भी यही कहा कि काश, तुझमें कलंक नहीं होता तो कितना अच्छा रहता |

जब वह अपने घर की ओर लौट रहा था तब उसे एक साथ चार लोगों ने पुकारा-  “अरे ओ मनुष्य ! सृष्टि की सुन्दरतम रचना ! तू कितना अच्छा है रे, तू चौरासी लाख योनियों में सबसे अच्छा है रे, परन्तु काश, तुझमें दोष देखने की आदत नहीं होती तो कितना अच्छा रहता | तू साक्षात् भगवान ही होता |”

यह कहानी बहुत महत्त्वपूर्ण है | हम मनुष्य बने हैं अर्थात् अब भगवान के एकदम पास आ गये हैं | किन्तु अब एक ही बहुत बड़ी बाधा है हमारे अंदर कि हम सर्वत्र दोष ही दोष देखते रहते हैं | अब हमें इस स्थिति को एकदम बदल देना है | दोष देखने के लिए बिलकुल अंधा-बहरा बन जाना है और गुण ग्रहण करने के लिए चन्द्रमा की सोलह कला की तरह पूर्णत: खिल जाना है |

एक बार की बात है | एक स्थान पर एक मरा हुआ कुत्ता पड़ा था | बहुत दुर्गन्ध आ रही थी | सब लोग नाक-भौं सिकोड़े अनेक प्रकार से उसकी बुराई कर रहे थे | तभी एकाएक श्रीकृष्ण आ गये | बोले, अरे देखो तो सही इसके दांत कितने सुन्दर हैं, एकदम मोती जैसे चमक रहे हैं | कहने का संदेश यही था कि हमें अत्यंत विषम स्थिति में भी गुण देखने की आदत विकसित करनी चाहिए | दोष देख-देखकर कषाय करना उचित नहीं |

यदि दोष ही देखना हो तो अपने दोष देखना चाहिए | गुण-दोष के सम्बन्ध में मुख्य सिद्धांत यही है कि अपने दोष देखो और दूसरे के गुण देखो | अपने गुण और दूसरे के दोष देखने से बहुत कषाय होती है, अत: उनकी उपेक्षा करो |

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