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समीचीन स्वाध्याय करो

*तम्हा सत्थं समधिदव्वं* 
(समीचीन स्वाध्याय करो)
                                                                                              -प्रो. वीरसागर जैन

एक दिन मैंने स्वप्न में आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी के दर्शन किये और उनसे तत्त्वचर्चा भी की | मैंने उनसे पूछा– ‘‘हे भगवन् ! आपने समयपाहुड आदि बड़े-बड़े 84 पाहुडग्रन्थ लिखे हैं, षट्खंडागम आदि ग्रन्थों की विशाल टीकाएँ भी लिखी हैं, परन्तु मुझे तो आप कृपया संक्षेप में सार बताइए कि मैं क्या करूं ? मेरा कर्तव्य क्या है ? मेरा कल्याण कैसे हो ?’’     

वे बोले – ‘‘ ‘तम्हा सत्थं समधिदव्वं’ अर्थात् भलीभांति शास्त्रों का अध्ययन करो |’’

‘‘शास्त्रों का अध्ययन तो मैं बहुत करता हूँ भगवन्, पर उससे कुछ नहीं हो रहा |’’

‘‘होगा, अवश्य होगा, उसी से सब होगा, परन्तु अभी उसमें बहुत कमी है, भलीभांति अध्ययन करो, अध्ययन में समीचीनता लाओ, गुणवत्ता लाओ -  सत्थं समधिदव्वं |’’      

‘‘लेकिन अकेले अध्ययन से क्या होगा गुरुदेव ?’’

‘‘देखो, अध्ययन से समीचीन ज्ञान होगा और ज्ञान ही सबका मूलाधार है – इस बात को बड़ी सावधानी से समझो | देखो, पूरी जिनवाणी में धर्म के तीन साधन/ उपाय कहे हैं– सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र | सम्यग्दर्शन अर्थात् श्रद्धा सच्ची करो,सम्यग्ज्ञान अर्थात् ज्ञान सच्चा करो और सम्यग्चारित्र अर्थात् अपना आचरण सच्चा करो | इस प्रकार यहाँ तीन उपाय कहे गये हैं, किन्तु सूक्ष्मता से देखा जाए तो वास्तव में श्रद्धा और चारित्र को सच्चा करने के लिए भी सच्चे ज्ञान की ही जरूरत है, अन्य कोई उपाय नहीं है | जैसे कि हमें अपनी श्रद्धा बदलनी है, किन्तु श्रद्धा कोई कटोरी/गिलास नहीं है कि हम उसे हाथ से पकडकर पलट देंगे, अपितु वह तो जब सच्चा ज्ञान होगा तब सहज ही बदलेगी, अन्य कोई उपाय नहीं है | ज्ञान सच्चा हुए बिना श्रद्धा कभी नहीं बदल सकती | वह अंध श्रद्धा तो हो सकती है, किन्तु सच्ची श्रद्धा नहीं हो सकती; अत: श्रद्धा बदलने का पुरुषार्थ भी हमें ज्ञान में ही करना है | इसी प्रकार हमारा आचरण भी वास्तव में सच्चा ज्ञान होने पर ही सही से बदलेगा, अन्यथा नहीं | इस प्रकार हम देखते हैं कि वास्तव में समीचीन ज्ञान ही सबका मूल कारण है | समीचीन ज्ञान हुए बिना कथमपि श्रद्धान-आचरण आदि कुछ नहीं हो सकता और यदि समीचीन ज्ञान हो जाए तो श्रद्धान आचरण आदि सब कुछ हुए बिना नहीं रहता | तथा ऐसा वह समीचीन ज्ञान शास्त्राध्ययन से ही होता है, अत: हमें अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा समीचीन शास्त्राध्ययन में ही लगा देनी चाहिए, यही एक हमारा मुख्य कर्तव्य है – ‘तम्हा सत्थं समधिदव्वं’ |”

‘‘लेकिन गुरुदेव ! हम बहुत शास्त्राध्ययन करते हैं, कुछ होता क्यों नहीं ?’’

‘‘देखो, मैं कोरे शास्त्राध्ययन की बात नहीं कह रहा हूँ, समीचीन शास्त्राध्ययन की बात कह रहा हूँ -  ‘समधिदव्वं’ | समीचीन शास्त्राध्ययन से अवश्य ही समीचीन ज्ञान की प्राप्ति होती है और समीचीन ज्ञान प्राप्त होने पर समीचीन श्रद्धा और चारित्र भी अवश्य ही प्रकट होते हैं, अत: हमें अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा समीचीन शास्त्राध्ययन द्वारा समीचीन ज्ञान की प्राप्ति करने में ही लगा देनी चाहिए – ‘तम्हा सत्थं समधिदव्वं’ |”

“हे भगवन् ! हमारा शास्त्राध्ययन कैसे समीचीन हो – कुछ इसके विषय में भी बताइए न ? कहाँ क्या कमी रह जाती है हमारे शास्त्राध्ययन में – बताइए गुरुदेव !’’

तब आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मुझे इस प्रकार समझाया –

‘‘देखो, सर्वप्रथम तो शास्त्र के चयन में ही बहुत लोगों से भूल हो जाती है | वे शास्त्र की बजाय शस्त्र का चयन कर लेते हैं | जो मोह-राग-द्वेषादि का पोषण करते हैं वे शास्त्र नहीं, शस्त्र हैं | शास्त्र तो वही हो सकते हैं जो हमें येन-केन प्रकारेण मोह-राग-द्वेषादि से मुक्त करें | अत: सर्वप्रथम तो हमें समीचीन शास्त्र का चयन करना चाहिए|     

उसके बाद हमें उस समीचीन शास्त्र को भी बिना किसी आतंक, भय या दबाव के ही पढना चाहिए | किसी भी  प्रकार का आग्रह, पक्षपात आदि भी नहीं रखना चाहिए | पूर्णत: वैज्ञानिक विधि से ही पढ़ना चाहिए| यद्यपि  इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उनके प्रति कोई विनय ही न हो | विनय और विवेक का समुचित समन्वय होना चाहिए |

पुनश्च, शास्त्रों की बातों को दूसरों की देखादेखी नहीं मानना चाहिए, स्वयं युक्ति और स्वानुभव से उसकी परीक्षा करनी चाहिए | अधिकतर लोग दूसरों की देखादेखी ही बातों को मानते रहते हैं, उन्हें पता भी नहीं चलता कि अभी उन्हें स्वयं से बात समझ में नहीं आई है | अत: इस विषय में बहुत अधिक सजग रहने की आवश्यकता है | सबका भय, चिंता आदि छोड़कर स्वयं अत्यंत सावधानी से तत्त्व का निर्णय करना चाहिए | अपने प्रति पूर्ण ईमानदार रहना चाहिए | बहुत से लोग ऐसे हैं जो तत्त्व को ठीक से समझे नहीं, पर देखादेखी हाँ हाँ करने लगते हैं और इस प्रकार वे स्वयं को ही धोखा देने लगते हैं |     

शास्त्र पढ़ते समय केवल शब्दों में नहीं अटकना चाहिए, उसके वाच्य अर्थ पर ध्यान देना चाहिए | जैसे हम नक्शे में देखकर कहते हैं कि यह गंगा है, यह हिमालय है, आदि तो वास्तव में वह गंगा या हिमालय आदि नहीं है, वहाँ नक्शे में शीतलता नहीं है,  हमें नक्शे के माध्यम से वास्तविक गंगा, हिमालय आदि का ज्ञान का करना होता है, उसी प्रकार शास्त्र पढ़ते समय हमें उसकी वाच्यभूत वस्तु का ज्ञान करना चाहिए | बहुत से लोग शब्दों में ही अटके रह जाते हैं,उन्हें ऊपर-ऊपर से रटकर संतुष्ट रह जाते हैं | यह समीचीन शास्त्राध्ययन नहीं है |

शब्दों के वाच्यभूत अर्थ को ठीक से समझने के लिए उनका बारम्बार गहराई से मंथन करना चाहिए, उन्हें ठीक से पचाना चाहिए | वाचन से पाचन महान है | 

शास्त्राध्ययन करते समय कथनों की समीचीन विवक्षा समझना भी अत्यंत आवश्यक है | जहाँ जो कथन जिस अपेक्षा से किया गया हो, उसे उसी अपेक्षा से समझना चाहिए | यह बहुत बड़ी चुनौती है | बड़े-बड़े लोगों से इसमें चूक हो जाती है | 

बहुत से लोग शास्त्रों के अनुवादों को पढ़ते हैं, परन्तु अनुवादों में पूरा भाव नहीं आ पाता, अनुवाद तो हमारी मजबूरी होता है, अत: स्वाध्याय में गुणवत्ता लाने के लिए शास्त्रों की मूल भाषा सीखने का प्रयास करना चाहिए, उससे अर्थ अधिक स्पष्ट होता है | इसीप्रकार व्युत्पत्ति, शब्दार्थ, लक्षण, भेद-प्रभेदादि कंठस्थ करके अपने स्वाध्याय में गुणवत्ता बढ़ानी चाहिए | यही हमारा मुख्य कर्तव्य है |’’

इसी प्रकार की और भी अनेक महत्त्वपूर्ण बातें पूज्य आचार्यदेव ने मुझे बताईं और एक बार अंत में पुन: जोर देकर कहा कि देखो,  तुम तो एक ज्ञान से ही प्रीति करो, ज्ञान में ही संतुष्ट रहो और ज्ञान में ही तृप्त रहो, बस एक ज्ञान से ही तुम्हारा परम कल्याण होगा | ज्ञान ही प्रतिक्रमण है, ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान ही दीक्षा है, ज्ञान ही सब कुछ है, शास्त्रों में हजारों कार्य करने के लिए बताए गये हैं, परन्तु उन सबका भी मूलाधार एक ज्ञान ही है, अत: एक ज्ञान की ही उपासना करो | बस, इतना ध्यान रखो कि यह ज्ञान समीचीन हो |

तथा समीचीन ज्ञान का साधन समीचीन शास्त्राध्ययन है, अत: रुचिपूर्वक शास्त्राध्ययन का आश्रय ग्रहण करना चाहिए– ‘तम्हा सत्थं समधिदव्वं’ | हमारी आत्मा पर अनादि काल से मोह (दर्शनमोह-चारित्रमोह) का अंधकार/नशा छाया हुआ है, उसे दूर करने में एक समीचीन शास्त्राध्ययन ही समर्थ है |

विशेषत: इस पंचम काल में तो एक शास्त्राध्ययन ही परम शरण है, अत: निरंतर समीचीन शास्त्राध्ययन करना ही हमारा एक मात्र कर्तव्य है -  ‘तम्हा सत्थं समधिदव्वं’ | ध्यान रहे यहाँ ‘समीचीन’ शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण  है | समीचीन अर्थात् शत-प्रतिशत ईमानदारी से, देखादेखी नहीं, क्योंकि अधिकांश लोग देखादेखी ही कर रहे हैं और उस देखादेखी से कुछ नहीं होता | जब हम स्वयं युक्ति-स्वानुभव से अपना ज्ञान निर्मल करेंगे, तभी हमारा मोह क्षय होगा, उसीसे हमारी सर्व समस्याओं का समाधान होगा | निर्मल ज्ञान ही मोह क्षय का सच्चा कारण है |  

संदर्भ -   
1. जिणसत्थादो अट्ठे......तम्हा सत्थं समधिदव्वं |  - प्रवचनसार, 86 
2. तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वो |  - समयसार, 34  
3. णाणं दिक्खा |  -
4. णाणं पडिक्कमणं | -
5. ज्ञानमेव प्रव्रज्येति – आत्मख्याति, 404                 
6.एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि | एदेण होहि तित्तो.....| - समयसार,206

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