*--जब कुछ प्रश्न 1977 में आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी से पूछे गए तो उनके द्वारा दिए गए सरस उत्तर--*
भाई !अब हम क्या चर्चा करें?
हमने तो कभी किसी से वाद-विवाद किया ही नहीं।22 वर्ष में घर छोड़ा आज 66 वर्ष होने को आये।23 वर्ष स्थानकवासी संप्रदाय में रहे,43 वर्ष दिगम्बर धर्म स्वीकार किए हो गए।आज तक तो किसी से विवाद किया नहीं।
"तत्त्वनिर्णय वाद-विवाद से नहीं होता।तत्त्वनिर्णय दिगम्बर जिनवाणी के अध्ययन,मनन,चिंतन और आत्मा के अनुभव से होता है।
वाद-विवाद से पार पड़ने वाली नही है।यह तो हम पहले से ही जानते थे।अतः हम तो सदा ही इससे दूर ही रहे,वाद विवाद में कभी पड़े ही नहीं।"
रास्ता निकलता कहाँ है?तुम्हारे जयपुर [खानियाँ] में सैकड़ों विद्वानों के बीच लिखित चर्चा हो चुकी है और वह छप भी चुकी है,उससे भी कुछ पार नहीं पड़ी तो अब क्या पार पड़ेगी?
ऐसी चर्चाओं से कुछ पार पड़ने वाली नहीं है,यह जगत तो ऐसे ही चलता रहेगा। *मनुष्य भव एवं परम सत्य दिगम्बर धर्म पाया है तो आत्मानुभव प्राप्त कर इसे सार्थक कर लेना चाहिए।जगत के प्रपंचों में उलझने से कोई लाभ नहीं है।*
हमने तो दिगम्बर धर्म को 'सत्य पंथ निर्ग्रन्थ दिगम्बर' जानकर मानकर अंगीकार किया है। *धर्म तो श्रद्धा की वस्तु है,उसे किसी के सील-सिक्के की आवश्यकता नहीं है।*
हमें न तो किसी ने दिगम्बर बनाया है और न कोई हमें गैर दिगम्बर ही बना सकता है। *हम तो अपनी श्रद्धा से दिगम्बर बने हैं और अपनी श्रद्धा से ही बने रहेंगें।*
"यह आत्मा की बात अत्यन्त सूक्ष्म है।जो लड़ने या समझाने के मूड में आयेगा उसकी समझ में आनी संभव नहीं।जो समझने के लिए आवे,महीनों शांति से सुने, अभ्यास करे,तो समझ में आ सकती है ।माथे पर सवार होकर आने वाले के समझ में आवे-ऐसी बात नहीं है।अत्यन्त गंभीर और सूक्ष्म बात है न ।बाहर-बाहर की बातों से समझ में आने वाली नहीं।"
*"एक बार क्या हम तो बार-बार कहते हैं कि मनुष्य भव और दिगम्बर धर्म बार बार मिलने वाला नहीं।"* जिसे आत्मा का हित करना हो उसे जगत के सब प्रपंचों से दूर रह कर आत्मानुभव प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।यही एकमात्र करने योग्य कार्य है।शांति भी इसी में है।
*ऐसा कहकर वे स्वाध्याय करने लगे...*
साभार:- *आत्मधर्म* ; *अगस्त 1977*
प्रेषक:-ज्ञाता सिंघई (सिवनी)
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