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अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी

जम्बूस्वामी के पश्चात् विष्णुनंदि, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहुस्वामी ये पाँचों ही आचार्य बारह अंग के धारक श्रुतकेवली हुए। इनका कुल सामूहिक समय सौ वर्ष का है। इनके पश्चात् कोई श्रुतकेवली नहीं हुए।

अब हम इन पाँचों श्रुतकेवली भगवन्तों का संक्षिप्त परिचय देखते हैं-

1) प्रथम श्रुतकेवली श्री विष्णुनंदि : (अपरनाम विष्णु, नंदि अथवा नंदिमुनि)

समय : वीर निर्वाण संवत् 62 से 76, ईस्वी सन पूर्व 465 से 451 (14 वर्ष)

जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद सकल सिद्धान्त के ज्ञाता श्री विष्णुनंदि आचार्य थे, जो बारह अंग के धारक प्रथम श्रुतकेवली हुए। उग्र तप के कारण उनका शरीर अत्यन्त कृश हुआ था। वे ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते होने पर भी, मुनिसंघ का कुशलता से संचालन करते थे। आपके प्रभाव से संघ के मुनिवर अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होते थे। आपकी प्रशान्त, सौम्यमुद्रा का मुनिसंघ पर विशेष प्रभाव था।

आपने 14 वर्ष तक संघसहित अनेक प्रदेशों में विहार करके धर्मोपदेश द्वारा जगत के जीवों का कल्याण किया। अन्त में आपने नंदिमित्र आचार्य को बारह अंग का उपदेश देकर तथा संघ का समस्त ही भार सौंपकर देवलोक में पधारे।


2) दूसरे श्रुतकेवली श्री नंदिमित्र :

समय : वीर निर्वाण संवत् 76 से 92, ईस्वी सन् पूर्व 451 से 435 (16 वर्ष)

महामुनि नंदिमित्र, ध्यान और अध्ययन की दो ही प्रवृत्ति द्वारा अपनी आत्मसाधना में तल्लीन रहते थे। वे उपसर्ग और परीषहों को साम्यभाव से सहन करते थे। आपने 16 वर्ष तक संघसहित विविध नगरों में विहार करके महावीर शासन का प्रचार किया और धर्मोपदेश देकर अन्य जीवों को कल्याण का मार्ग बतलाया।

अन्त में आपने श्री अपराजित आचार्य को बारह अंग का उपदेश देकर तथा संघ के संचालन का उत्तरदायित्व देकर देवलोक पधारे।


3) तृतीय श्रुतकेवली श्री अपराजित आचार्य :

समय : वीर निर्वाण संवत् 92 से 114, ईस्वी सन् पूर्व 435 से 413 (22 वर्ष)

श्री अपराजित आचार्यदेव ने उग्र तप द्वारा कषाय-अग्नि को उपशम किया था। ध्यान, अध्ययन और अध्यापन ही आपका मुख्य कार्य था। आपका शरीर कृश होने पर भी, आपका आत्मिक बल अतुल था। आपकी सौम्य प्रकृति और हित-मित वचन, संघ में विशिष्ट विशेषता रखते थे। आप अन्यमत के खण्डन करने में तथा जैनमत को सिद्ध करने में कुशल थे।

श्री अपराजित आचार्य, वाद करने में अत्यन्त निपुण थे, कोई उन्हें पराजित नहीं कर सकता था; इसलिए उनका नाम अपराजित सार्थक था। वे बारह अंगके ज्ञाता श्रुतकेवली थे। संघ का सफल संचालन करते-करते संघसहित अनेक देश, नगर और गाँवों में विहार करके वीरशासन के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। अन्त में आपने श्री गोवर्धन को बारह अंग का ज्ञान देकर तथा संघ का संचालन सौंपकर देवगति प्राप्त की।


4) चतुर्थ श्रुतकेवली श्री गोवर्धन आचार्य :

समय : वीर निर्वाण संवत् 114 से 133, ईस्वी सन् पूर्व 413 से 394 (19 वर्ष)

आपश्री अपराजित श्रुतकेवली के शिष्य थे। अन्तर्बाह्य ग्रन्थि के परित्यागी, महातपस्वी तथा अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। आपने भद्रबाहु को बारह अंग का ज्ञान देकर संघ का सम्पूर्ण संचालन सौंपकर तथा समाधिमरण पूर्वक देह त्याग करके देवगति को प्राप्त किया।


5) पांचवे अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु (प्रथम) :

समय : वीर निर्वाण संवत् 133 से 162, ईस्वी सन् पूर्व 394 से 365 (29 वर्ष)

एक बार गोवर्धन आचार्य, संघसहित विहार करते-करते उर्जयन्तगिरि पर्वत पर भगवान नेमिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति वन्दना करके विहार करके देवकोट्टनगर में पधारे, जो पोड्रवर्धन देश में स्थित था, वहाँ उन्होंने मार्ग में कितने ही बालकों को खेलते देखा, उनमें से एक बालक तेजस्वी और प्रखर बुद्धिवाला था। उसने एक के ऊपर एक ऐसे चौदह गोल पत्थर चढ़ा दिये। यह देखकर आचार्यश्री ने निमित्तज्ञान से जान लिया कि यह बालक बारह अंग का धारक अन्तिम श्रुतकेवली होगा। उन्होंने बालक का नाम, पिता का नाम इत्यादि पूछा। बालक ने अपना नाम भद्रबाहु और पिता का नाम सोमशर्मा कहा। आचार्यश्री ने पूछा-वत्स ! तू हमें अपने पिता के घर ले जायेगा ? बालक उन्हें तत्काल अपने घर ले गया। भद्रबाहु के पिता सोमशर्मा ने आचार्य महाराज को देखते ही विनय से नमस्कार करके उच्च आसन पर बैठाया। गोवर्धन आचार्यदेव ने कहा-तुम, तुम्हारे पुत्र को विद्या अध्ययन के लिये हमारे पास भेजो। सोमशर्मा ने उनकी बात स्वीकार करके आचार्यश्री के साथ अपने पुत्र भद्रबाहु को भेज दिया। आचार्यदेव ने उसे बहुत विद्याएँ सिखलायीं और उच्च कोटि का विद्वान बना दिया। पश्चात् कहा कि अब तू विद्वान हो गया है; इसलिए अब तू तेरे माता-पिता के पास जा सकता है। भद्रबाहु अपने पिता के पास आता है और वे उसे विद्वान देखकर बहुत आनन्दित होते हैं।

तत्पश्चात् भद्रबाहु, पिता की आज्ञा लेकर पुन: आचार्यदेव के संघ में आते हैं और दिगम्बर दीक्षा धारण करते हैं। दीक्षा के बाद भद्रबाहु मुनिराज उग्र तप के साथ-साथ अध्ययन में लीन रहते हैं। गोवर्धन आचार्यदेव उन्हें बारह अंग का ज्ञान देते हैं तथा संघ का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व सौंपकर, समाधिमरण पूर्वक देहत्याग करके देवगति को प्राप्त करते हैं।

भद्रबाहु श्रुतकेवली अपने विशाल संघ के साथ अनेक देशों में विहार करते-करते उज्जैन पधारते हैं। वहाँ शिप्रा नदी के किनारे उपवन में रूकते हैं। वहाँ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य आकर उनकी वन्दना करते हैं।

एक दिन भद्रबाहुस्वामी आहार के लिये नगरी में आते हैं और एक मकान के समीप खड़े रहते हैं, वहाँ कोई भी बड़ा व्यक्ति नहीं था परन्तु पालने में झूलते बालक ने कहा-मुनिराज ! आप यहाँ से तुरन्त ही चले जाओ, चले जाओ। तब भद्रबाहुस्वामी ने अपने निमित्तज्ञान से जान लिया कि यहाँ बारह वर्ष का भारी दुष्काल पड़नेवाला है, बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होने से अनाज इत्यादि नहीं होगा, धीरे-धीरे इस प्रदेश में से मनुष्य अन्यत्र चले जायेंगे-ऐसा जानकर वे आहार लिये बिना ही वापिस फिरे, वहाँ से जिनमन्दिर में आकर आवश्यक क्रियाएँ की, दोपहर में ही समस्त मुनिसंघ में घोषणा कर दी कि यहाँ बारह वर्ष का दुष्काल पड़नेवाला है; इसलिए समस्त संघ को दक्षिण देश में चले जाना है।

सम्राट चन्द्रगुप्त को रात्रि में सोलह स्वप्न आते हैं। वे आचार्य भद्रबाहु के समीप धर्मोपदेश सुनने तथा इन स्वप्नों का फल पूछने आते हैं। आचार्यदेवने कहा-तुम्हारे स्वप्न अनिष्ट फल के सूचक हैं। यहाँ बारह वर्ष तक भारी दुष्काल पड़नेवाला है, उसमें जान-माल का बहुत नुकशान होगा।

चन्द्रगुप्त राजा यह बात सुनकर, वैराग्य होने से अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर आचार्य भद्रबाहु के समीप जिनदीक्षा अंगीकार करते हैं। आचार्य भद्रबाहु वहाँ से संघसहित निकलकर दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला पधारते हैं। वहाँ उन्होंने कहा-अब मेरी आयु अल्प है, इसलिए मैं यही रहूँगा। उन्होंने मुनिसंघ को बतला दिया कि वे श्री विशाखाचार्य के नेतृत्व में आये जाये।

भद्रबाहु आचार्य, श्रुतकेवली होने के उपरान्त अष्टांग महानिमित्त के भी ज्ञाता थे। वे दक्षिण देश में जैनधर्म के प्रचार की बात से परिचित थे ही; इसीलिए ही उन्होंने बारह हजार साधुओं के विशाल संघ को दक्षिण में जाने की आज्ञा की थी। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि वहाँ जैन साधुओं के आचार का पालन निर्विघ्नरूप से होगा।

भद्रबाहु आचार्य यहाँ श्रवणबेलगोला में ही रह जाते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य, जिनका दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र था, वे अपने गुरु की सेवा-सुश्रूषाके लिये वहीं रुक जाते हैं। भद्रबाहुस्वामी ने अवमौदार्य (ऊनोदर) तप किया और पश्चात् समाधिमरण प्राप्त किया। उनके समाधिमरण सम्बन्धी भगवती आराधना में इस प्रकार उल्लेख है।

ओमोदरिये घोराए भद्रबाहु य संकिलिट्ठमदी।

घोराए तिगिंच्छाए पडिवण्णें उत्तमं ठाणं।।1544।।

भद्रबाहुस्वामी के स्वर्गारोहण के पश्चात् बारह अंग के ज्ञान का अभाव हुआ, क्योंकि वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। भद्रबाहु श्रुतकेवली के स्वर्गारोहण के बाद श्वेताम्बर पंथ की अलग परम्परा शुरु हुई।

भद्रबाहुस्वामी के संघ के ही स्थूलभद्र और स्थूलाचार्य रामल्य नामक साधुओं ने उत्तर प्रान्त में बारह वर्ष के दुष्काल के कारण वह प्रदेश त्याग करके दक्षिण में गमन कर जाने सम्बन्धी आचार्यश्री की आज्ञा नहीं मानी और वे उत्तर प्रान्त में ही कितने ही अन्य साधुओं के साथ रह गये। इस बारह वर्ष के दुष्काल के दौरान उत्तर प्रान्त में साधु, मुनिधर्म के आचारों का निर्दोष पालन नहीं कर सके, जिसके फलस्वरूप अभी तक अखण्ड रहा हुआ जिनशासन दो भागमें विभाजित हुआ।

श्री विशाखाचार्य, आचारांग आदि ग्यारह अंग तथा उत्पाद पूर्व से लेकर विद्यानुवाद पूर्व तक के दश पूर्व के ज्ञाता थे और शेष पूर्व के एकदेश धारक थे। इन विशाखाचार्य के आदेश और निर्देश से बारह हजार मुनिवरों ने दक्षिण देश में वीरशासन का प्रचार-प्रसार किया। पाण्डव देशों में विहार किया तथा अपनी साधुचर्या का निर्दोषरूप से पालन किया। बारह वर्ष के दुष्काल के पश्चात् वे पुन: उत्तरदेश में विहार कर गये।

श्री विशाखाचार्य की परम्परा से क्रमश: ग्यारह आचार्य हुए जो ग्यारह अंग और दश पूर्व के ज्ञाता थे। उनके नाम इस प्रकार हैं-श्री विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल; क्षत्रिय; जयसेन (जय); नागसेन (नाग); सिद्धार्थ; घृतिसेन; विजय (विजयसेन); बुद्धिल्ल (बुद्धिलिंग); गंगदेव (देव); और धर्मसेन (सुधर्म)।

परंपरा से इन सबका कुल समय 183 वर्षका है।

आचार्य धर्मसेन के स्वर्गवास पश्चात् दश पूर्व ज्ञान का विच्छेद हो गया। परन्तु इतनी विशेषता रही की श्री नक्षत्र; जयकाल; पाण्डव; ध्रुवसेन (द्रुमसेन, घृतसेन) और कंस-ये पाँच आचार्य, ग्यारह अंग के धारक हुए। इन पाँच आचार्यों का कुल समय 123 वर्षका है।

कंसाचार्य के स्वर्गवास पश्चात् भरतक्षेत्र में कोई भी आचार्य ग्यारह अंग के धारक नहीं हुए। उनकी परम्परामें हुए श्री सुभद्र; यशोभद्र (अभयभद्र); भद्रबाहु (द्वितीय) (यशोबाहु, जयबाहु) और लोहाचार्य (द्वितीय)-ये चार आचार्य, आचारांग आदि दश अंग के धारक थे। इन चार आचार्यों का सामूहिक समय 97 वर्षका है।

इस प्रकार श्री महावीर भगवान के निर्वाण के बाद शासन परम्परा इस प्रकार हुई-

क्रमसंख्याज्ञाननामसमय (वर्ष)
1.तीनअनुबद्धकेवली भगवन्तश्री इन्द्रभूति गौतम, श्री सुधर्मस्वामी (लोहाचार्य) एवं श्री जम्बूस्वामी92
2.पाँचश्रुतकेवली 12 अंगके ज्ञाताश्री विष्णुनंदि, नंदिमित्र अपराजित आचार्य, गोवर्धन आचार्य एवं भद्रबाहुस्वामी100
3.ग्यारहआचार्य, 11 अंग एवं 10 पूर्वके ज्ञाताश्री विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, घृतिसेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव एवं धर्मसेन183
4.पाँचआचार्य, 11 अंगके ज्ञाताश्री नक्षत्र, जयपाल, पांडव, ध्रुवसेन एवं कंस123
5.चारआचार्य आचारांग आदि दस अंगके ज्ञाताश्री सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु (द्वितीय) एवं लोहाचार्य (द्वितीय)97
 कुल समय565 वर्ष

इस प्रकार हमने देखा कि क्रम-क्रम से बारह अंग चौदहपूर्व के ज्ञान में न्यूनता होती गयी। यहाँ तक अर्थात् वीर निर्वाण के 565 वर्ष तक इस उपलब्ध ज्ञान को लिपिबद्ध करने की परिपाटी नहीं थी।

द्रव्यश्रुत : संक्षिप्त परिचय

  • ज्ञान
    जीव का विशेष गुण, वह ज्ञान है अथवा जाननमात्र, वह ज्ञान है।
  • ज्ञान के आठ भेद
    • (1) केवलज्ञान
    •  
    • (2) मन:पर्ययज्ञान
    •  
    • (3)अवधिज्ञान
    •  
    • (4) विभंग ज्ञान (कुअवधिज्ञान)
    •  
    • (5) श्रुतज्ञान
    •  
    • (6) कुश्रुतज्ञान
    •  
    • (7)मतिज्ञान
    •  
    • (8) कुमतिज्ञान
  • श्रुतज्ञान
    • - अवग्रह से लेकर धारणा पर्यन्त मतिज्ञान द्वारा जाननेमें आये हुए अर्थके निमित्तसे अन्य अर्थका ज्ञान होना, वह श्रुतज्ञान है।
    •  
    • - जो परोक्षरूप से सर्व वस्तुओंको अनेकान्तरूप दर्शाता है।
    •  
    • - संशय, विपर्यय आदि से रहित ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं।
    •  
    • - श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक होता है।
    •  
    • - आत्माकी सिद्धि के लिये मति-श्रुतज्ञान नियत कारण है।
  • श्रुतज्ञान के भेद
    द्रव्यश्रुत और भावश्रुत
  • द्रव्यश्रुत-भावश्रुत
    आचारांग आदि बारह अंग, उत्पाद पूर्वादि चौदह पूर्व और सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णकस्वरूप द्रव्यश्रुत है। और उसके निमित्त से उत्पन्न होनेवाला निर्विकार स्व-अनुभवरूप ज्ञान, वह भावश्रुत जानना।
  • द्रव्यश्रुत के भेद
    अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य।
  • अंगकी व्याख्या
    तीनों ही काल के समस्त द्रव्य अथवा पर्यायों की ‘अंगति’ अर्थात् प्राप्त होता है अथवा व्याप्त करता है, वह अंग है। अथवा समस्त श्रुत के और उसके आचार आदिरूप अवयव को अंग कहते हैं।
  • अंग प्रविष्ट
    आचारांग आदि बारह भेद सहित है, वह अंग प्रविष्ट है।
  • अंगबाह्य
    गणधरदेव के शिष्य प्रशिष्य द्वारा अल्पायु बुद्धिबल वाले जीवों को उपदेशार्थ अंगो के आधार से रचित संक्षिप्त ग्रन्थ, अंग बाह्य है।
  • बारह अंग की रचना
    तीर्थंकरदेव की ओमकार ध्वनि सुनते हुए समवसरण में गणधरदेव को और अन्तर्मुहूर्त में बारह अंगरूप द्रव्यश्रुतज्ञान प्रगट होता है। गणधरदेव बीज, कोष्ठ, पदानुसारी, तथा समभिन्नश्रोत्रत्व बुद्धि-ऋद्धिधारी होने से बारह अंग का ज्ञान शक्य बनता है।
  • अक्षर
    • जितने अक्षर हैं, उतना ही श्रुतज्ञान है क्योंकि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है।
    •  
    • एक मात्रावाले वर्ण हृस्व कहलाते हैं।
    •  
    • दो मात्रावाले वर्ण दीर्घ कहलाते हैं।
    •  
    • तीन मात्रावाले वर्ण प्लुत कहलाते हैं। और
    •  
    • अर्ध मात्रावाले वर्ण व्यंजन कहलाते हैं।
    •  
    • व्यंजन-33 हैं, स्वर-9, हृस्व-9, दीर्घ-8, प्लुत ऐसे मिलकर 27 हैं। और अयोगवाह अं, अ:, x क तथा x 5 ऐसे चार हैं। कुल 64 होते हैं।
  • 64 अक्षर की स्थापना

    अ आ आइ, इ ई, ई3, उ ऊ ऊ3, ऋ ऋ ऋ3, लृ लृ लृ3, ए ए2 ए3, ओ ओर ओ3, औ और औ3,

    क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह x क x प अं. अ:

    इन 64 अक्षर के परस्पर सहयोग से एक कम करने पर कुल संयोगाक्षर 18446744073709551615 होती है।

  • पद
    एक अक्षर से जो जघन्य ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अक्षर श्रुतज्ञान है। एक अक्षर पर दूसरे अक्षर की वृद्धि होने से अक्षर समास नाम का श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक-एक अक्षर की वृद्धि करने से संख्यात अक्षरों की वृद्धि तक अक्षर समास श्रुतज्ञान होता है, और संख्यात अक्षरों के मिलाप से एक पद नाम का श्रुतज्ञान होता है। पद तीन प्रकार के हैं। अर्थ पद, प्रमाण पद और मध्यम पद।
  • पद अक्षर
    एक-एक अक्षर से अर्थकी प्राप्ति हो, वह अर्थ पद है; आठ अक्षर से निष्पन्न वह प्रमाणपद है और 16, 34, 83, 07, 888 इतने अक्षरों का ग्रहण एक मध्यम पद है।

8 अक्षरों का एक श्लोक गिनने से मध्यम पद में 51, 08, 84, 621 + 9/2 इतने श्लोक बनते हैं।

इससे सकल द्रव्यश्रुत के कुल अक्षर संख्या को मध्यम पद से भाग देने पर 112, 83, 58, 005 पद बनते हैं। वे बारह अंग के (अंग-प्रविष्ट के) कुल पद हैं और उपरान्त में शेष 8, 01, 08, 175 अक्षर बाकी रहते हैं। इतना अंगबाह्यश्रुत है।

अंगप्रविष्टश्रुत के भेद, विषय तथा पदों की संख्या तथा अंग बाह्य श्रुत के भेद तथा विषयका वर्णन आगामी कोष्ठक में दिया गया है।

द्रव्यश्रुत के दो भेद हैं- 1-अंगप्रविष्ट और 2-अंगबाह्य।

अंगप्रविष्ट श्रुत के बारह भेद हैं जो “द्वादशांगी” (बारह अंग) रूपसे प्रसिद्ध हैं।


द्रव्यश्रुत

अंगप्रविष्ट

अंगबाह्यश्रुत

बारह अंगचौदह प्रकीर्णक
आचारांगसामायिक
सूत्र कृतांगचतुर्विंशतिस्तव
स्थानांगवंदना
समवाय अंगप्रतिक्रमण
व्याख्या प्रज्ञप्तिअंगवैनयिक
ज्ञातृधर्मकथाअंगकृतिकर्म
उपासकाध्ययन अंगदशवैकालिक
अंतकृतदशांग अंगउत्तराध्ययन
अनुत्तरोपपादक अंगकल्पव्यवहार
प्रश्नव्याकरण अंगकल्पाकल्प
विपाकसूत्र अंगमहाकल्प
द्रष्टिवाद अंगपुंडरिक
-महापुंडरिक
-निषिध्धिका/निसितिका

बारह अंग-उनके विषय और पद संख्या

क्रमनामविषयपद संख्या
1आचारांगइसमें मुनिवरों के आचारों का निरूपण है।18,000
2सूत्रकृतांगज्ञान के विनय आदि अथवा धर्म क्रिया में स्व-मत पर-मत की क्रिया के विशेषों का निरूपण है।36,000
3स्थानांगपदार्थों के एक आदि स्थानों का निरूपण है; जैसे कि जीव सामान्यरूप से एक प्रकार, विशेषरूप से दो प्रकार, तीन प्रकार इत्यादि ऐसे कहे हैं।42,000
4समवायअंगजीवादि छह द्रव्यों के द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि द्वारा वर्णन है।1,64,000
5व्याख्याप्रज्ञप्तिअंगजीव के अस्ति-नास्ति आदि 60,000 प्रश्न गणधर देवों ने तीर्थंकर के समीप किये, उनका वर्णन है।2,28,000
6ज्ञातृधर्मकथाअंगतीर्थंकरो की धर्म कथा, जीवादि पदार्थों के स्वभावका वर्णन तथा गणधर के प्रशनों के उत्तर का वर्णन है।5,56,000
7उपासकाध्ययनअंगग्यारह प्रतिमा आदि श्रावक के आचार का वर्णन है।11,70,000
8अंतकृतदशांगअंगएक-एक तीर्थंकर के काल में दस-दस अंतकृत केवली हुए, उनका वर्णन है।23,28,000
9अनुत्तरोपपादकअंगएक-एक तीर्थंकर के काल में दस-दस महामुनि घोर उपसर्ग सहन करके अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए उसका वर्णन है।92,44,000
10प्रश्नव्याकरणअंगइसमें भूतकाल और भविष्यकाल सम्बन्धी शुभ-अशुभ का कोई प्रश्न करे, उसके यथार्थ उत्तर कहने के उपाय का वर्णन है तथा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी-इन चार कथाओं का भी इस अंग में वर्णन है।93,16,00
11विपाकसूत्रअंगकर्म के उदय के तीव्र मन्द अनुभाग का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सहित वर्णन है।18400000
12द्रष्टिवादअंगइस अंगमें 180 क्रियावाद, 84 अक्रियावाद, 67 अज्ञानिकवाद और 32 वैनयिकवाद ऐसे मिथ्या-दर्शन सम्बन्धी 363 कुवादों का वर्णन है और उनका खण्डन करने में पाँच अधिकार है।
1. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. प्रथमानुयोग, 4. पूर्वगत (चौदहपूर्व) और 5. चूलिका
1,08,68,56,005
बारह अंग के कुल पद112,83,58,005
एक सौ बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पाँच

बारहवें द्रष्टिवाद अंग के पाँच अधिकार

पहला अधिकार- परिकर्म है

परिकर्म में गणिक के करणसूत्र हैं, इसके पाँच भेद हैं।

क्रमनामविषयपद संख्या
1चन्द्रप्रज्ञप्तिचन्द्रमा के गमनादिक, परिवार, वृद्धि-हानि ग्रह आदि का वर्णन है।36,05,000
2सूर्यप्रज्ञप्तिसूर्य के ऋद्धि, परिवार, गमन आदि का वर्णन है।5,03,000
3जम्बूद्वीपजम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरुगिरिक्षेत्र, कुलाचल प्रज्ञप्ति आदि का वर्णन है।3,25,000
4द्वीपसागर-प्रज्ञप्तिद्वीपसागर का स्वरूप तथा वहाँ स्थित ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देवों के आवास तथा वहाँ स्थित जिनमन्दिरों का वर्णन है।52,36,000
5व्याख्यानप्रज्ञप्तिजीव-अजीव पदार्थों के प्रमाण का वर्णन है।84,36,000
परिकर्म के कुल पद1,81,05,000
--एक करोड़, इक्यासी लाख, पाँच हजार

दूसरा अधिकार - सूत्र है

इसमें मिथ्यादर्शन सम्बन्धी 363 कुवादों का पूर्व पक्ष लेकर उन्हें जीव पदार्थ पर लगाना-आदि का वर्णन है।
इसके पद (अट्ठासी लाख) 88,00,000

तीसरा अधिकार - प्रथमानुयोग है

इसमें प्रथम जीव का उपदेश योग्य तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि त्रेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन है।
इसके पद (पाँच हजार) 5,000

चौथा अधिकार - पूर्वगत है

इसके चौदह भेद हैं, जो चौदह पूर्व के रूप में प्रसिद्ध है।

क्रमपूर्वविषयवस्तु अधिकारप्रत्येक अधिकारमें 20 पाहुड़/24 अनुयोग द्वारकुल पद की संख्या
1उत्पादपूर्वइसमें जीव आदि वस्तुओं के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आदि अनेक धर्मों की अपेक्षा से भेद-वर्णन है।10200/48001,00,00,000
2अग्रायणीपूर्वइसमें सात सौ सुनय, दुर्नय और षट्द्रव्य, सप्त तत्त्व, नौ पदार्थों का वर्णन है।14280/672096,00,000
3वीर्यानुवादपूर्वइसमें छह द्रव्यों की शक्तिरूप वीर्य का वर्णन है।8160/384070,00,000
4अस्ति-नास्ति प्रवादपूर्वइसमें जीवादिक वस्तु का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्ति; पररूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्ति आदि अनेक धर्मों में विधि निषेध करके सप्तभंग द्वारा कथंचित् विरोध मिटाने रूप मुख्य-गौण करके वर्णन है।18360/864060,00,000
5ज्ञानप्रवादपूर्वइसमें ज्ञान के भेदों का स्वरूप, संख्या, विषय, फल आदि का वर्णन है।12240/576099,99,999
6सत्यप्रवादपूर्वइसमें सत्य, असत्य आदि वचनों की अनेक प्रकार की प्रवृत्ति का वर्णन है।12240/57601,00,00,006
7आत्मप्रवादपूर्वइसमें आत्मा (जीव) पदार्थ के कर्ताभोक्ता आदि अनेक धर्मों का निश्चय-व्यवहारनय की अपेक्षा से वर्णन है।16320/768026,00,00,000
8कर्मप्रवादपूर्वइसमें ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों के बंध, सप्त, उदय, उदीरणा, आदिका तथा क्रियारूप कर्मों का वर्णन है।20400/96001,80,00,000
9प्रत्याख्यानपूर्वइसमें पाप के त्याग का अनेक प्रकार से वर्णन है।30600/1440084,00,000
10विद्यानुवादपूर्वइसमें सात सौ क्षुद्रविद्या और पाँचसौ महाविद्याओं का स्वरूप, साधन, मन्त्रादिक और सिद्ध हुए उनके फल का वर्णन है तथा अष्टांग निमित्त ज्ञान का वर्णन है।15300/72001,10,00,000
11कल्याणवादपूर्वइसमें तीर्थंकर, चक्रव्रर्ती आदि के गर्भ कल्याणक के उत्सव तथा उनका कारण षोडशभावना आदि, तपश्चरण आदि तथा चन्द्रमा, सूर्यादिक के गमन, विशेष आदि का वर्णन है।10200/480026,00,00,000
12प्राणवादपूर्वइसमें आठ प्रकार के वैदक तथा भूतादिक की व्याधि को दूर करने के मंत्रादिक तथा विष दूर करने के उपाय और स्वरोदय आदि का वर्णन है।10200/480013,00,00,000
13क्रियाविशालपूर्वइसमें संगीतशास्त्र, छंद, अलंकारादिक तथा चौसठ कला गर्भाधान आदि चौरासी क्रिया, सम्यग्दर्शनादि एक सौ आठ क्रिया, देववंदनादि, पच्चीसक्रिया, नित्यनैमित्तिक क्रिया इत्यादि का वर्णन है।10200/48009,00,00,000
14त्रिलोकपूर्वइसमें तीन लोक का स्वरूप बिन्दुसार, बीजगणित आदि का स्वरूप, तथा मोक्ष का स्वरूप और मोक्ष के कारणभूत क्रिया का स्वरूप इत्यादि का वर्णन है।10200/480012,50,00,000
कुल1953900/9360095,50,00,005
पिचानवे करोड, पचास लाख, पांच

पाँचवाँ अधिकार चूलिका है। उसके पाँच भेद हैं।

क्रमनामविषयपद की संख्या
1जलगता चूलिकाजलका स्तम्भन करना, जल में चलना, अग्निगतता चूलिका में अग्नि स्तम्भन करना, अग्नि में प्रवेश करना, अग्नि का भक्षण करना इत्यादि के कारणभूत मंत्र-तंत्रादि की प्ररूपणा है।2,09,89,200
2स्थलगता चूलिकामेरुपर्वत, भूमि इत्यादि में प्रवेश करना, शीघ्रगमन करना इत्यादि क्रिया के कारणरूप मंत्र, तंत्र तपश्चरणादि की प्ररूपणा है।2,09,89,200
3मायागत चूलिकाइसमें मायामयी इन्द्रजाल विक्रिया के कारणभूत मंत्र, तंत्र तपश्चरणादि की प्ररूपणा है।2,09,89,200
4रूपगता चूलिकाइसमें सिंह, हाथी, घोड़ा, बैल, हिरण इत्यादि अनेक प्रकार के रूप बना लेने के कारणभूत मंत्र, तंत्र तपश्चरणादि की प्ररूपणा है तथा चित्राम काष्ठलेप आदि के लक्षणका वर्णन है।2,09,89,200
5आकाशगता चूलिकाइसमें आकाश में गमन आदि के कारणभूत मंत्र, यंत्र, तंत्रादि की प्ररूपणा है।2,09,89,200
चूलिका के कुल पद10,49,46,000

बारहवें दृष्टिवाद अंगके प्रत्येक अधिकार के कुल पद की संख्या

1परिकर्म1,81,05,000
2सूत्र88,00,000
3प्रथमानुयोग5,000
4पूर्वगत (14 पूर्व)95,50,00,005
5चूलिका10,49,46,000
कुल पद108,68,56,005
एक सौ आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पाँच
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