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Showing posts from 2019

बगुला भक्ति

*ऐसे भक्तों से भी सावधान रहे समाज*  मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सीता के वियोग में भटकते हुए पम्पा सरोवर पर पहुँचते हैं।सरोवर की शोभा उसकी पवित्रता और वहाँ स्थित वन्यप्राणियों को देख कर क्षण भरके लिए वे सीता विरह की कातरता को भूल जाते हैं। अकस्मात् उनका ध्यान एक बगुली पर जाता है जो एक पैर पर खड़ी हो शान्तचित्त ध्यानमग्न थी। उसकी तन्मयता को देख कर श्री राम बोल पड़ते हैं-- हे लक्ष्मण! देखो,यह बगुली परमधार्मिक है।यह जीव वध की आशंका से आगे नहीं बढ़ रही है,एक पग पर चुप खड़ी है। अपने पैरों को धीरे धीरे आगे बढ़ा रही है---- *पश्य लक्ष्मण! पम्पाया: बको परम धार्मिक:*। *शनैः  शनैः  पदं  धत्ते  जीवानां  बध शंकया* ।। लक्ष्मण जी इतने से ही खुश थे कि सीता विरह से अग्रज का मन थोड़ा दूसरी ओर तो हुआ ।  वातावरण अद्भुत था। शान्त वातावरण को भेदती हुई एक आवाज गूंज उठी। बोलने वाली सरोवर की ही एक मछली थी-- हे राम! आप इस बगुली को नहीं जानते।यह बहुत धूर्त है।इसने मेरे कुल को समाप्त कर दिया। पडोसी  ही पड़ोसी का चरित्र बेहतर ढंगसे जानता है।यह कोई तपस्विनी नहीं है। यह वातावरण में विश्वास उत्पन्न करती है और पास आयी मछलियों

श्वेताम्बर प्राकृत आगम साहित्य

श्वेताम्बर आगम साहित्य  द्वादशांग  (1) आचारांग (2) सूत्रकृतांग (3) स्थानांग (4) समयांग (5) भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति (6) ज्ञाताधर्म कथा (णायाधम्महाओ) (7) उपासकादशा (8) अंतकृदशा (9)अनुत्तरोपपातिक  (10) प्रश्नव्याकरण,  (11) विपाक सूत्र  (12) दृष्टिवाद। 1. आचारांग - इस श्रुतग्रंथ में मुनियों के पालने योग्य सदाचार का विवरण दिया गया है। यह दो श्रुतस्कंधों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध में 9 अध्ययन और उनके अंतर्गत 44 उद्देश्यक हैं। ग्रंथ का यह भाग मूल एवं भाषा, शैली और विषय की दृष्टि से प्राचीनतम है। द्वि. श्रुतस्कंध इसकी चूलिका के रूप में है और वह तीन चूलिकाओं एवं 16 अध्ययनों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध के नवमें उपधान नामक अध्ययन में महावीर की उग्र तपस्या एवं लाढ़ वज्रभूमि, शुभ्रभूमि आदि स्थानो में विहार करते हुए घोर उपसर्गो के सहने का मार्मिक वर्णन है। 2. सूत्रकृतांग - इसके भी दो श्रुतस्कंध हैं जिनमें क्रमश: 16 तथा 7 अध्ययन हैं1 प्रथम श्रुतांग प्राय: मद्यमय है और दूसरे में गद्य पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। इसमें प्राचीन काल के दार्शनिक वादों जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज

प्राकृत की दस गाथाएं

       प्राकृत की दस गाथाएं  प्रस्तुति - डॉ. अनेकांत कुमार जैन  १ उप्पज्जंति तहिं चिय, वियसंति तहिं, तहिं विलिज्जंति। पुण्णसरे कमलाइं व मणो़रहा रोरहियम्मि ।। अर्थ-  सम्पूर्ण सरोवर में कमल की भांतिनिर्धन के मन में स्थित इच्छाएं वहीं उत्पन्न होती हैं, वहीं विकसित होती हैं और वहीँ विलीन हो जाती हैं। (रोर देशी शब्द - निर्धन) २ गुणगरुयाण वि धणवज्जियाण न हवंति चिंतिया अत्था। लक्खेण वि दीवाणं न दिणं दिणनाहविरहम्मि ।। अर्थ= धन से रहित अति गुणवानों की भी अर्थ चिंता दूर नहीं होती। जैसे, लाखों दीया सूर्य के अभाव में दिन की तरह उजाला नहीं कर सकते हैं। गाहारयणकोस, जिणेसरसूरि, गा.123 ३ इंदियसोक्खणिमित्तं सद्धाणादीणि कुणइ सो मिच्छा। तं पिय मोक्खणिमित्तं कुव्वंतो भणइ सद्दिट्ठी।। अर्थ- इन्द्रिय सुख की प्राप्ति के लिये श्रद्धान आदि जो करता है, वह मिथ्यादृष्टि (गलत मान्यता वाला) है; वही श्रद्धान आदि मोक्ष के निमित्त करता हुआ सम्यग्दृष्टि (सही मान्यता वाला) होता है। - द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र 333 - माइल्लधवल कृत ४ विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।। अर्थ-

कुछ प्राकृत सूक्तियां

*कुछ प्राकृत सूक्तियां* १. *चारित्तं‌ खलु धम्मो* । चारित्र ही धर्म‌ है‌ । २. *वत्थु सहावो धम्मो* । वस्तु का स्वभाव धर्म है । ३. *आदा णाण पमाणं* । आत्मा ज्ञान‌ प्रमाण‌ है । ४. *णाणस्स सारमायारो* । ज्ञान का‌ सार‌ आचार‌ है । ५. *झाणं हवे सव्वं*  । -ध्यान ही सब कुछ है।

सम्यक् चारित्र का स्वरूप

सम्यक चारित्र का स्वरूप सम्यक चारित्र :- अपने स्वरूप में रहना ही चारित्र है । पाप कर्मों से हट कर शुभ कार्यों में लगना सम्यक चारित्र है।  मन वचन काय से शुभ कार्य मे प्रवृति करना जिससे हित की पुष्टि हो और अहित का विनाश हो , वह सम्यक चारित्र है। इसमें सत्य ,अहिंसा,संयम,तप,त्याग आदि भावनाओं के अनुसार आचरण किया जाता है तथा पांच पापों और राग द्वेष,काम,क्रोध,मोह,लोभ आदि कषायों का परित्याग किया जाता है।  मोक्ष मार्ग में चारित्र की प्रधानता है, क्योंकि जीव को सम्यक दर्शन और ज्ञान होता भी है और यदि चारित्र-पुरुषार्थ के बल से राग आदि विकल्प रूप असंयम से वह निवृत नहीं होता है तो उसका वह श्रध्दान और ज्ञान कोई हित नहीं कर सकता है। सम्यक चारित्र के १३ अंग हैं -  ५ महाव्रत, ५ समिति और  ३ गुप्ति । ५ महाव्रत -  जिन नियमों का पालन जीवन भर किया जाता है वे महाव्रत कहे जाते हैं  इसमें ५ प्रकार के पापों का जीवन भर मन,वचन,काय और कृत,कारित अनुमोदना से त्याग करना आता है। १.अहिंसा :- किसी जीव को नहीं मारना । २.सत्य :-  झूंठे वचन नहीं बोलना। ऍसै सत्य वचन भी नहीं बोलना जिससे प्राणीयों का जीवन संकट में आ जावें । ३

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश

सम्यग्दर्शन पर निबंध की रूप रेखा

*सम्यग्दर्शन पर निबंध की रूप रेखा* जिस प्रकार नींव के बिना मकान का महत्व नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना मोक्षमार्गी का कोई महत्व नहीं है।  *सम्यकदर्शन की परिभाषा*   तत्त्वार्थ के प्रति सच्ची श्रद्धा का नाम  सम्यग्दर्शन है । सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का तीन मूढ़ता रहित, आठ मद से रहित और आठ अंग सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।  *चार अनुयोगों की अपेक्षा सम्यकदर्शन की परिभाषा* *प्रथमानुयोग* - सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान करना।  *करणानुयोग* - सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होने वाले श्रद्धा रूप परिणाम।  *चरणानुयोग* - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य का भाव होना।  *द्रव्यानुयोग* - तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।     *सम्यग्दर्शन के कितने भेद* सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं - 1. सराग सम्यग्दर्शन  2. वीतराग सम्यग्दर्शन।  1. सराग सम्यग्दर्शन अ. धर्मानुराग सहित सम्यग्दर्शन सराग सम्यकदर्शन है। ब. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा औरआस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति इसका मुख्य लक्षण है। प्रशम - रागादि की तीव्रता का न होना। संवेग - संसार से भयभीत होना। अनुकम्पा - प्राणी मात्र में मैत

व्रात्य और श्रमण संस्कृति

व्रात्य और श्रमण संस्कृति ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त' यतियों का भी उल्लेख बहुतायत से आया है। ये यति भी ब्राह्मण परम्परा के न होकर श्रमण-परम्परा के ही साधु सिद्ध होते हैं, जिनके लिये यह संज्ञा समस्त जैन साहित्य में उपयुक्त होते हुए आजतक भी प्रचलित है।  यद्यपि आदि में ऋषियों, मुनियों और यतियों के बीच ढारमेल पाया जाता है, और वे समानरूप से पूज्य माने जाते थे। किन्तु कुछ ही पश्चात् यतियों के प्रति वैदिक परम्परा में महान् रोष उत्पन्न होने के प्रमाण हमें ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं, जहां इन्द्र द्वारा यतियों को शालावृकों (शृगालों व कुत्तों) द्वारा नुचवाये जाने का उल्लेख मिलता है (तैतरीय संहिता २, ४, ९, २; ६, २, ७, ५, ताण्डय ब्राह्मण १४, २, २८, १८, १, ९) किन्तु इन्द्र के इस कार्य को देवों ने उचित नहीं समझा और उन्होंने इसके लिये इन्द्र का बहिष्कार भी किया (ऐतरेय ब्राह्मण ७, २८)। ताण्डय ब्राह्मण के टीकाकारों ने यतियों का अर्थ किया है `वेदविरुद्धनियमोपेत, कर्मविरोधिजन, ज्योतिष्टोमादि अकृत्वा प्रकारान्तरेण वर्तमान' आदि, इन विशेषणों से उनकी श्रमण-परम्परा स्पष्ट प्रमाणित हो जाती है। भ

जैन चित्रकला

जैन चित्र कला की विशेषता  कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं विकास मानव जीवन के उद्भव व विकास के साथ ही हुआ है। जिसके प्रमाण हमें चित्रकला की प्राचीन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होते हैं। जिनका विकास निरन्तर जारी रहा है। चित्र, अभिव्यक्ति की ऐसी भाषा है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन काल से अब तक चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें से जैन शैली चित्र इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन चित्रित प्रत्यक्ष उदाहरण मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में जोगीमारा गुफा में मिलते है। जिसका समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।१ ग्यारहवीं शताब्दी तक जैन भित्ति चित्र कला का पर्याप्त विकास हुआ जिनके उदाहरण सित्तनवासल एलोरा आदि गुफाओं में मिलते है। इसके बाद जैन चित्रों की परम्परा पोथी चित्रों में प्रारंभ होती है और ताड़पत्रों, कागजों, एवं वस्त्रों पर इस कला शैली का क्रमिक विकास होता चला गया। जिसका समय ११वीं से १५वी शताब्दी के मध्य माना गया। २ जैन धर्म अति प्राचीन एवं अहिंसा प्रधान

सोलहकारण भावना , पर्व एवम् व्रत

सोलह कारण पर्व एवम् व्रत  जिनेन्द्र देव के इस जैनशासन में प्रत्येक भव्य प्राणी को परमात्मा बनने का अधिकार दिया गया है। धर्म के नेता अनंत तीर्थंकरों ने अथवा भगवान महावीर स्वामी ने मोक्षमार्ग के दर्शक ऐसा मोक्षमार्ग के नेता बनने के लिए उपाय बतलाया है। इसी से आप इस जैनधर्म की विशालता व उदारता का परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इस उपाय में सोलहकारण भावनाएं भानी होती हैं और इनके बल पर अपनी प्रवृत्ति सर्वतोमुखी, सर्वकल्याणमयी, सर्व के उपकार को करने वाली बनानी होती है। ‘‘दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनति-चारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधु-समाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका-परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।।२४।।’’ दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह कारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव के लिए हैं अर्थात् इनसे तीर्थंकर प्रकृति क

जैन मूर्तिकला

।। जैन मूर्तिकला ।। जैन मूर्तिकला का वैभव जैन मूर्तिकला के सम्बंध में विद्वानों ने विशेष अध्ययन प्रस्तुत किये हैं। डाॅ. हीरालाल जैन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान’’ में संक्षेप में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि सिंधु घाटी की खुदाई में मोहेनजोदडो व हड़प्प से जो मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, उनसे भारतीय मूर्तिकला का इतिहास ही बदल गया है, और उसकी परम्परा उक्त काल से सहस्त्रों वर्ष पूर्व की प्रमाणिक हो चुकी हैं। सिन्धुघाटी की मुद्राओं पर प्राप्त लेखों की लिपि अभी तक अज्ञात होने के कारण वहां की संस्कृति के सम्बंध में अभी तक निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। तथापि जहां तक मूर्ति-निर्माण, आकृति व भावाभिव्यंजन के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है, उस पर से उक्त लोहानीपुर की मस्तकहीन नग्न मूर्ति व हड़प्प से प्राप्त मस्तकहीन नग्न मूर्ति में बउ़ा साम्य पाया जाता है, और पूर्वोत्तर परम्परा के आधार से हड़प्प की मूर्ति वैदिक व बौद्ध मूर्तिप्रणााली से सर्वथा विसदृश्य व जैन-प्रणाली के पूर्णग्तया अनुकूल सिद्ध होती है। कलिंग नरेश खारवेल के ई.पू. द्वितीय शती के ह