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जैन मूर्तिकला

।। जैन मूर्तिकला ।।


जैन मूर्तिकला का वैभव

जैन मूर्तिकला के सम्बंध में विद्वानों ने विशेष अध्ययन प्रस्तुत किये हैं। डाॅ. हीरालाल जैन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान’’ में संक्षेप में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि सिंधु घाटी की खुदाई में मोहेनजोदडो व हड़प्प से जो मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, उनसे भारतीय मूर्तिकला का इतिहास ही बदल गया है, और उसकी परम्परा उक्त काल से सहस्त्रों वर्ष पूर्व की प्रमाणिक हो चुकी हैं। सिन्धुघाटी की मुद्राओं पर प्राप्त लेखों की लिपि अभी तक अज्ञात होने के कारण वहां की संस्कृति के सम्बंध में अभी तक निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। तथापि जहां तक मूर्ति-निर्माण, आकृति व भावाभिव्यंजन के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है, उस पर से उक्त लोहानीपुर की मस्तकहीन नग्न मूर्ति व हड़प्प से प्राप्त मस्तकहीन नग्न मूर्ति में बउ़ा साम्य पाया जाता है, और पूर्वोत्तर परम्परा के आधार से हड़प्प की मूर्ति वैदिक व बौद्ध मूर्तिप्रणााली से सर्वथा विसदृश्य व जैन-प्रणाली के पूर्णग्तया अनुकूल सिद्ध होती है।

कलिंग नरेश खारवेल के ई.पू. द्वितीय शती के हाथीगुम्फा शिलालेख से प्रमाणित है कि नंदवंश के राज्यकाल अर्थात ई.पू. चैथी-पांचवी शती में जिनमूर्तियां प्रतिष्ठित की जाती थीं ऐसी ही एक जिनमूर्ति को नंदराज कलिंग से अपहरण कर ले गये थे, और उसे खारवेल कोई दो-तीन शती पश्चात वापिस लाये थे। कुषाण काल की तो अनेक जिनमूर्तियां मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से प्राप्त हुई हैं, जो मथुरा के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। एक प्राचीन मस्तकहीन जिन-प्रतिमा पटना संग्रहालय में सूरक्षित है, जो लोहानीपुर से प्राप्त हुई थीं इस मूर्ति पर चमकदार पालिश हाने से उसके मौयकालीन होने का अनुमान किया जाता हैं

कुषाणकालीन जैन मूर्तियां

प्राचीन जैन मूर्तियों के अध्ययन की प्रचुर सामग्री हमें मथुरा के संग्रहालय में एकत्रित 47 मूर्तियों मेें प्राप्त होती हैं। तीर्थंकर की समस्त मूतियां दो प्रकार की पाई जाती है- एक खड़ी हुई,जिसे कायोत्सर्ग या खड्गासन कहते हैं और दूसरी बैठी हुई पद्मासन। समस्त मूर्तियां नग्न व नासाग्रदृष्टि, ध्यानमुद्रा में ही है। नाना तीर्थंकरों में भेद सूचित करने वाले वे बैल आदि चिन्ह इन पर नहीं पाये जाते, जो परवर्ती काल की प्रतिमाओं में हैं।

गुप्तकालीन पाषाणनिर्मित जैन मूर्तियां

यह युग ईसा की चैथी शती से प्रारम्भ होता है। इस युग की 37 प्रतिमाओं का परिचय मथुरा संग्रहालय की सूची में कराया गया है। उस पर से इस युग की निम्न विशेषताएं ज्ञात होती हैं। तीर्थंकर मूतियों के सामान्य लक्षण तो वे ही पाये जाते हैं जो कुषाणकाल में विकसित हो चुके थे, किंतु उनके परिकरों में अब कुछ वैशिष्टय दिखाई देता हैं प्रगतिमाओं का उष्णीय (शिरोभाग) कुछ अधिक सौन्दर्य व घुंघरालेपन को लिये हुए पाया जाता है। प्रभावल में विशेष सजावट दिखाई देती है। इस संबंध में राजगिरि के वैभार पर्वत की नेमिनाथ की वह मूर्ति ध्यान देने योग्य है जिसके सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र को पीठ पर धारण किये हुए एक पुरूष और उसके दोनों पाश्र्वों में शंखों की आकृतियां पाई जाती हैं। अनेक जैन प्रतिमायें ग्वालियर के पास के किले, बेसनगर, बूढ़ी चंदेरी व देवगढ़ आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुई हैं। देवगढ़ की मूर्तियों में गुप्त व गुप्तोत्तरकालीन जैन मूर्तिकला के अध्ययन की प्रचुर सामग्री विद्यमान हैं भामण्डल की सजावट तथा पाश्र्वस्थ द्वारपालों का लावण्य व भावभंगिमा गुप्तकाल की कला के अनुकूल हैं।

इस काल में तीर्थंकरों के जो विशेष चिन्ह निर्धारित हुए हैं, उनकी तालिका निम्न प्रकार है -


मूर्तियां

धातु निर्मित प्रतिमाएं भी अति प्राचीन काल से प्रचार में पाई जाती हैं ब्रोन्ज (ताम्र व शिशा मिश्रित धातु) की बनी हुई एक पाश्र्वनाथ की प्रतिमा बम्बई के प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में हैं। प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है, और उसका दाहिना हाथ व नागफण खंडित है, किंतु नाम के शरीर के मोड़ पृष्ठ-भाग में पैरों से लगाकर ऊपर तक स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसकी आकृति पूर्वोक्त लोहानीपुर की मस्तकहीन मूर्ति से तथा हड़प्पा के लाल-पाषाण की सिर-हीन मूर्ति से बहुत साम्य रखती है। विद्वानों का मत है कि यह मूर्ति मौर्यकालीन होनी चाहिए, और वह ई.पू. 100 वर्ष से इस ओर की तो हो ही नहीं सकती। दूसरी धातु-प्रतिमा आदिनाथ तीर्थंकर की है, जो बिहार में आरा के चैसा नामक स्थान से प्रात हुई हैं, और पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। यह भी खड्गासन मुदा्र में है और रूप-रेखा में उपर्युक्त पाश्र्वनाथ की मूर्ति से साम्य रखती है। लगभग 14वीं शती से पीतल की जिनमूर्तियों का भी प्रचार हुआ पाया जाता है। कहीं-कहीं तो पीतल की बड़ी विशाल भारी ठोस मूर्तियां प्रतिष्ठित है। आबू के पित्तलहर मंदिर में विराजमान आदिनाथ की पीतल की मूर्ति लेखानुसार 108 मन की है, और वह वि. स. 1525 में प्रतिष्ठित की गई थी।

बाहुबलि की मूर्तियां

बादामी की बाहुबली मूर्ति लगकभग सातवीं शती में निर्मित साढ़े सात फुट ऊंची है। दूसरी प्रतिमा ऐलोरा के छोटे कैलाश नामक जैन शिलामंदिर भी इन्द्रसभा की दक्षिणी दीवार पर उत्कीर्ण हैं। इस गुफा का निर्माणकाल लगभग 8वी शती माना जाता है। तीसरी मूर्ति देवगढ़ के शांतिनाथ मंदिर (862 ई.) में है, जिसकी उपर्युक्त मूर्तियों में विशेषता यह है कि इसमें वामी, कुक्कुट सर्प व लताओं के अतिरिक्त मूर्ति पर रेंगते हुए बिच्छु, छिपकली आदि जीव-जन्तु भी अंकित किये गये हैं और इन उपसर्गकारी जीवों का निवारण करते हुए एक देव-युगल भी दिखाया गया है। किंतु इन सबसे विशाल और सुप्रसिद्ध मैसूर राज्य के अंतर्गत श्रवणवेलगोला के विन्ध्यगिरि पर विराजमान वही मूर्ति 56 फुट 6 इंच ऊंची है और उस पर्वत पर दूर से ही दिखाई देती है। उसके अंगों का संतुलन, मुख का शांत और प्रसन्न भाव, वल्मीक व माधवी लता के लपेटन इतनी सुंदरता को लिए हुए है कि जिनकी तुलना अंयत्र कहीं नहीं पाई जाती। इसी मूर्ति के अनुकरण पर कारकल में सन् 1432 ई. में 41 फुट 6 इंच ऊंची तथा वेणूर में 1604 ई. में 35 फुट ऊंची अन्य दो विशाल पाषाण मूर्तियां प्रतिष्ठित हुई। धीरे-2 इस प्रकार की बाहुबलि की मूर्ति का उत्तर भारत में भी प्रचार हुआ है। इधर कुछ दिनों से बाहुबलि की मूर्तियां अनेक जैन मंदिरों में प्रतिष्ठित हुई हैं। उनमें फिरोजाबाद, हस्तिनापुर, आरा, उदयपुर आदि को बाहुबली की मूर्तियां प्रसिद्ध हैं।

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