श्वेताम्बर आगम साहित्य
द्वादशांग
(1) आचारांग
(2) सूत्रकृतांग
(3) स्थानांग
(4) समयांग
(5) भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति (6) ज्ञाताधर्म कथा (णायाधम्महाओ)
(7) उपासकादशा (8) अंतकृदशा (9)अनुत्तरोपपातिक
(10) प्रश्नव्याकरण,
(11) विपाक सूत्र
(12) दृष्टिवाद।
1. आचारांग - इस श्रुतग्रंथ में मुनियों के पालने योग्य सदाचार का विवरण दिया गया है। यह दो श्रुतस्कंधों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध में 9 अध्ययन और उनके अंतर्गत 44 उद्देश्यक हैं। ग्रंथ का यह भाग मूल एवं भाषा, शैली और विषय की दृष्टि से प्राचीनतम है। द्वि. श्रुतस्कंध इसकी चूलिका के रूप में है और वह तीन चूलिकाओं एवं 16 अध्ययनों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध के नवमें उपधान नामक अध्ययन में महावीर की उग्र तपस्या एवं लाढ़ वज्रभूमि, शुभ्रभूमि आदि स्थानो में विहार करते हुए घोर उपसर्गो के सहने का मार्मिक वर्णन है।
2. सूत्रकृतांग - इसके भी दो श्रुतस्कंध हैं जिनमें क्रमश: 16 तथा 7 अध्ययन हैं1 प्रथम श्रुतांग प्राय: मद्यमय है और दूसरे में गद्य पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। इसमें प्राचीन काल के दार्शनिक वादों जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद आदि का प्ररूपण तथा निराकरण किया गया है तथा श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षु, निग्र्रंथ आदि के स्वरूप की व्याख्या की गई है। अंतिम अध्ययन नालदीय में महावीर के शिष्य गौतम तथा पाश्र्वनाथ की परंपरा के उदक पेढ़ालपुत्र के बीच वार्तालाप और चातुर्याम धर्म के संबंध में विचार जैनधर्म की महावीर से पूर्वपरंपरा पर प्रकाश डालता है।
3. स्थानांग - इसमें 10 अध्ययन हैं जिनमें क्रमश: एक से लेकर 10 तक की संख्यावाले पदार्थो का निरूपण किया गया है, जैसे एक दर्शन, एकचारित्र, एक समय, इत्यादि; दो क्रियाएँ जीव और अजीव; वृक्ष तीन प्रकार केहृ पत्रोपेत, फलोपेत और पुष्पोपेत, तीन वेद ऋक्, यजु और साम इत्यादि। इस पद्धति से इस ग्रंथ में अनेक विषयों का बहुमुखी वर्णन आया है जो अपने ढंग का एक विश्वकोश ही है। उसकी यह शैली पालि त्रिपिटक के अंगुततर निकाय से समता रखती है।
4. समवायांग - यह भी स्थानांग के सदृश एकोत्तर क्रम से वस्तुओं का निरूपण करनेवाला विश्वकोश है। विशेषता इसकी यह है कि इसमें संख्याक्रम क्रमश: बढ़ता हुआ शतों, सहस्रों, शतसहस्त्रों तथा कोटियों तक पहुँचाया गया है। यथास्थान इसमें जैन आगम तथा तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि त्रिरसठ शलाकापुरुषों का परिचय नामवली पद्धति से वर्णित है।
5. भगवती व्याख्या प्रज्ञाप्ति - यह रचना आकार और विषय की दृष्टि जैनागम में सबसे अधिक विशाल और महत्वपूर्ण है। इसमें 41 शतक हैं और प्रत्येक शतक अनेक उद्देशक में विभाजित है। शैली प्रश्नोत्तरात्मक है। प्रश्नकर्ता हैं गौतम गणधर और उत्तरदाता स्वयं महावीर। टीकाकारों के अनुसार इसमें 36 सहस्र प्रश्नोत्तरों का समावेश है। दर्शन, आचार, इतिहास, भूगोल आदि समस्त विषयों पर किसी न किसी प्रसंग से प्रकाश डाला गया है। महावीरकाल की राजनीतिक परिस्थिति और उस समय के घोर युद्ध आदि का वर्णन जैसा इस ग्रंथ में आया है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता।
6. न्याय धर्मकथा - इस अंग का प्राकृत नाम न्यायधम्मकहाओ है और उसका संस्कृत रूपांतर ज्ञातृ या ज्ञाताधर्मकथा भी किया जाता है जिसका अर्थ होता है ज्ञातृ अर्थात् ज्ञातृपुत्र महावीर का धर्मोपदेश। विषय को देखते हुए इसका प्रथम नाम ही अधिक सार्थक प्रतीत होता है क्योंकि इसमें कथाओं द्वारा किन्हीं न्यायों अर्थात नीतिवाक्यों का स्पष्टीकरण किया गया है।
7. उपासकदशा - नामानुसार इसमें भी उपासक, कामदेव, चुलणीप्रिय आदि दस ऐसे उपासकों के चरित्र वर्णित हैं जिन्होंने कठिनाइयों के बीच धर्मपालन किया।
8. अंतकृदद्शा - नामानुसार इसमें भी उपासक दशा के समान दस अध्ययन ही रहे होंगे। किंतु वर्तमान में यहाँ आठ वर्ग हैं और प्रत्येक वर्ग अनेक अध्ययनों में विभाजित हैं। इसमें ऐसे साधुओं के चरित्र वर्णित किए गए हैं, जिन्होंने तपस्या द्वारा संसार का अंत कर निर्वाण प्राप्त किया।
9. अनुत्तरोपपातिक दशा - इसमें ऐसे मुनियों के चरित्र वर्णित हैं जिन्हें अपनी तपस्या के बीच घोर उपसर्ग सहन करने पड़े और उन्होंने मरकर उन अनुत्तर नामक स्वर्गो में जन्म लिया जहाँ से केवल एक बार पुन: मनुष्य जन्म धारण कर निर्वाण प्राप्त किया जाता है।
10. प्रश्नव्याकरण - ग्रंथ के नाम से तथा स्थानांग एवं समवायांग से प्राप्त इस श्रुतांग के विषयपरिचय से ज्ञात होता है कि इसमें मूलत: प्रश्नोत्तर के रूप में नाना सिद्धांतों की व्याख्या की गई थी। किंतु वर्तमान में ऐसा न होकर इसके प्रथम खंड में हिंसादि पाँच पापों का और दूसरे खंड में अहिंसादि व्रतों का प्ररूपण पाया जाता है।
11. विपाकसूत्र - इसमें दो श्रुतस्कंध हैं और प्रत्येक में दस दस-अध्ययन हैं। इसमें जीव के अच्छे और बुरे कर्मो से फलित होनेवाले सुख दु:खों का बड़ा वैचित्र्य है जिसमें जीवन की सभी दशाओं का वर्णन आ गया है। जैनधर्म के कर्मसिद्धांतनुसार जीवन के समस्त अनुभव सुकर्म एवं दुष्कर्मो के परिणाम ही हैं। इसका इस श्रुतांग में विस्तार से प्ररूपण पाया जाता है।
श्वेताम्बर बारहवें आगम दृष्टिवाद को नहीं मानते ।
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