*सम्यग्दर्शन पर निबंध की रूप रेखा*
जिस प्रकार नींव के बिना मकान का महत्व नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना मोक्षमार्गी का कोई महत्व नहीं है।
*सम्यकदर्शन की परिभाषा*
तत्त्वार्थ के प्रति सच्ची श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है ।
सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का तीन मूढ़ता रहित, आठ मद से रहित और आठ अंग सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
*चार अनुयोगों की अपेक्षा सम्यकदर्शन की परिभाषा*
*प्रथमानुयोग* - सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धान करना।
*करणानुयोग* - सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होने वाले श्रद्धा रूप परिणाम।
*चरणानुयोग* - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य का भाव होना।
*द्रव्यानुयोग* - तत्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
*सम्यग्दर्शन के कितने भेद*
सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं -
1. सराग सम्यग्दर्शन
2. वीतराग सम्यग्दर्शन।
1. सराग सम्यग्दर्शन
अ. धर्मानुराग सहित सम्यग्दर्शन सराग सम्यकदर्शन है।
ब. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा औरआस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति इसका मुख्य लक्षण है।
प्रशम - रागादि की तीव्रता का न होना।
संवेग - संसार से भयभीत होना।
अनुकम्पा - प्राणी मात्र में मैत्रीभाव रखना।
आस्तिक्य - ‘जीवादि पदार्थ हैं” ऐसी बुद्धि का होना।
2. वीतराग सम्यग्दर्शन -
राग रहित सम्यग्दर्शन वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाता है, यह वीतराग चारित्र का अविनाभावी है।
यहाँ श्रद्धान और चारित्र में एकता होती है।
उदाहरण-रामचन्द्रजी सम्यकद्रष्टि थे। एक तरफ जब सीताजी का हरण हुआ तो वह सीताजी को खोजते हैं, वृक्ष, नदी आदि से भी पूछते हैं कि मेरी सीता कहाँ है ? दूसरी तरफ जब रामचन्द्रजी मुनि अवस्था में शुद्धोपयोग में लीन हो जाते हैं और सीता जी का जीव विचार करता है कि इनके साथ हमारा अनेक भवों का साथ रहा है, यदि ये ऐसे ध्यान में लीन रहे तो मुझसे पहले मोक्ष चले जाएंगे। अत: सम्यकद्रष्टि सीताजी का जीव मुनि रामचन्द्रजी के ऊपर उपसर्ग करता है पर रामचन्द्रजी ध्यान से च्युत नहीं हुए। तो विचार कीजिए कि पहले भी रामचन्द्रजी सम्यकद्रष्टि थे और मुनि अवस्था में भी सम्यकद्रष्टि थे, फिर अन्तर क्या रहा तो पहले उनके सम्यक्त्व के साथ राग था आस्था और आचरण में भेद था, इसलिए सीताजी को खोज रहे थे। अत: सराग सम्यकदर्शन था।
जब मुनि थे तो आस्था और आचरण में एकता आ गई थी, वीतराग सम्यकद्रष्टि बन गए। इससे सीताजी के जीव द्वारा किए गए उपसर्ग को भी सहन करते रहे और केवलज्ञान को प्राप्त किया।
*व्यवहार सम्यकदर्शन और निश्चय सम्यकदर्शन*
शुद्ध जीव आदि तत्वार्थों का श्रद्धान रूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार सम्यक्त्व जानना चाहिए और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिए।
*सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की अपेक्षा भेद*
सम्यग्दर्शन की उत्पति की अपेक्षा दो भेद हैं -
*निसर्गज सम्यग्दर्शन*
- जो पर के उपदेश के बिना जिनबिम्ब दर्शन, वेदना,
*अधिगमज सम्यग्दर्शन* -
जो गुरु आदि पर के उपदेश से उत्पन्न होता है, वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है।
*सम्यग्दर्शन के शंकादि आठ दोष और आठ अंग*
*शंका* - जिनेन्द्र देव द्वारा कथित तत्वों में विश्वास नहीं करना।
*कांक्षा* - धर्म के सेवन से, सांसारिक भोगों की वांछा करना।
*विचिकित्सा* - रत्नत्रयधारी मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि करना।
*मूढ़दृष्टि* -
मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्गियों की मन से सहमति करना, वचन से प्रशंसा करना एवं काय से सेवा करना।
*अनुपगूहन* - धर्मात्माओं के दोषों को प्रकट करना।
*अस्थितिकरण* - धर्म से चलायमान लोगों को पुन: धर्म में स्थित नहीं करना।
*अवात्सल्य* - साधमीं भाइयों से प्रेम न कर उनकी निंदा करना।
*अप्रभावना* - अपने खोटे आचरण से जिनशासन की अप्रभावना करना।
ये शंकादिसम्यकदर्शन के 8 दोष हैं, इसके विपरीत नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये सम्यकदर्शन के 8 अंग होते हैं।
*सम्यग्दर्शन के आठ गुण*
सम्यग्दर्शन के आठ गुण इस प्रकार हैं
*संवेग* - संसार के दुखों से नित्य डरते रहना अथवा धर्म के प्रति अनुराग रखना ।
*निवेग* - भोगों में अनासति।
*निंदा* - अपने दोषों की निंदा करना।
*गरहा* - गुरु के समीप अपने दोषों को प्रकट करना।
*उपशम* - क्रोधादि विकारों को शांत करना।
*भत्ति* - पञ्च परमेष्ठी में अनुराग।
*वात्सल्य* - साधर्मियों के प्रति प्रीति भाव रखना।
*अनुकम्पा* - सभी प्राणियों पर दया भाव रखना।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन मोक्ष मार्ग में प्रथम सीढ़ी है जिसके बिना मोक्ष की साधना का क्रम आगे नहीं बढ़ता है ।
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