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सोलहकारण भावना , पर्व एवम् व्रत

सोलह कारण पर्व एवम् व्रत 

जिनेन्द्र देव के इस जैनशासन में प्रत्येक भव्य प्राणी को परमात्मा बनने का अधिकार दिया गया है। धर्म के नेता अनंत तीर्थंकरों ने अथवा भगवान महावीर स्वामी ने मोक्षमार्ग के दर्शक ऐसा मोक्षमार्ग के नेता बनने के लिए उपाय बतलाया है। इसी से आप इस जैनधर्म की विशालता व उदारता का परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इस उपाय में सोलहकारण भावनाएं भानी होती हैं और इनके बल पर अपनी प्रवृत्ति सर्वतोमुखी, सर्वकल्याणमयी, सर्व के उपकार को करने वाली बनानी होती है।

‘‘दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनति-चारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधु-समाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका-परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।।२४।।’’
दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह कारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव के लिए हैं अर्थात् इनसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है।

इन सोलह भावनाओं में से दर्शनविशुद्धि का होना अत्यन्त आवश्यक है। अन्य सभी भावनाएं हों अथवा कुछ कम भी हों फिर भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है अथवा किन्हीं एक, दो आदि भावनाओं के साथ सभी भावनाएं अविनाभावी हैं तथा अपायविचय धर्मध्यान भी विशेषरूप से तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारण माना गया है। वैसे यह ध्यान तपो भावना में ही अंतर्भूत हो जाता है।

यह अनादिनिधन षोडशकारण पर्व वर्ष में तीन बार आता है। भादों वदी एकम् से आश्विन वदी एकम् तक, माघ वदी एकम् से फाल्गुन वदी एकम् तक एवं चैत्र वदी एकम् से वैशाख वदी एकम् तक। इस पर्व में षोडशकारण भावनाओं को भा करके परम्परा से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया जा सकता है।

इन सोलहकारण भावनाओं के नाम इस प्रकार हैं-

१. दर्शनविशुद्धि

२. विनयसम्पन्नता

३. शीलव्रतेष्वनतिचार

४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग

५. संवेग

६. शक्तितस्त्याग

७. शक्तितस्तप

८. साधु समाधि

९. वैय्यावृत्यकरण

१०. अर्हद्भक्ति

११. आचार्यभक्ति

१२. बहुश्रुतभक्ति

१३. प्रवचनभक्ति

१४. आवश्यक अपरिहाणि

१५. मार्गप्रभावना

१६. प्रवचनवत्सलत्व।

इन सोलहकारणों के होने पर जीव तीर्थंकर नामकर्म को बाँधते हैं अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक-दो आदि कारणों के संयोग से भी तीर्थंकर नामकर्म बंध सकता है।

चातुर्मास के भाद्रपद मास में विशेषरूप से मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविका सभी षोडशकारण व्रत को यथाशक्ति करते हैं। श्रावक लोग इस पर्व में हर्ष विभोर होकर पूजा-उपासना करते हैं तथा विद्वत्जन इन सोलहकारण भावनाओं को अपने प्रवचन द्वारा लोगों को सुनाकर शांति और सुख का मार्ग दिखाते हैं।

सोलह कारण व्रत विधि-
भादों वदी एकम् से आश्विन वदी एकम् तक, माघ वदी एकम् से फाल्गुन वदी एकम् तक और चैत्र वदी एकम् से वैशाख वदी एकम् तक ऐसे वर्ष में तीन बार एक महीने तक यह व्रत किया जाता है। उत्कृष्ट विधि तो एक महीने के उपवास की है, मध्यम विधि में एक उपवास, एक पारणा के प्रकार से अथवा बेला, तेला आदि करते हुए बहुत से भेद हो जाते हैं। जघन्य विधि में शुद्ध एकाशन करना चाहिए। ‘व्रत तिथि निर्णय’ पुस्तक में तीनों प्रतिपदा को उपवास करना ऐसा कहा हुआ है। इस व्रत में प्रतिदिन अभिषेक, पूजन और सोलह कारण भावना की जाप्य करना चाहिए। प्रतिदिन सोलह भावनाओं का चिंतवन करना चाहिए। यह व्रत उत्कृष्ट १६ वर्ष, मध्यम ५ या २ वर्ष और जघन्य १ वर्ष करना चाहिए पुन: यथाशक्ति उद्यापन करना चाहिए।

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