प्राकृत की दस गाथाएं
प्रस्तुति - डॉ. अनेकांत कुमार जैन
१
उप्पज्जंति तहिं चिय, वियसंति तहिं, तहिं विलिज्जंति।
पुण्णसरे कमलाइं व मणो़रहा रोरहियम्मि ।।
अर्थ-
सम्पूर्ण सरोवर में कमल की भांतिनिर्धन के मन में स्थित इच्छाएं वहीं उत्पन्न होती हैं, वहीं विकसित होती हैं और वहीँ विलीन हो जाती हैं।
(रोर देशी शब्द - निर्धन)
२
गुणगरुयाण वि धणवज्जियाण न हवंति चिंतिया अत्था।
लक्खेण वि दीवाणं न दिणं दिणनाहविरहम्मि ।।
अर्थ= धन से रहित अति गुणवानों की भी अर्थ चिंता दूर नहीं होती। जैसे, लाखों दीया सूर्य के अभाव में दिन की तरह उजाला नहीं कर सकते हैं।
गाहारयणकोस, जिणेसरसूरि, गा.123
३
इंदियसोक्खणिमित्तं
सद्धाणादीणि कुणइ सो मिच्छा।
तं पिय मोक्खणिमित्तं
कुव्वंतो भणइ सद्दिट्ठी।।
अर्थ- इन्द्रिय सुख की प्राप्ति के लिये श्रद्धान आदि जो करता है, वह मिथ्यादृष्टि (गलत मान्यता वाला) है; वही श्रद्धान आदि मोक्ष के निमित्त करता हुआ सम्यग्दृष्टि (सही मान्यता वाला) होता है।
- द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र 333
- माइल्लधवल कृत
४
विणएण विप्पहीणस्स
हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा।
विणओ सिक्खाए फलं
विणयफलं सव्वकल्लाणं।।
अर्थ- विनय से हीन मनुष्य की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का फल सर्व (सभी प्रकार का/ सभी का) कल्याण है।
- मूलाचार 385
- आचार्य वट्टकेर स्वामी कृत
५
धम्मो चिय तुह जणओ
जणणी तुह जीव ! सव्वजीवदया।।
तुह बंधवो विवेगो
परमं मितं च सम्मतं।।
अर्थ- हे जीव ! धर्म ही तुम्हारा जनक (पिता) है, सभी जीवों के प्रति दया ही तुम्हारी जननी (माता) है, विवेक ही तुम्हारा बांधव (भाई) है और सम्यक्त्व (यथार्थ दृष्टिकोण) ही तुम्हारा मित्र है।
- आसड कवि कृत विवेकमंजरी 130
६
णाणस्स णत्थि दोसो
कापुरिसाणं वि मंदबुद्धीणं।
जे णाणगव्विदा
होऊणं विसएसु रज्जन्ति।।
अर्थ- जो व्यक्ति ज्ञान से गर्वित हो कर विषयों में आसक्त होते हैं, इसमें ज्ञान का दोष नहीं है, वह दोष उन दुष्ट पुरुषों की अकर्मण्य बुद्धि का ही है।
- आचार्य कुन्दकुन्द कृत शीलपाहुड 10
७
संपत्तजोव्वणो जो
न विणीओ होइ जणणि-जणयाण।
किं तेण जणणिजोव्वण-
विउडणमेत्तेण पुत्तेण।।
अर्थ- यौवन को प्राप्त कर जो अपने माता-पिता के प्रति विनय भाव नहीं रखता है; माता के यौवन को मात्र नष्ट करने वाले ऐसे पुत्र से क्या लाभ ? अर्थात् ऐसा पुत्र का होना व्यर्थ है।
- जुगाइजिणिंदचरियं 3357
- वर्धमानसूरि कृत
८
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा सुद्धसंपयोगजुदो| पावदि निव्वाणसुहं
सुहोवंजुत्तो य सग्गसुहं||
प्रवचनसार गाथा १२
धर्मपरिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोगी होता है, तो निर्वाण सुख प्राप्त करता है|
यदि शुभोपयोगी होता है तो स्वर्गसुख प्राप्त करता है|
९
जा कण्णा बहुपुण्णा
दिण्णा कुकुलेवि सा हवइ सुहिया।
जा होइ हीणपुण्णा
सुकुले दिन्नावि सा दुहिया।।
अर्थ- जो कन्या अत्यधिक पुण्यशाली होती है वह दरिद्र कुल में देने पर भी सुखी होती है और जो कन्या पुण्यहीन होती है वह अच्छे कुल में देने पर भी दुःखी होती है।
- सिरिवालचरियं 94
- रत्नशेखरसूरि कृत
१०
मरणसमं णत्थि भयं
खुहासमा वेयणा णत्थि।
वंछसमं णत्थि जरो
दारिद्दसमो वइरिओ णत्थि।।
अर्थ- मरण के सामान भय नहीं है, भूख के समान वेदना नहीं है, वांछा के सामान बुढ़ापा नहीं है और दरिद्रता के सामान शत्रु नहीं है।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका गाथा 364
- आचार्य शुभचन्द्र द्वारा उद्धृत
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