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सम्यक् चारित्र का स्वरूप

सम्यक चारित्र का स्वरूप

सम्यक चारित्र :-

अपने
स्वरूप में रहना ही चारित्र है ।

पाप कर्मों से हट कर शुभ कार्यों में लगना सम्यक चारित्र है।

 मन वचन काय से शुभ कार्य मे प्रवृति करना जिससे हित की पुष्टि हो और अहित का विनाश हो , वह सम्यक चारित्र है।

इसमें सत्य ,अहिंसा,संयम,तप,त्याग आदि भावनाओं के अनुसार आचरण किया जाता है तथा पांच पापों और राग द्वेष,काम,क्रोध,मोह,लोभ आदि कषायों का परित्याग किया जाता है।

 मोक्ष मार्ग में चारित्र की प्रधानता है, क्योंकि जीव को सम्यक दर्शन और ज्ञान होता भी है और यदि चारित्र-पुरुषार्थ के बल से राग आदि विकल्प रूप असंयम से वह निवृत नहीं होता है तो उसका वह श्रध्दान और ज्ञान कोई हित नहीं कर सकता है।

सम्यक चारित्र के १३ अंग हैं - 

५ महाव्रत,
५ समिति और 
३ गुप्ति ।

५ महाव्रत - 

जिन नियमों का पालन जीवन भर किया जाता है वे महाव्रत कहे जाते हैं 

इसमें ५ प्रकार के पापों का जीवन भर मन,वचन,काय और कृत,कारित अनुमोदना से त्याग करना आता है।


१.अहिंसा :- किसी जीव को नहीं मारना ।

२.सत्य :-

 झूंठे वचन नहीं बोलना। ऍसै सत्य वचन भी नहीं बोलना जिससे प्राणीयों का जीवन संकट में आ जावें ।

३.अचौर्य :- दूसरे की वस्तु को बिना उसकी अनुमति के नहीं लेना।

४.ब्रह्मचर्य :- काम सेवन अर्थात स्त्री मात्र का त्याग करना।

५.

 अपरिग्रह :-अंतरंग में ममत्व भाव और बाह्य में धन-धान्य, परिवार जन,मकान-जमीन आदि समस्त परिग्रह का त्याग करना अपरिग्रह है।

पांच समिति -

 प्राणियों को पीड़ा न पहुंचाने की दृष्टि से और दया भाव से सावधानी पूर्वक आहार, विहार और निहार आदि क्रिया करना समिति है।ये पांच प्रकार की होति हैं।

१.ईर्यासमिति :-

 जीवों को पीड़ा न पहुचाने की दृष्टि से में मार्ग में चार हाथ आगे देख कर चलना ईर्यासमिति है।

२.भाषा समिति :-

 हित,मित,प्रिय वचन बोलना,कटु वचन, पर निन्दा ,चुगली,हंसी, आत्म प्रशंसा आदि का त्याग करना।

३.एषणा समिति :-

जीवन पर्यन्त सुकुल श्रावक के द्वारा दिया गया निर्दोष आहार समता पूर्वक ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना।

४.आदान- निक्षेपण समिति ः-

ज्ञान व संयम में सहायक पीछी,कमण्डल और शास्त्र आदि उपकरणों को देख भाल कर उठाना - रखना।

५. प्रतिष्ठापन समिति :-

 जहां जीवों की विराधना न हो ऍसे जीव-जन्तु रहित न पर
सावधानी पूर्वक मल-मूत्र का विसर्जन करना।

तीन गुप्ति ः-

 संसार के कारण भूत राग आदि से जो रक्षा करे वह गुप्ति कहलाती है।ये तीन होती हैंः-

१.मनो गुप्ति :- 

मन को वश में करना और राग द्वेश, मोह आदि भावों का परिहार करना अर्थात मन में बुरे संकल्प,विकल्प नहीं आने देना मनोगुप्ति है।

२.वचन गुप्ति :- वाणी को वश में करना अर्थात हित, मित,प्रिय,और आगम के अनुसार वचन बोलना।

३. काय गुप्ति :- अपने शरीर को वश में करना अर्थात शरीर द्वारा होने वाली पाप क्रियाओं का त्याग करना।

चारित्र मोक्षमार्ग का एक प्रधान अंग है। अभिप्राय के सम्‍यक् व मिथ्‍या होने से वह सम्‍यक् व मिथ्‍या हो जाता है। निश्‍चय, व्‍यवहार, सराग, वीतराग, स्‍व, पर आदि भेदों से वह अनेक प्रकार से निर्दिष्‍ट किया जाता है, परन्‍तु वास्‍तव में वे सब भेद प्रभेदo किसी न किसी एक वीतरागता रूप निश्‍चय चारित्र के पेट में समा जाते हैं। ज्ञाता दृष्‍टा मात्र साक्षीभाव या साम्‍यता का नाम वीतरागता है। प्रत्‍येक चारित्र में उसका अंश अवश्‍य होता है। उसका सर्वथा लोप होने पर केवल बाह्य वस्‍तुओं का त्याग आदि चारित्र संज्ञा को प्राप्त नहीं होता। परन्‍तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि बाह्य व्रतत्‍याग आदि बिलकुल निरर्थक है, वह उस वीतरागता के अविनाभावी है तथा पूर्व भूमिका वालों को उसके साधक भी।

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