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Showing posts from 2020

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन...

द्रष्टाष्टक स्तोत्र

*द्रष्टाष्टक स्तोत्र* द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि भव्यात्मनां विभव-संभव-भूरिहेतु| दुग्धाब्धि-फेन-धवलोज्जल-कूटकोटी- नद्ध-ध्वज-प्रकर-राजि-विराजमानम्|1|   द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भुवनैकलक्ष्मी- धामर्द्धिवर्द्धित-महामुनि-सेव्यमानम्| विद्याधरामर-वधूजन-मुक्तदिव्य- पुष्पाज्जलि-प्रकर-शोभित-भूमिभागम्|2|   द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवास- विख्यात-नाक-गणिका-गण-गीयमानम्| नानामणि-प्रचय-भासुर-रश्मिजाल- व्यालीढ-निर्मल-विशाल-गवाक्षजालम्|3|   द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं सुर-सिद्ध-यज्ञ- गन्धर्व-किन्नर-करार्पित-वेणु-वीणा| संगीत-मिश्रित-नमस्कृत-धारनादै- रापूरिताम्बर-तलोरु-दिगन्तरालम्|4|   द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं विलसद्विलोल- मालाकुलालि-ललितालक-विभ्रमाणम्| माधुर्यवाद्य-लय-नृत्य-विलासिनीनां लीला-चलद्वलय-नूपुर-नाद-रम्यम्|5|   द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं मणि-रत्न-हेम- सारोज्ज्वलैः कलश-चामर-दर्पणाद्यैः| सन्मंगलैः सततमष्टशत-प्रभेदै- र्विभ्राजितं विमल-मौक्तिक-दामशोभम्|6|   द्दष्टं जिनेन्द्रभवनं वरदेवदारु- कर्पूर-चन्दन-तरुष्क-सुगन्धिधूपैः| मेघायमानगगने पवनाभिवात- चञ्चच्चलद्विमल-केतन-तुंग-शालम्|7|...

हमारी क्रियाएं और अध्यात्म

हमारी क्रियाएं और अध्यात्म  डॉ अनेकांत कुमार जैन २/०७/२०२० मुंडन वाले प्रसंग में मैंने जानबूझ कर मिथ्यात्व वाली टिप्पणी की थी ,उसका यह सुखद परिणाम रहा कि इतनी अच्छी चर्चा सामने आयी ,जैसा मैं चाहता था । जैन परम्परा में कई क्रियाएं मौलिक हैं किन्तु बाद में अन्य परम्परा ने उसे अपने नाम से अपना लिया ,बहुमत के फल स्वरूप वे उनके नाम से प्रसिद्ध हो गईं ।उन्होंने उस क्रिया में अपने मिथ्या परिणाम और अभिप्राय संयोजित कर दिए इसलिए जैनों ने उस रूप क्रिया को ही इस भय से छोड़ दिया कि कहीं ये हमारे सम्यक्तव में ही दोष उत्पन्न न कर दे । कालांतर में ये उन्हीं की क्रियाएं बन गईं ।  जैसे मूर्ति पूजा वैदिकों की मूल नहीं हैं , श्रमण परम्परा की है ,हमसे उनमें गई है ,लेकिन आज हमसे ज्यादा उनकी ही हो गई है ।  स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में यह स्पष्ट लिखा है कि ' मूर्ति पूजा जैसी विकृति जैनों से सनातन धर्म में अाई है । अब जब वहां मूर्ति पूजा थी ही नहीं ,तब सिंधु सभ्यता में योगी मुद्रा में बैठी मूर्ति जो कि कुछ विद्वानों ने ऋषभदेव की बतलाई है , वे शिव की बतला कर योग विद्या ...

जैनदर्शन नास्तिक नहीं, आस्तिक दर्शन है

*जैनदर्शन नास्तिक नहीं, आस्तिक दर्शन है* डॉ. शुद्धात्मप्रकाश जैन  निदेशक, क. जे. सोमैया जैन अध्ययन केन्द्र, सोमैया विद्याविहार विश्वविद्यालय, मुम्बई                   समस्त भारतीय दर्शनों को दो विभागों में विभाजित किया गया है- आस्तिक और नास्तिक। इस विभाजन का आधार पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा आदि के आधार पर न होकर मात्र यह परिभाषा है- ‘‘वेदनिन्दको नास्तिकः’’ अर्थात् जो वेदों को अस्वीकार करे, वह नास्तिक है, इस आधार पर जैन, बौद्ध और चार्वाक- ये तीन दर्शन नास्तिक कहे जाते हैं।                 इस सन्दर्भ में दो बातें विचारणीय हैं, जिनमें से प्रथम यह है कि- जिन वेदों और पुराणों में ऋषभदेव, अरिष्टनेमि और पाश्र्वनाथ आदि जैन तीर्थंकरों का नामस्मरण किया गया है, उन वेदों की जैनदर्शन निन्दा कैसे कर सकता है? वहां कई स्थानों पर ऋषभदेव,  उनके पुत्र भरत, अरिष्टनेमि आदि का बहुत आदर से उल्लेख किया गया है। दूसरी बात यह है कि- वेदों पर जैन अहिंसा का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। जहां जैन तीर्थं...

भारतवर्ष नामकरण - परम्परा एवं प्रमाण

भारतवर्ष नामकरण - परम्परा एवं प्रमाण (एक प्रामाणिक आलेख) डॉ शुद्धात्मप्रकाश जैन निदेशक, के जे सोमैया जैन अध्ययन केंद्र, सोमैया विद्याविहार विश्वविद्यालय, मुम्बई भारत हमारा देश है और हम सब भारतवासी हैं. इस भारत के निवासियों को भारतीय कहा जाता है. यद्यपि हमारी भारतभूमि को प्राचीन काल से ही विविध नामों से अभिहित किया जाता रहा है, यथा-इंडिया, हिंदुस्तान हिन्दुस्तां आदि. लेकिन यह नाम हमारे देश को या तो दूसरों के द्वारा दिए गए हैं या एकांगी है, जैसे कि इस देश में प्रवाहित सिंधु नदी को इण्डस कहने के कारण इंडिया नाम दिया गया. इसी प्रकार पुराकाल में - 'स' वर्ण को 'ह'  के रूप में उच्चारित करने के कारण इसे हिन्दु कहा गया और मुस्लिम शासकों ने इसे हिन्दुस्तां कहकर पुकारा.  यह सभी नाम सर्वांगीण ना होने के कारण हमारे देश के गौरव को कम करते रहे. यही कारण है कि हमारे देश का नाम भारत ही अधिक श्रेष्ठ और गौरवपूर्ण होगा, क्योंकि इसका हमारे प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास से सीधा संबंध है. इसका सविस्तार उत्तर इस आलेख में स्पष्ट किया ही जा रहा है. आज हमारे देश को पूरे विश्व में इंडिया के नाम से जान...

द्रव्यसंग्रह’ का प्राचीन पद्यानुवाद

*‘द्रव्यसंग्रह’ का प्राचीन पद्यानुवाद*                                                                                                                              -प्रो. वीरसागर जैन             आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की अनुपम  कृति  ‘द्रव्यसंग्रह’  के आज तो अनेक हिंदी-पद्यानुवाद  हो चुके हैं, किन्तु हममें से अधिकांश लोग यह नहीं जानते हैं कि इसका प्रथम हिंदी-पद्यानुवाद आज से लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १७३१ में  भैया भगवतीदासजी  ने किया था | भैया भगवतीदासजी अपने समय में  ‘द्रव्यसंग्रह’ को पढ़ाने में विशेष कुशल माने जाते थे और इसीलिए  ‘द्रव्यसंग्रह’ के प्रचार-प्रसार में उनका बड़ा भ...

क्या हनुमान आदि वानर बन्दर थे?

क्या हनुमान आदि वानर बन्दर थे? डॉ विवेक आर्य  हनुमान जयंती की हार्दिक शुभकामनायें  इन प्रश्नों का उत्तर वाल्मीकि रामायण से ही प्राप्त करते है।  1.  प्रथम “वानर” शब्द पर विचार करते है। सामान्य रूप से हम “वानर” शब्द से यह अभिप्रेत कर लेते है कि वानर का अर्थ होता है "बन्दर"  परन्तु अगर इस शब्द का विश्लेषण करे तो वानर शब्द का अर्थ होता है वन में उत्पन्न होने वाले अन्न को ग्रहण करने वाला। जैसे पर्वत अर्थात गिरि में रहने वाले और वहाँ का अन्न ग्रहण करने वाले को गिरिजन कहते है।  उसी प्रकार वन में रहने वाले को वानर कहते है। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति , प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता। 2. सुग्रीव, बालि आदि का जो चित्र हम देखते है उसमें उनकी पूंछ लगी हुई दिखाई देती हैं।  परन्तु उनकी स्त्रियों के कोई पूंछ नहीं होती? नर-मादा का ऐसा भेद संसार में किसी भी वर्ग में देखने को नहीं मिलता। इसलिए यह स्पष्ट होता हैं की हनुमान आदि के पूंछ होना केवल एक चित्रकार की कल्पना मात्र है। 3. किष्किन्धा कांड (3/28-32) में जब श्री रामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्...

॥ भक्तामरस्तोत्र ॥

॥ भक्तामरस्तोत्र ॥ ॥ भक्तामरस्तोत्र ॥ भक्तामर-प्रणत-मौलिमणि-प्रभाणा - मुद्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा- वालंबनं भवजले पततां जनानाम्॥ १॥ यः संस्तुतः सकल-वाङ्मय- तत्व-बोधा- द्-उद्भूत- बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः। स्तोत्रैर्जगत्त्रितय चित्त-हरैरुदरैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ २॥ बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित पादपीठ स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब - मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥ ३॥ वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशाङ्क्कान्तान् कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त - काल् - पवनोद्धत - नक्रचक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ ४॥ सोऽहं तथापि तव भक्ति वशान्मुनीश कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥ ५॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम् त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चारुचूत - कलिकानिकरैकहेतु ॥ ६॥ त्वत्संस्तवेन भवसंतति - सन्निबद्धं पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम्। आक्र...

खल कौन ?

खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति। आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति।। प्रश्न-  खल कौन है? उत्तर- जो व्यक्ति दूसरों के अतिलघु (सरसों के दाने के समान)दोषों को तो देखता है,परन्तु अपने (बिल्वफल के समान) अतिस्थूल दोषों को देखते हुए भी नहीं देखता। विमर्ष- दूरवीन सदृश तीक्ष्ण कुटिल बुद्धि से परदोष देखना , उनका मनोयोग पूर्वक मनन करना ,तथा मिश्रण करके उसका यत्र तत्र बखान करना ।इतना परिश्रम करने पर भी प्राप्त क्या हुआ। स्वपुण्य की हानि तथा पर पापों की संप्राप्ति। पर निंदा सम अघ न ..। शिक्षा- कौन क्या करता है उससे मुझे क्या? मैं अपनी आंखों से किसी के भी दुर्गुण नहीं देखुंगा। अपने कानों से परदोष नहीं सुनुंगा। अपनी जिह्वा से परदोषों का वर्णन नहीं करुंगा।

अहिंसा

🌹 *अहिंसा परमोधर्म:*                               ✍️ डॉ रंजना जैन दिल्ली         *'अत्ता चेव अहिंसा' का मूलमंत्र भारतीय संस्कृति का प्राणतत्त्व रहा है। इस सूत्र के अनुसार प्राणीमात्र का स्वभाव अहिंसक है। भले ही सिंह आदि प्राणी संस्कारवश/परिस्थितिवश भोजनादि के लिए हिंसा करते भी हैं, परन्तु वे भी पूर्णतः हिंसक नहीं है। अपने बच्चों पर ममता, दया एवं रक्षा की भावना उनमें अहिंसा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है।*          *अहिंसा वीरों का आभूषण है। क्रोध, बैर, झूठ, चोरी, दुराचार, अनावश्यक-संग्रह, छल-प्रपंच आदि की दुष्प्रवृत्तियाँ अहिंसक-मानस में कभी नहीं पनपती हैं।* इसीलिए 'महर्षि पतंजलि' ने लिखा है कि --      *"अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।"*                          --(योगसूत्र, 2/35)          अर्थात् *जब जीवन में अहिंसा की भावना प्रतिष्ठित हो जाती है, तो व...

भगवान् महावीर की दृष्टि में लॉक डाउन

*भगवान् महावीर की दृष्टि में लॉक डाउन* *प्रो अनेकांत कुमार जैन*,नई दिल्ली भगवान महावीर की वाणी के रूप में प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में रचित हजारों वर्ष प्राचीन  शास्त्रों में गृहस्थ व्यक्ति को बारह व्रतों की शिक्षा दी गई है जिसमें चार शिक्षा व्रत ग्रहण की बात कही है ,जिसमें एक व्रत है  *देश व्रत* । गृहस्थ के जीवन जीने के नियमों को बताने वाले सबसे बड़े संविधान वाला पहला संस्कृत का  ग्रंथ *रत्नकरंड श्रावकाचार* में इसका प्रमाणिक उल्लेख है जिसकी रचना ईसा की द्वितीय शताब्दी में जैन आचार्य समंतभद्र ने की थी ।अन्य ग्रंथों में भी इसका भरपूर वर्णन प्राप्त है ।  कोरोना वायरस के कारण वर्तमान में जो जनता कर्फ्यू और लॉक डाउन आवश्यक प्रतीत हो रहा है उसकी तुलना हजारों वर्ष प्राचीन भारतीय संस्कृत के शास्त्रों में प्रतिपादित देश व्रत से की जा सकती है । *देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य ।* *प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य* ॥ ९२ ॥ *गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च ।* *देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः* ॥ ९३ ॥ *संवत्सरमृमयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च ।* *देश...

भारत लॉक डाउन पर जैन समाज का अनुकरणीय सहयोग

*भारत लॉक डाउन पर जैन समाज का अनुकरणीय सहयोग* *प्रो. अनेकांत कुमार जैन*, अध्यक्ष -  जैन दर्शन विभाग ,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय , नई दिल्ली -१६ इतिहास गवाह है कि जैन धर्म तथा समाज राष्ट्र में मुसीबत के समय हमेशा कदम से कदम मिलाकर साथ देता है ।  राष्ट्र व्यापी लॉक डाउन के समर्थन में अपने जैन मंदिरों पर ताले लगा देना ,जैन समाज की समकालीनता और आध्यात्मिकता का सूचक है । जैन परम्परा में प्रतिदिन देव दर्शन तथा जिनालय में जिनबिम्ब का अभिषेक तथा पूजन एक अनिवार्य शर्त है जिसका कड़ाई से पालन होता है किन्तु करोना वायरस के प्रकोप के चलते राष्ट्रीय लॉक डाउन की घोषणा के तहत  ये नियमित अनिवार्य अनुष्ठान भी टाल कर जैन समाज ने यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्र हित से बढ़कर कुछ भी नहीं है । जब ऐसे समय में कई संप्रदाय अंध श्रद्धा के वशीभूत होकर अपनी कट्टर सोच और क्रिया में जरा सा भी परिवर्तन नहीं करते हैं वहीं जैन धर्म हमेशा से समकालीन युग चेतना को बहुत ही विवेक से संचालित करता है । यह प्रेरणा उन्हें तीर्थंकरों की अनेकांतवादी शिक्षा से प्राप्त होती है ।  दरअस...

न्याय

प्रचलित न्यायों का परिचय अकारादि क्रम से नीचे दिया गया है- (१) अजाकृपाणीय न्याय—कहीं तलवार लटकती थी, नीचे से बकरा गया और वह संयोग से उसकी गर्दन पर गिर पडी़। जहाँ दैवसंयोग से कोई विपत्ति आ पड़ती है वहाँ इसका व्यवहार होता है। (२) अजातपुत्रनामोत्कीर्तन न्याय—अर्थात् पुत्र न होने पर भी नामकरण होने का न्याय। जहाँ कोई बात होने पर भी आशा के सहारे लोग अनेक प्रकार के आयोजन बाँधने लगते हैं वहाँ यह कहा जाता है। (३) अध्यारोप न्याय—जो वस्तु जैसी न हो उसमें वैसे होने का (जैसे रज्जु मे सर्प हीने का) आरोप। वेदांत की पुस्तकों में इसका व्यवहार मिलता है। (४) अंधकूपपतन न्याय—किसी भले आदमी ने अंधे को रास्ता बतला दिया और वह चला, पर जाते जाते कूएँ में गिर पडा़। जब किसी अनधिकारी को कोई उपदेश दिया जाता है और वह उसपर चलकर अपने अज्ञान आदि के कारण चूक जाता है या अपनी हानि कर बैठता है तब यह कहा जाता है। (५) अंधगज न्याय—कई जन्मांधों ने हाथी कैसा होता है यह देखने के लिये हाथी को टठोला। जिसने जो अंग टटोल पाया उसने हाथी का आकार उसी अंग का सा समझा। जिसने पूँछ टटोली उसने रस्सी के आकार का, जिसने पैर टटोला उसने खंभे के आक...

पार्श्वनाथ स्त्रोत

*श्री पार्श्वनाथ स्त्रोत* नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्रं अधीशं, शतेन्द्रं सु पुजै भजै नाय शीशं । मुनीन्द्रं गणीन्द्रं नमे हाथ जोड़ि, नमो देव देवं सदा पार्श्वनाथं ॥१॥   गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गह्यो तू छुडावे, महा आगतै नागतै तू बचावे । महावीरतै युद्ध में तू जितावे, महा रोगतै बंधतै तू छुडावे ॥२॥   दुखी दुखहर्ता सुखी सुखकर्ता, सदा सेवको को महा नन्द भर्ता । हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं, विषम डाकिनी विघ्न के भय अवाचं ॥३॥     दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने । महासंकटों से निकारे विधाता, सबे सम्पदा सर्व को देहि दाता ॥४॥   महाचोर को वज्र को भय निवारे, महपौन को पुंजतै तू उबारे । महाक्रोध की अग्नि को मेघधारा, महालोभ शैलेश को वज्र मारा ॥५॥   महामोह अंधेर को ज्ञान भानं, महा कर्म कांतार को धौ प्रधानं । किये नाग नागिन अधो लोक स्वामी, हरयो मान दैत्य को हो अकामी ॥६॥   तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनं, तुही दिव्य चिंतामणि नाग एनं । पशु नर्क के दुःखतै तू छुडावे, महास्वर्ग में मुक्ति में तू बसावे ॥७॥   करे लोह को हेम पाषण नामी, रटे नाम सो क...

जैन अध्यात्म

जैन दर्शन में अध्यात्म    'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें जीव द्रव्य चेतन है, जिसे 'आत्मा' शब्द से भी कहा जाता है। शेष पाँचों द्रव्य  अजीव  हैं, जिन्हें अचेतन, जड़ और अनात्म शब्दों से भी व्यवहृत किया जाता है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और रूप गुणोंवाला होने से इन्द्रियों का विषय है। पर आकाश, काल, धर्म और अधर्म ये चार अजीव द्रव्य इन्द्रियगोचर नहीं हैं, क्योंकि उनमें स्पर्श, गन्ध, रस और रूप नहीं हैं। पर आगम और अनुमान से उनका अस्तित्व सिद्ध है। हमारे भीतर दो द्रव्यों का मेल है- शरीर और आत्मा शरीर अचेतन या जड़ है और आत्मा सचेतन है, ज्ञाता-दृष्टा है। किन्तु वह स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द रूप नहीं है। अत: पाँचों इन्द्रियों का विषय नहीं है। ऐसा होने पर भी वह शरीर से भिन्न अपने पृथक् अस्तित्व को मानता है। यद्यपि जन्म में तो शरीर के साथ ही...