*प्राक्कथन*
स्याद्वाद मेरे लिए अमृत है, संजीवनी है, इसने मुझे मरने से बचाया है | इसे पढ़कर मेरा जीवन बदल गया है | मैं एकदम सुलझ गया हूँ | मैं प्रकृति से दार्शनिक स्वभाव का हूँ और अपने छात्र-जीवन से ही दुनिया के सभी दर्शनों को अनाग्रह भाव से पढ़ने-समझने का प्रयास करता रहा हूँ | किन्तु इस स्थिति में एक समय ऐसा आया था जब मैं बहुत परेशान हो गया था, मुझे लगने लगा था कि मैं जीवन में कभी भी दर्शन-जगत की इन गुत्थियों को नहीं सुलझा सकूँगा, सत्य क्या है -यह नहीं जान सकूँगा, मेरा पूरा जीवन ऐसे ही चला जाएगा | मुझे लगने लगा था कि सत्य शायद किसी को भी पता ही नहीं है, सब कोरा मानसिक व्यायाम कर रहे हैं |
इस प्रकार सत्य की खोज में विविध दर्शनों और दार्शनिकों को पढ़ते हुए भी मैं अपने अन्दर में अत्यधिक परेशान रहने लगा था, बेचैन रहने लगा था, आकुल-व्याकुल रहने लगा था; किन्तु जब से मैंने स्याद्वाद को पढ़ा-समझा है, मेरी दुनिया बदल गई है, मेरी सारी व्याकुलता मिट गई है, मैं बहुत शान्त और प्रसन्न हो गया हूँ, ऐसा लगता है मानों मुझे अमृत मिल गया है |
यद्यपि मैंने जब स्याद्वाद को पढ़ना-समझना प्रारम्भ किया था तब भी अनेक लोग मुझसे कहते थे कि यह तो बहुत कठिन सिद्धान्त है, समझ में आ ही नहीं सकता है, तुम इसमें भी उलझ ही जाओगे | अथवा कुछ लोग कहते थे कि इसमें तो कुछ भी दम नहीं है, यह तो एकदम गलत सिद्धान्त है, शायदवाद या सम्भावनावाद है, लुढ़कनेवाला लोटा है, ये भी सही वो भी सही जैसी अज्ञानतापूर्ण बातें करता है, इत्यादि |
किन्तु जब मैंने इन सब बातों से अप्रभावित रहकर इसे शान्ति से समझा तो पाया कि यह तो सत्य को प्रतिपादित करने की समीचीन विधि का सुन्दर सिद्धान्त है और इसके सम्बन्ध में प्रचलित उपर्युक्त प्रकार की धारणाएँ भ्रममात्र हैं | स्याद्वाद वस्तुतः कठिन नहीं है, अपितु बहुत सरल है, जैसा कि मैंने अपने लेख ‘अत्यन्त सरल है स्याद्वाद’ में स्पष्ट किया है |
स्याद्वाद सिद्धान्त ने मुझे समझाया कि दुनिया की कोई भी बात ऐसी नहीं है जो सर्वथा असत्य हो और कोई भी बात ऐसी नहीं है जो सर्वथा सत्य हो | सभी बातें एक अपेक्षा से सत्य हैं और अन्य अपेक्षा से मिथ्या हैं | हमें किसी भी बात को सुनकर उसे सर्वथा नहीं स्वीकार करना चाहिए | तथा उसके खण्डन-मण्डन में भी अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं करनी चाहिए, अपितु उसकी सही-गलत अपेक्षाओं को ठीक से समझने का प्रयास करना चाहिए |
स्याद्वाद वस्तुतः जैन दर्शन का कोई जटिल सिद्धान्त नहीं है, अपितु सत्य के प्रतिपादन की एक समीचीन पद्धति है, निर्दोष विधि है, जो एकदम वैज्ञानिक होने से किसी भी समझदार व्यक्ति किंचित् भी आपत्तिजनक नहीं हो सकती है, अपितु न्यायोचित व्यवस्था होने के कारण सभी को सहर्ष स्वीकृत ही होनी चाहिए | मुझे अनेक बार लगता है कि स्याद्वाद को बार-बार जैन दर्शन का सिद्धान्त कहकर साम्प्रदायिक दृष्टि से प्रस्तुत करना अधिक उचित नहीं है, क्योंकि बहुत-से लोग केवल इसी कारण से इसे ठीक से नहीं समझ रहे हैं और इसके अमृतोपम लाभ से वंचित हैं |
जो भी हो, स्याद्वाद को समझकर मुझे स्वयं अपने जीवन में अमृतोपम लाभ प्राप्त हुआ है और इसलिए मुझे ऐसी प्रबल इच्छा होती रहती है कि सभी लोग स्याद्वाद को अवश्य समझें, भलीभांति समझें, इससे बिलकुल भी न घबराएं और इसके सम्बन्ध में प्रचलित ऊटपटांग धारणाओं पर भी ध्यान न दें | मैं इसके लिए इस विषय पर सोदाहरण एवं सप्रमाण बहुत कुछ लिखना भी चाहता हूँ, इसके हर पहलू को भलीभांति स्पष्ट करना चाहता हूँ, इससे सम्बन्धित हर प्रश्न का उत्तर भी देना चाहता हूँ; परन्तु अभी मुझसे वह सब लिखना नहीं हो पा रहा है, अत: जितना-सा जो भी मैंने लिखा है, उसे ही आपको इस ‘स्याद्वाद-मंगलम्’ नामक कृति के रूप में समर्पित कर रहा हूँ | मुझे विश्वास है कि इससे भी आपको बहुत लाभ होगा | किन्तु यदि फिर भी आपके मन में कुछ शंका रहे तो मैं चर्चा हेतु प्रस्तुत हूँ | आप बस इतना अच्छी तरह समझ लीजिए कि संसार का कोई भी कथन सर्वथा सत्य या सर्वथा असत्य नहीं होता है, स्यात् (कथंचित्) सत्य और स्यात् (कथंचित्) असत्य ही होता है और इसे ही ठीक से जानना-मानना स्याद्वाद है | सभी लोग स्याद्वाद को ठीक से समझें -इस पवित्र भावना के साथ मैं अभी विराम लेता हूँ |
- *वीरसागर जैन*
Comments
Post a Comment