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श्रमण संस्कृति का वैशिष्ट्य और इसके इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यता

श्रमण संस्कृति का वैशिष्ट्य 
                और इसके
 इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यता 

    - प्रो० फूलचन्द जैन प्रेमी, 
 पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,जैनदर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय,वाराणसी।                                  
    
पृष्ठभूमि– श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और व्यापकता :
    भारतीय संस्कृति की प्रमुख दो धारायें श्रमण और वैदिक परम्परायें प्राचीन काल से ही सुविख्यात हैं। इनमें भारतीय संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति का बहुमूल्य योगदान है। अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रवहमान श्रमण संस्कृति भारत की मूल संस्कृतियों में प्रमुख है। जिन विशेषताओं के कारण यह संस्कृति सदैव से गरिमा मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम, त्याग जैसे आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ।अहिंसा मूलक संस्कृति का यह सर्वोत्तम आदर्श है। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैनधर्म के आद्य (प्रथम) तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई। विभिन्न कालखण्डों और क्षेत्र विशेषों में यह श्रमण संस्कृति आर्हत्, व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्थ, जिन और जैन इत्यादि नामों से सदा विद्यमान रही है। 
  इस संस्कृति और धर्म-दर्शन के साथ “जैन” शब्द अर्वाचीन काल में प्रसिद्धि और प्रचलन में आया। अतः  वर्तमान की जैन परम्परा प्राचीनतम श्रमण संस्कृति का ही एक विकसित रूप है। इसलिए श्रमण संस्कृति के जो भी मूलतत्त्व हैं, वे समस्त तत्त्व जैन संस्कृति या परम्परा में विद्यमान होने से एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं।
    यद्यपि 'जैनधर्म' में 'जैन' शब्द का प्रयोग बहुत का है, परन्तु इसकी समृद्ध प्राचीन परम्परा ही इसकी विशेषता है। फ़िर भी आर्हत्, निर्ग्रंथ, श्रमण, व्रात्य इत्यादि प्राचीन नामों से प्रसिद्ध यह संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमा मंडित रही है,उसमें श्रम, संयम, तप- त्याग तथा योग -ध्यान साधना जैसे आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।  यह संस्कृति सूदूर अतीत में जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ,आदिदेव ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई।
विशाल वैदिक-साहित्य में उल्लिखित व्रात्य, अर्हत्, यति, हिरण्यगर्भ, वातरसना-मुनि, केशी, शिश्नदेव, निर्ग्रन्थ, पणि, द्रविड, असुर आदि तथा इसी तरह के अन्यान्य कुछ और भी शब्द एवं अनेक तीर्थंकरों के नाम और उनके प्रति आदरपूर्ण शब्दों में रचित सूक्त एवं ऋचाएँ स्पष्ट ही श्रमणसंस्कृति के उत्कर्ष का द्योतन करती हैं।
       जब से सिंधु घाटी,मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त प्राग्वैदिक् सभ्यता के साक्ष्य प्राप्त हुए, साथ ही वैदिक- साहित्य के गहन अध्ययन -अनुसंधान से उसमें उपलब्ध आर्येतर परम्पराओं की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ है, तब से पाश्चात्य एवं सत्यान्वेषी भारतीय तथा विदेशी मनीषियों ने श्रमण संस्कृति के स्वतन्त्र अस्तित्व तथा उसकी प्राचीन गौरवपूर्ण-परम्परा को एक स्वर से स्वीकृत किया।
      भारतीय और विदेशी इतिहासकार अब यह मानने लगे हैं कि वैदिक वाङ्मय में उल्लिखित वातरसना मुनि, केशी, शिश्नदेव, व्रात्य, पणि, यति, नाग आदि शब्द तथा ऋषभादिक कुछ तीर्थंकरों के नामोल्लेख श्रमण संस्कृति से सम्बन्धित तो हैं ही, साथ ही ये सब इस संस्कृति की प्राचीनता और मौलिकता के भी द्योतक हैं ।
     आश्चर्य तब होता है जब इतनी प्राचीन और समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा होते हुए भी भारतीय इतिहास विषयक साहित्य में इसकी काफी अनदेखी हुई है । यह तो श्रमण संस्कृति अनुयायी  उदारवादी समाज की विशेषता सदा से रही है कि उसने  अपने सांस्कृतिक  आदि धरोहरों के संरक्षण हेतु किसी राज्याश्रय  अथवा सरकारी या अन्य पराये सहयोगों आदि की अपेक्षा  कभी नहीं रखी। फिर भी अपनी समाज के बलबूते पर अपनी अमूल्य कलापूर्ण भव्य  विशाल मूर्तियों और मंदिरों जैसी अनेकानेक सांस्कृतिक धरोहरों,शिक्षलायों,शास्त्रभण्डारों,साहित्य,धर्म-दर्शन तथा तदनुरूप जीवन मूल्यों का प्राणप्रण से संरक्षण तो किया ही, साथ ही श्रद्धा पूर्वक इनके मूल्यों को आत्मसात करते हुए इनके विकास के लिए  प्रयत्नशील भी सदा से रहे हैं और आज भी हैं। इस दृष्टि से इसका समग्र भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाने और इसे गौरव प्रदान करने में सदा से बहुमूल्य योगदान रहा है।
       यही कारण है कि सम्पूर्ण देश में भव्य  जैन मंदिर, मूर्ति आदि के रूप में इसके वास्तु एवं मूर्तिकला के अनेकानेक श्रेष्ठतम अनुपम उदाहरण विद्यमान हैं।यही कारण है कि आज भी अपने सम्पूर्ण देश में और आसपास के अन्य देशों में, जहाँ भी प्राचीन स्थलों का उत्खनन होता है,तब वहाँ प्रायः प्राचीन श्रमण संस्कृति के प्रतीक अवशेष प्राप्त हुआ करते हैं, चाहे वो कलापूर्ण मूर्तियाँ हों, चाहे मंदिरों के अवशेष हों। हाँ, यह बात अलग है कि जैन संस्कृति की सही पहचान से अनजान विद्वान् प्रायः इन्हें भूलवश अन्यान्य जैनेतर परम्पराओं का सिद्ध कर, उन्हें उस रूप में प्रसिद्ध कर  दे रहे हैं। यह चिंतनीय और चिंता का विषय है। 
     कभी हमारे श्रद्धालु पूर्वजों ने प्राचीन काल में उदयगिरि खण्डगिरि, शाश्वत तीर्थ सम्मेद शिखरजी, गिरिनार जी, मथुरा, शत्रुंजय- पालिताना, सूर्यपहाड, श्रवणबेलगोला, कारकल, आबू, रणकपुर, सोनागिरि, नैनागिरि, गोपाचल, कुण्डलपुर, एलोरा,  माँगीतुंगी जैसे उत्कृष्ट सहस्रों तीर्थों पर जो भव्य जिनालयों और मूर्तियों का निर्माण कराया था, तभी आज हम इनके दर्शन कर पुण्यार्जन करते हुए इस वैभव पर गौरव का अनुभव और इन पवित्र तीर्थों की वन्दना कर पा रहे हैं। इन्हीं प्राचीन तीर्थों से हमारी संस्कृति एवं धर्म-दर्शन की प्राचीनता सिद्ध करने का सशक्त आधार प्राप्त हुआ है।
     इसी प्रकार इधर पचास वर्षों में हमारे पूज्य साधुओं, आचार्यों की प्रेरणा से जिन मंदिरों और तीर्थों का नवनिर्माण हुआ है और हो रहा है, वह इसलिए भी एक सकारात्मक प्रशंसनीय कार्य है, ताकि हमारी वर्तमान और आगे की पीढ़ियाँ उनके दर्शनों से आत्मकल्याण करती हुई धर्म और संस्कृति को प्राणवंत बनाऐ रखने सक्षम बन सके। ये ही तो हमारे कल के समृद्ध इतिहास के कारक बनेंगे।
    इसीलिए ये समृद्ध स्थापत्य, मूर्तिकला और चित्रकला आदि कलाकृतियों के रूप में देश के कोने कोने में विद्यमान एक से बढ़कर एक ऐसे सहस्राधिक प्रमाण जैन परम्परा के अवदान के स्पष्ट प्रमाण हैं। विश्व प्रसिद्ध आबू, एलोरा, उदयगिरी-खण्डगिरी, श्रवणबेलगोला, रणकपुर,आबू,खजुराहो  तथा अन्य अनेक क्षेत्रों के प्राचीन भव्य कलापूर्ण जैन मंदिर, मूर्तियाँ और गुफायें भारतीय कला संस्कृति और इतिहास को गौरवान्वित कर रहे हैं। 
    हमारे  नवदेवताओं में पूज्यनीय ये मंदिर और  तीर्थ आदि श्रद्धा-भक्ति दर्शन-पूजन के साधन तो हैं ही, साथ ही ये स्वाध्याय, संयम साधना, शिक्षा-दीक्षा, शास्त्र -ज्ञान-प्रचार एवं सामाजिक एकता और सद्भाव तथा राष्ट्र सम्मान के प्रतीक सदा से रहे हैं। अपने प्रिय देश भारत को विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने में इन सबका बहुमूल्य योगदान है।
      वस्तुतः जैन मान्यता के अनुसार जैनधर्म अनादि और अनन्त है।  यहाँ पञ्चपरमेष्ठियों अर्थात् अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की उपासना की जाती है। ये परमेष्ठी भूतकाल में भी हुए,वर्तमान में भी विद्यमान हैं और भविष्यत्काल में भी होंगे । हरिवंश पुराण(1/27-28)में आचार्य जिनसेन ने कहा है–
येऽतीतापेक्षयाऽनन्ताः संख्येया वर्तमानतः । अनन्तानन्तमानास्तु भाविकालव्यपेक्षया ॥ तेऽर्हन्तः सन्तुः न सिद्धाः सूर्युपाध्यायसाधवः । मङ्गलं गुरवः पञ्च सर्वे सर्वत्र सर्वदा ||
      अर्थात् जो भूतकाल की अपेक्षा अनन्त हैं, वर्तमान की अपेक्षा संख्यात हैं और भविष्य की अपेक्षा अनन्तानन्त हैं, वे अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु समस्त पञ्च परमेष्ठी सब जगह तथा सब काल में मंगल स्वरूप हों । अर्हन्त परमेष्ठी के अन्तर्गत चौबीस तीर्थंकर आते हैं ।  
          वैदिक तथा बौद्ध साहित्य आदि में उपलब्ध अनेकों प्रमाणों के आधार पर जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों की लम्बी परम्परा में से प्रथम तीर्थंकर ऋषभ, बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ, तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर को विद्वान् ऐतिहासिक महापुरूष सिद्ध कर चुके हैं। इसी तरह जैसे-जैसे ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन अनुसन्धान का कार्य आगे बढ़ेगा, वैसे ही अन्य सभी तीर्थंकर तथा उनकी विशाल परम्परा के गौरवपूर्ण इतिहास को सभी स्वीकृत करने लगेंगे। क्योंकि अध्यात्मवादी आर्हत्- श्रमण परम्परा प्राग्वैदिक काल से ही समृद्ध रूप में विद्यमान रही है। 
 प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव :
आचार्य जिनसेन कृत हरिवंश पुराण (13) में कहा  है –                                      नमः सर्वविदे सर्वव्यवस्थानां विधायिने ।
कृतादिधर्मतीर्थाय वृषभाय स्वयम्भुवे ॥ अर्थात् जो सर्वज्ञ हैं, युग के प्रारम्भ की सब व्यवस्थाओं के करने वाले हैं तथा जिन्होंने सर्वप्रथम धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलाई,उन स्वयंबुद्ध भगवान् वृषभदेव को नमस्कार हो।
          ऋग्वेद में ऋषभदेव तथा वातरशना मुनियों का स्पष्ट उल्लेख है - ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद् (१०/१०२/६) मुनयो वातरशनाः ( १० / १३६ / २ - ३ ) । 
       श्रीमद् भागवत पुराण (५/३ वाक्य २०, पृष्ठ २०७-२०८) में भी कहा है–         'बर्हिषि तस्मिन्नवे विष्णुदत्त । भगवान परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षयया तदवरोधायने मरूदेव्यां, धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणा मूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार' – अर्थात् भगवान विष्णु ने राजा नाभि (ऋषभदेव के पिता) का प्रिय करने के लिए महारानी मरूदेवी (भ० ऋषभदेव की माता) के गर्भ में ऋषभदेव के रूप में अवतार लिया था, जिसका उद्देश्य था, वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करना ।
  भगवान ऋषभदेव चौदह मनुओं की पीढ़ी में पाँचवीं पीढ़ी के मनु थे | प्रथम स्वायम्भुव मनु के बाद दूसरे प्रियव्रत, तीसरे आग्नीध्र, चौथे नाभि और पाँचवें मनु ऋषभ हुए। (भागवत पुराण ५/१-३)।
  भारतवर्ष नामकरण:
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित श्रमण संस्कृति को अपने इस प्रिय देश का 'भारतवर्ष' नामकरण का गौरवपूर्ण सौभाग्य  भी प्राप्त हुआ है। इतना ही नहीं अपितु इस देश का इससे भी प्राचीन 'अजनाभवर्ष' यह नामकरण भी ऋषभदेव के पिता नाभिराज (अजनाभ) के नाम से प्रचलित रहा। कहा भी है– अजनाभं नामैतद् वर्षं भारतमिति यद् आरभ्य व्यपदिशन्ति - भागवत् ५/७/३) ।  
    प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर अपने देश के भारतवर्ष नामकरण के प्राचीन उल्लेख अनेक वैदिक पुराणों में उपलब्ध हैं।
  श्रीमद्भागवत पुराण (स्कन्ध ५, अध्याय ४) में कहा है कि भगवान ऋषभदेव को अपनी कर्मभूमि अजनाभवर्ष में सौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें ये ज्येष्ठ पुत्र महायोगी भरत को उन्होंने अपना राज्य दिया और उन्हीं के नाम से लोग इसे 'भारतवर्ष' कहने लगे–
 येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद् येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति । 
   लिङ्गपुराण (४७/२१-२४) में भी कहा है– सोभिचिन्त्याथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सलः । ज्ञानवैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रिय महोरगान् ॥ हिमाद्रेर्दक्षिणं वर्षं भरतस्य न्यवेदयत् । तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ॥   
    इसका भावार्थ यही है कि इन्द्रियरूपी सर्पों पर विजय पाकर ऋषभ ने हिमालय के दक्षिण में जो राज्य अपने ज्येष्ठ पुत्र 'भरत' को दिया तो इस देश का नाम तब से 'भारतवर्ष' प्रचलित हुआ।
      अग्निपुराण (10/10-11) में कहा है–
ऋषभो मरुदेव्यां श्रीपुत्रे शाल्यग्रामे हरिर्गतः।   भरताद् भरतं वर्षं भरतात् सुमतिस्त्वभूत्॥ 
अर्थात् वहाँ नाभिराजा से मरुदेवी में ऋषभ का जन्म हुआ। ऋषभ ने राज्य श्री भरत को प्रदान कर संन्यास धारण किया । भरत से इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ । भरत के पुत्र का नाम सुमति था ।
 ब्रह्माण्ड पुराण (१९/२/१४/६०) में भी कहा है–ऋषभं पार्थिव- श्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।
ऋषभाद्भरतो जज्ञे वीरपुत्रशतानुजः || 
   विष्णु पुराण (अंश २, अध्याय १, श्लोक २८-३२ तक) में भी इसी बात को और विस्तार से तथा प्रकारान्तर से वायु पुराण (१०४/१६, १७), शिवपुराण (३७/५७), मत्स्य पुराण (११४/५-६) एवं अन्याय अनेक  वैदिक पुराणों में में भी यही बात कही गयी है।
     इस तरह ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित श्रमण संस्कृति भारत की प्राचीनतम संस्कृतियों में से अन्यतम है। भारत के प्राचीन निवासी, जिनमें द्रविड भी मुख्य थे, आर्यों की अपेक्षा कहीं अधिक सभ्य, सुशिक्षित और उन्नत थे। ज्ञान, ध्यान aयोग एवं तप आदि तत्त्व उनके जीवन में सम्मिलित थे। वे चतुर कृषक एवं पटु कलाकार थे । जीव एवं जगत के विषय में अनेक मौलिक दार्शनिक चिन्तन रखते थे। उनका आर्यों पर प्रभाव पड़ा। भाषा, कला, स्थापत्य, नगर, संयोजना और अन्य क्षेत्रों में भी उनका ज्ञान अधिक विकसित था।
   अनार्य भारतीयों की नागरिक सभ्यता आर्यों की सभ्यता की तुलना में कहीं अधिक बढ़ी- चढ़ी और उन्नत थी। यह तथ्य अब सिंधुघाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में प्राप्त अवशेषों से पूर्णतया स्थापित हो चुका है। 
इस तरह हम देखते हैं कि श्रमण  संस्कृति के इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं-अभिलेख और साहित्य। जैनों के पास अपनी विशाल साहित्य राशि है, जो इतिहास का एक प्रबल स्रोत है। साहित्य इतिहास - अध्ययन में एक मौलिक घटक के रूप में इतिहासकार को युगीन तथ्यों को खोजने और उनके आकलन में समर्थन एवं सहयोग प्रदान करता है। साहित्यकार अपने साहित्य में तत्कालीन देश, काल एवं परिस्थिति को स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित करता है। जहाँ इतिहास लेखक अतीत का द्रष्टा होता है,वहीं साहित्य लेखक अतीत, वर्तमान और भविष्य द्रष्टा भी होता है। 
    जैन साहित्य में आगमिक और उत्तर आगमिक (व्याख्या) साहित्य, साथ ही संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य भाषाओं में विशाल रूप में जो भी साहित्य उपलब्ध हैं, वह इतिहास संकलन के लिए  प्रबल स्रोत हैं। इस साहित्य से इतिहास के अनेक सन्दर्भ न केवल पुष्ट होते हैं बल्कि जैनों की इतिहास दृष्टि के भी परिचायक हैं।  
ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में अभिलेखीय प्रमाण और इनका महत्व –
किसी भी संस्कृति की प्राचीनता के अध्ययन में प्राचीन शिलालेखों का अत्यधिक महत्त्व है। ये अभिलेख श्रमण संस्कृति की मौलिकता, प्राचीनता और समृद्ध परम्परा के प्रकाशक तो हैं ही,साथ ही संघों आदि की उत्पत्ति और विकास के जीवन्त दस्तावेज भी हैं। उपलब्ध अभिलेख साहित्यिक संदर्भों के प्रामाणिकता के पुरातात्त्विक आधार भी हैं। इसलिये इतिहास की विवेचना की पृष्ठभूमि में पुराभिलेखीय स्रोत अपने ऐतिहासिक महत्त्व एवं सांस्कृतिक वैशिष्ट्य के कारण प्राचीन काल से ही समादृत रहे हैं। 
    भारतीय आभिलेखिकी परम्परा में प्रस्तर फलकों, स्तम्भों, मूर्ति पादपीठों, धातुपत्रों जैसे विभिन्न आधार उपादानों पर अंकित "जैन अभिलेखों" का ऐतिहासिक दृष्टि से अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। कई अभिलेख जहां प्राथमिक स्रोत का कार्य करते हैं-  वहीं अनेक अभिलेख पूरक स्रोत के रूप में उभरकर सामने आते हैं- यथा विदिशा के दुर्जनपुर से उपलब्ध जैन मूर्तिलेख जो अन्य स्रोतों से ज्ञात रामगुप्त की न केवल ऐतिहासिकता सिद्ध करते वरन् रामगुप्त की सम्प्रभुता-सम्पन्न महाराजाधिराज के रूप में शासक होने का भी प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।                     
     यदि भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि खण्डगिरि, के पहाड़ पर ईसा पूर्व महामेघवाहन सम्राट खारवेल द्वारा प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखाया गया हाथी गुम्फा का  बृहद् शिलालेख न मिलता तो  इसके अभाव में  महाराजा खारवेल इतिहास का विषय ही नहीं बन पाते। अपने देश का भारतवर्ष नामकरण, श्रमण संस्कृति की भव्यता महाराजा खारवेल की विजय यात्राओं द्वारा वृहत्तर भारत के संगठन, मगध द्वारा अपहृत कलिंगजिन की गौरवपूर्ण मूर्ति को वापिस कलिंग में लाकर स्थापित करना, जैन मुनियों की साधना हेतु अनेक अद्भुत गुफाओं का निर्माण, जनभाषा के रूप में प्रचलित प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि, तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की झांकी आदि के प्राचीन इतिहास और महत्व से कौन परिचित कराता ? इसलिए खारवेल अभिलेख जैन इतिहास के एक अविस्मरणीय  और गौरव शाली युग का परिचायक है। 
      इसलिए  हमें बहुत ही आभारी होना चाहिए कलिंग महाराजा खारवेल का, क्योंकि इन्होंने ईसा पूर्व में ही उदयगिरि खण्डगिरि के हाथी गुम्फा शिलालेख में श्रमण जैन संस्कृति के गौरव को लिखवाकर अमर कर दिया।  
    मेवाड़ (राजस्थान) के अजमेर के  वडली नामक गाँव है । यहाँ करीब ढाई हजार साल पहले का एक अति दुर्लभ   अभिलेखीय प्रमाण मिला है, जो  वीर निर्वाण संवत् का यह सर्वप्राचीन पहला साक्ष्य है,  जो कि सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेिद् डॉ गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने १९१२ ईस्वी में इस  शिलालेख को खोजा था। 
    यह लेख वीर निर्वाण के ८४ वर्ष बाद अर्थात् ४४३ ईसा पूर्व में लिखाया गया। इससे यह सिद्ध होता है कि इसके पहले से वीरनिर्वाण संवत् प्रचलन में था और अभिलेखादि में भी प्रयुक्त होता रहा है। इस लेख में वीर निर्वाण संवत् ८४ का उल्लेख है।
   लेख इस प्रकार में  है- "वीराय भगवता चतुर सीति वस काये सालामालिनिय रनि विठ माज्झमिके "  यह  लेख  ब्राह्मी लिपि  और प्राकृत भाषा में पत्थर पर अंकित है। 4इसे भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के ८४ वर्ष बाद शालामालिनी नामक राजा ने माज्झणमिका नामक नगरी में, जो कि मेवाड की राजधानी थी में, किसी प्रसंग की स्मृति स्वरूप यह लेख लिखवाया था। 
     इसी प्रकार मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त आयागपट्टों मूर्ति-शिल्पों आदि में उल्लिखित लेखों ने तथा श्रवणवेलगोल एवं यत्र-तत्र के पांच सौ से भी अधिक शिलालेखों आदि के साथ ही विभिन्न स्थानों में संरक्षित अनेक पट्टावलियों, गुर्वावलियों, विज्ञप्ति- पत्रों आदि ने भी हमें अपने  तथा अपने देश के इतिहास को संजोने में बहुत मदद की है, अन्यथा न मालूम हमारी संस्कृति का इतिहास कितना पिछड़ जाता। 
   इन्हीं शिलालेखीय अभिलेखों आदि के अध्ययन से जहाँ एक ओर इतिहास की अनेक गुत्थियाँ सुलझतीं हैं, वहीं प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता के अध्ययन में भी बहुत सहयोग प्राप्त होता है । इतना ही नहीं अपितु अपने भारत देश को छोड़ विश्व में शायद ही ऐसा कोई अन्य देश हो,जिसके प्राचीन इतिहास का इतना व्यापक प्रामाणिक ज्ञान  इन अभिलेखों से प्राप्त होता हो । 
  दक्षिण भारत के अनेक राजवंशों--जैसे गंग, कदम्ब, होयसल आदि तथा अमोघवर्ष जैसे अनेक राजाओं के विषय में तो अनेक उल्लेख साहित्य और शिलालेखों में मिलते हैं, जो इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं।  धार्मिक उद्देश्य से उत्कीर्ण कराये गये अभिलेख मन्दिरों, मूर्तियों, स्तम्भों, शिलाओं, धातु-पट्टिकाओं तथा मूर्तियों की पादपीठों आदि पर उत्कीर्ण कराये गये मिलते हैं। 
     कुछ अभिलेख ऐसे भी प्राप्त होते जिनका उद्देश्य वैयक्तिक होता था जिनमें किसी शासक, आचार्य या कवि आदि की प्रशस्ति, दान घोषणा आदि का उल्लेख मिलता है। बिजौलिया (राजस्थान) जैन तीर्थ में तो छोटी सी नदी के मध्य विशाल शिलाओं पर  बड़े शिलालेख के रूप में संस्कृत भाषा में पूरा एक काव्य ही लिखा हुआ मिलता है। 
   इस तरह देश के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त शिलालेखीय अभिलेखों का पुन: पुन: अध्ययन, अनुसंधान आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है । जैन शिलालेख संग्रह नामक चार भागों में माणिकचंद ग्रन्थमाला से प्रकाशित ग्रन्थ तथा इस विषयक अन्यान्य ग्रंथों का अध्ययन जब हम करते हैं तब हमें अपनी संस्कृति की समृद्ध परम्परा पर नाज होता है। 
 इतिहास लेखन में हस्तलिखित शास्त्र भण्डारों का महत्त्व:
       भारतीय विद्याओं के सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् मैक्समूलर की यह दृढ़ मान्यता थी कि 'सारे संसार में ज्ञानियों एवं पण्डितों का देश भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ विपुल मात्रा में ज्ञान सम्पदा हस्तलिखित ग्रन्थों के रूप में सुरक्षित है।हमारी असली धरोहर के रूप में विद्यमान अपार ज्ञान- विज्ञान से भर हुए इन शास्त्र भण्डारों ने मात्र जैन शास्त्रों को ही संरक्षित नहीं रखा, अपितु वैदिक, बौद्ध तथा अन्य सभी परम्पराओं के शास्त्रों को भी पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित रखकर समग्र भारतीय संस्कृति के संरक्षण और विकास में बहुमूल्य भूमिका का निर्वाह किया है। 
    कालिदास जैसे अनेक महाकवियों, बौद्ध एवं अन्य प्राचीन भारतीय दार्शनिकों की पाण्डुलिपियों  के रूप में दुर्लभ कृतियों को उपलब्ध कराने, उनके प्रामाणिक संस्करणों के सम्पादन आदि कार्यों में हस्तलिखित जैन शास्त्र भण्डारों का महत्त्व और इनकी अपरिहार्यता को सभी स्वीकार करते हैं। जैन शास्त्र भण्डारों में जैनेतर परम्पराओं के  अधिकांश शास्त्रों की उपलब्धता सभी परंपराओं   के शास्त्रों के अध्ययन और उनमें निहित तत्वों के ज्ञान- ग्रहण के प्रति विशेष अभिरुचि  हम सभी को जैनाचार्यों की उदारवादी नीति और विशाल हृदय के दर्शन कराती है। 
    आज भी शताधिक पुस्तकालयों, संग्रहालयों, मन्दिरों, विभिन्न शास्त्रभण्डारों तथा निजी संग्रहालयों में हजारों हस्तलिखित ग्रन्थ नष्टप्रायः होने की स्थिति में पहुंच रहे हैं और अपने उद्धार की प्रतीक्षा में पड़े हुए हैं। हमारी उपेक्षा के चलते कितना ही साहित्य नष्ट हो गया और कितना निरन्तर नष्ट हो रहा है ।     
   इसीलिए प्राचीन शास्त्रों की ये पाण्डुलिपियाँ हमारे देश की महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में अमूल्य सम्पत्ति हैं। क्योंकि इनमें और इनकी प्रशस्तियों- पुष्पिकाओं में पूर्ववर्ती आचार्यों, उनकी गुरु-शिष्य परम्परा, राजाओं, श्रेष्ठियों, नगरों, सार्थवाहों, मंदिर-मूर्ति निर्माताओं, विद्वानों उनके शास्त्रों, तत्कालीन समृद्धि एवं अनेक घटनाओं और इनकी तिथियों आदि के प्रमाण तथा इनसे सम्बन्धित तथ्यों के महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं । 
     किन्तु प्राचीन शास्त्रों की महत्ता से अनभिज्ञ वर्तमान पीढ़ी के लिए प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की महत्ता भले ही समझ में न आये, परन्तु प्राचीन हस्तलिखित अच्छे या जर्जरित रूप में पुराने कागज की इन श्रमसाध्य पाण्डुलिपियों में विद्वानों एवं शोधार्थियों के लिए अद्भुत ज्ञान राशि का कोष छिपा रहता है। वे इनमें से संस्कृति, इतिहास, भाषा, परम्परा, सभ्यता, आध्यात्मिक एवं भौतिक जीवन मूल्यों आदि अनेक विषयों से सम्बन्धित विपुल मात्रा में महत्त्वपूर्ण तथ्यों की खोज करते हैं।
देश के प्रमुख नगरों में स्थित शास्त्रभंडार–
    सम्पूर्ण देश के कोने-कोने में ये जैन शास्त्र भण्डार, प्राचीन जैन मंदिरों, शिक्षा एवं शोध संस्थान, निजी संग्रहों आदि के रूप में हजारों की संख्या में विद्यमान हैं। इनमें से मुख्यतया मूढबिद्री श्रवणबेलगोला, बाहुबलि कुम्भोज, पाटण, पालिताना, जैसलमेर, खंभात, अहमदाबाद, कोबा,बीकानेर, श्रीमहावीरजी, नागौर, ब्यावर, अजमेर, चुरु, लाडनूं, दिल्ली, आगरा, वाराणसी, जयपुर, इन्दौर, उज्जैन, बीना, आरा, कारंजा, मैसूर, अर्हन्तगिरि, कनकगिरी, मद्रास आदि अनेक नगरों में तथा इनके आसपास के गाँव-गाँव में विद्यमान हैं। 
संस्कृति और इतिहास संरक्षण में साहित्य का महत्त्व-
     वस्तुतः समाज और संस्कृति का दर्पण होता है साहित्य, इसीलिए समाज एवं संस्कृति की आत्मा साहित्य के भीतर से अपने रूप लावण्य को अभिव्यक्त करती है। इसी कारण साहित्य सामाजिक भावनाओं क्रान्तिमय विचारों एवं जीवन के विभिन्न उत्थान-पतन की विशुद्ध अभिव्यंजना है। इसीलिए साहित्य को सनातन उपलब्धि का साधन माना गया है। कतिपय मनीषियों ने आत्म तथा अनात्म भावनाओं की भव्य अभिव्यक्ति को साहित्य कहा है। यह साहित्य किसी देश समाज या व्यक्ति का सामयिक समर्थक नहीं, बल्कि सार्वदेशिक और सार्वकालिक नियमों से प्रभावित होता है ।
   हमारी  दिगम्बर और श्वेतांबर- इन दोनों ही जैन परंपराओं के विशाल आगम और आगमेतर साहित्य में तथा  इनमें उल्लिखित प्रशस्तियों आदि ने भी हमें इतिहास के सूत्र इकट्ठे करने में बहुत सहयोग किया है। क्योंकि जैनागमों में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति आदि से संबंधित बहुमूल्य सामग्री बिखरी हुई है। प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन में इसका उपयोग किया जाना आवश्यक है। क्योंकि प्राचीन भारतीय इतिहास की अनेक अनिर्णीत तिथियों एवं घटनाओं के निर्धारण एवं सत्यापन में भी यह साहित्य अधिक सहायक सिद्ध हो सकता है। 
     दसवीं शती के आचार्य इन्द्रनन्दि और उनके श्रुतावतार ग्रन्थ  तथा इससे संबंधित अन्यान्य शास्त्रों के  साथ ही श्वेतांबर परंपरा के प्रभावकचरित्र, प्रबन्ध चिंतामणि, प्रबन्ध कोष,विविधतीर्थकल्प आदि महत्त्व के ग्रंथों के योगदान को हम कभी भूल ही नहीं सकते, जिनमें हमारी पूरी आचार्य तथा शास्त्रीय परम्परा और  का इतिहास भी उल्लिखित है।   
   इसके साथ ही विशाल वैदिक तथा बौद्ध साहित्य में जो जो जैन परम्परा के उल्लेख मिलते हैं, उन्हें सुरक्षित रखने हेतु हम इन दोनों परंपराओं के भी बहुत आभारी हैं। क्योंकि इनके अध्ययन से जैन संस्कृति की प्राचीनता सिद्ध करने में बहुत मदद मिली है। 
      वस्तुतः महान् जैनाचार्यों ने  अपने- अपने समय और क्षेत्रों में बहु- प्रचलित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड आदि अनेक प्राचीन भाषाओं में विपुल साहित्य का सृजन करते आ रहे हैं । इन्होंने स्व-पर कल्याण हेतु संयममार्ग पर चलते हुए अपने अनुभूत उच्च तत्त्वज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, साहित्य, संगीत, इतिहास, पुराण, काव्य, गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष, कला, कोष एवं व्याकरण तथा बहुमूल्य व्यावहारिक एवं नैतिक जीवन की पद्धतियों से सम्बन्धित एक से बढ़कर एक सहस्रों ग्रन्थों का सृजन किया। 
   अपने देश के ही नहीं, अपितु विश्व के साहित्य मनीषी जिन्होंने जैन साहित्य का गहराई से अवलोकन किया है, वे जैनाचार्यों के समुज्वल ज्ञान एवं अद्भुत प्रतिभा के समक्ष नतमस्तक हुए बिना नहीं रहते। उनका मानना है कि सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति, सभ्यता, समाज, धर्म, राजनीति, और अर्थनीति आदि विभिन्न विधाओं का सम्पूर्ण ज्ञान जैन साहित्य के अध्ययन के बिना अधूरा है
       पिछले सात- आठ  दशकों में जैन साहित्य पर अनुसंधान, अध्ययन-अध्यापन एवं सम्पादन तथा लेखन का कार्य जिस तेजी से हुआ, और जिसके परिणामस्वरूप अप्रकाशित दुर्लभ विशाल साहित्य तथा उसमें निहित ढेर सारी सामग्री की दुर्लभ सूचनायें, विपुल ज्ञान-विज्ञान के नये क्षितिज सामने आये हैं। बहुत सारा प्रकाशित-अप्रकाशित साहित्य भी उपयोगी नये रूप में प्रकाश में आया है। उसकी महत्ता भी निर्विवाद है, किन्तु यह भी सत्य है कि जितना व्यापक उसका अध्ययन-अध्यापन, प्रचार-प्रसार तथा साहित्य जगत में उसके यथोचित मूल्यांकन होना चाहिए था,वह नहीं हुआ। इतना ही नहीं अभी भी बहुत कुछ अप्रकाशित साहित्य के उद्धार का कार्य शेष है। 
       जैन साहित्य के इतिहास का एक सर्वांगीण विवेचन भी एक महत्वपूर्ण कार्य है, किन्तु कठिन भी कम नहीं है। फिर भी हमारे दूरदर्शी कुछ प्रमुख आचार्यों ने अपने ग्रन्थों तथा शिलालेखों आदि में वह मूल्यवान ऐतिहासिक सामग्री संरक्षित कर रखी है, जिसका इतिहास- लेखन में व्यापक उपयोग आवश्यक है। यद्यपि आत्मप्रशंसा से बचने के लिए हमारे कुछ प्रमुख आचार्यों ने अपने एवं अपनी परम्परा के विषय में बहुत कम लिखा या ग्रंथ कर्ता के रूप में अपना नाम तक नहीं लिखा। इसीलिए आज छोटे बड़े अनेक ग्रंथ अज्ञात लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं। 
   हमारे अग्रज वरिष्ठ विद्वानों को इतिहास लिखने के लिए विशाल वाङ्मय तथा शिलालेखों, प्रशस्तियों आदि से यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री तथा सन्दर्भों को जोड़कर किस प्रकार साहित्य और संस्कृति के इतिहास की रचना करनी पड़ी, ये कठिनाईयां ऐसे लेखक विद्वान् ही जान-समझ सकते हैं, जो इस प्रकार की कार्य- योजनाओं से जुड़े रहते है।इतना सब होने पर ही हम सभी को अभी अपूर्ण ही मानते हैं।इसीलिए  हम सभी का यह प्रथम कर्तव्य है  कि अभी इतिहास लेखन में अपार सम्भावनायें मानते हुए  इसे निरन्तर पूरा करने हेतु प्रयत्नशील रहना भी बहुत  ही आवश्यक है।
       वस्तुतः साहित्येतिहास का सम्बन्ध राजनैतिक, आर्थिक, समाजशास्त्रीय, धार्मिक और मनोवैज्ञानिक इतिहास लेखन से कहीं न कहीं गहरा होता है। आज इन सभी ज्ञान-विज्ञानों के प्रामाणिक इतिहास भी सुलभ हैं। इन सबके आलोक में जैन साहित्य के इतिहास के स्वरूप को पुर्नविश्लेषित और व्यवस्थित करके प्रस्तुत करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है, ताकि उसका यथोचित उपयोग और मूल्यांकन होता रहे। 
  इतिहास के  नवलेखन हेतु इण्टरनेट आदि के उपयोगों सहित अद्यतन अध्ययन की, प्रामाणिक सामग्री एवं आवश्यक तथ्यों की आवश्यकता होती है।इसके लिए भारत के कोने-कोने में स्थित जैन शास्त्रभण्डारों, पुस्तकालयों द्वारा अलग-अलग सामग्री तालिका सहित प्रकाशित की जाए तो बहुत अच्छी सामग्री एकत्रित हो जायेगी। साथ ही सभी इतिहास लेखकों को वहां की मूल सामग्री का उपयोग करने की छूट के साथ ही घर बैठे इण्टरनेट आदि पर ये सुविधायें स्वतः उपलब्ध कराना चाहिए । 
     आज के युग के लिए यह  भी  एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है कि प्रत्येक आचार्य की समस्त कृतियों का अनुवाद सहित संग्रह अर्थात् उनकी ग्रन्थावली प्रकाशित हों। ऐसा होने पर भावी इतिहास लेखन की आधारभूत अनिवार्य सामग्री सुलभ हो सकेगी और नये इतिहास लेखन की परिपूर्णता के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकेगा।
    इतिहास लेखन की आधारभूत सामग्री, चूंकि कहीं एकत्र सुलभ होने के बजाय पूरे भारत में बिखरी हुई है, इसलिए उसका अवलोकन, अध्ययन, विश्लेषण किसी एक व्यक्ति द्वारा असंभव है। इसके लिए कुछ विद्वानों की टीमें ( टोलियां) बनाकर कार्य कराना भी आवश्यक है। जो विभिन्न क्षेत्रों की बिखरी सामग्री का अलग-अलग अनुशीलन और विश्लेषण करें और अन्त में सभी विद्वान् मिलकर विश्लेषित सामग्री का समायोजन करेंगे, तब जाकर वास्तविक इतिहास का स्थापत्य निर्मित होगा ।
         हमें अपना  संबंधित साहित्य सब तक,  विशेषकर देश के सभी वरिष्ठ विद्वानों और इतिहासकारों तक पहुँचना  भी बहुत अपेक्षित है। क्योंकि सभी क्षेत्रों और विषयों के विशेषज्ञ लेखकों के पास यदि हमारा साहित्य नहीं पहुंचा, तो सही और अध्ययनपूर्ण जानकारी के अभाव में वह जो भी लिखेंगे, वह  एकांगी, भ्रामक और अपूर्ण हो सकना स्वाभाविक है।
   आईये हम सभी मिलजुलकर  इतिहास के पुर्ननिर्माण में अपना-अपना योगदान सुनिश्चित करें, ताकि हम  अपने देश की वर्तमान और भावी पीढ़ी को एक जैन  संस्कृति का नया युगीन इतिहास देकर गौरव का अनुभव कर सकें।             
              
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प्रो०  फूलचन्द जैन प्रेमी, 
निवास- अनेकान्त विद्या भवनम्, बी० २३ / ४५ पी-६, शारदानगर, खोजवाँ, वाराणसी-२२१०१० 
मोबा.9670863335, 09450179254
Email anekantif@gmail.com

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