*गुरुणां गुरु श्रीमान् पण्डित गोपालदासजी बरैय्या का पंचाध्यायी के सर्वप्रथम प्रकाशन से सम्बन्ध*
तथा
*यह ग्रन्थराज पठन पाठन में कैसे आया ?*
:
*उक्त दोनों का संक्षिप्त इतिहास*
गुरुवर! (श्रीमान् पण्डित गोपालदासजी बरैया) जैन समाज में तो आप सर्वमान्य मुकुट थे ही, पर अन्य विद्वत्समाज में भी आपका प्रतिभामय प्रखर पाण्डित्य प्रख्यात था। आपके उद्देश्य बहुत उदार थे .....
ऐसे समय में जब कि उच्चतम कोटि के सिद्धान्त ग्रंथों के पठन-पाठन का मार्ग रुका हुआ था, आपने अपने असीम पौरुष से उन ग्रंथों के मर्मी १५-२० गण्यमान्य विद्वान् भी तैयार कर दिये, इतना ही नहीं; किन्तु न्याय-सिद्धान्त-विज्ञता का प्रवाह बराबर चलता रहे – इसके लिये मोरेना में एक विशाल जैन सिद्धान्त विद्यालय भी स्थापित कर दिया, जिससे कि प्रतिवर्ष सिद्धान्तवेत्ता विद्वान् निकलते रहते हैं।
*जैनधर्म की वास्तविक उन्नति का मूल कारण यह आपकी (प्रिय) कृति (पंचाध्यायी) जैन समाज के हृदय-मन्दिर पर सदा अंकित रहेगी।*
*पंचाध्यायी,* एक अपूर्व सिद्धान्त ग्रन्थ होने पर भी बहुत काल से लुप्त-प्राय था, आपने ही अपने शिष्यों को पढ़ाकर इसका प्रसार किया।
कभी-कभी इसके आधार पर अनेक तात्त्विक गम्भीर भाषणों से श्रोतृ समाज को भी इस ग्रन्थ के अमृतमय रस से तृप्त किया।
(सिद्धान्त एवं संस्कृत ग्रन्थों के मर्मज्ञ विद्वान् आगरा निवासी स्व० श्री पण्डित बल्देवदासजी ने *पंचाध्यायी* का अध्ययन श्रद्धेय श्री गुरुवर पण्डित गोपालदासजी बरैया को कराया था, स्याद्वाद-वारिधि वादिगज-केसरी न्याय-वाचस्पति गोपालदासजी बरैया ने गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार यदि सिद्धान्त-ग्रंथों के साथ इस *पंचाध्यायी* ग्रंथ को बड़ी लगन और बड़े उल्लास के साथ हमको और हमारे सहपाठी विद्वानों को पढ़ाया। पाठ दो घंटे चलता था। अनेक शंका-समाधान भी होते थे। उस समय बाहर के भी कई महानुभाव पाठ के समय उपस्थित होते थे। उन सब को बहुत आल्हाद एवं आनन्द होता था।
*टीका बनाते समय खोज* – पंचाध्यायी ग्रन्थ की सुबोधिनी टीका सबसे पहले हमने बनाई है। कोल्हापुर यंत्रालय द्वारा प्रकाशित मूल प्रति पर से यह टीका की गई है। मूल प्रति को पढ़ते समय हम शुद्ध कर लेते थे। अजमेर के शास्त्र-भंडार की लिखित मूल प्रति से छूटे हुए पाठों को भी हमने सुधारा था। यात्रा करते समय जैनबिद्री (श्रवणबेलगोला) में श्रीमद्राजमान्य दौर्वलि शास्त्री के प्राचीन ग्रंथ भंडार से प्राप्त लिखित मूल प्रति से भी अपनी प्रति का हमने मिलान किया था। इस भाँति इस मूल पंचाध्यायी के संशोधन में हमने यथासाध्य प्रयत्न किया है, जिसमें कठिनाई का अनुभव भी किया। फिर भी दो-तीन स्थलों पर छंदभंग तथा चरणभंग अभी रह गये हैं, जो बिना आधार के संशोधित नहीं करके ज्यों के त्यों रख दिये गये हैं। –आद्य वक्तव्य, मक्खनलाल शास्त्री)
पूज्यपाद! आपके प्रसाद से उपलब्ध हुए इस ग्रंथ की आपके आदेशानुसार की हुई यह टीका, आज आपके ही कर-कमलों में टीकाकार द्वारा सादर - सप्रेम - सविनय समर्पित की जाती है। .....
आपका प्रिय शिष्य,
*मक्खनलाल शास्त्री*
(प्रस्तुति,
डॉ. राकेश जैन शास्त्री, नागपुर)
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