समयप्राभृत अथवा समयसार
‘वोच्छामि समयपाहुडमिणमो
सुयकेवलीभणियं’ इस
प्रतिज्ञावाक्य से मालूम होता है कि इस ग्रंथ का नाम कुंदकुंदस्वामी को समयपाहुड
(समयप्राभृत) अभीष्ट था, परंतु पीछे चलकर ‘प्रवचनसा’ और ‘नियमसार’ इन सारांत
नामों के साथ ’समयसार’ नाम से प्रचलित हो गया । ‘समयते एकत्वेन युगपज्जानाति
गच्छति च’ अर्थात् जो पदार्थों को एक साथ जाने अथवा गुणपर्यायरूप परिणमन करे
वह समय है इस निरूक्ति के अनुसार समय शष्द का अर्थ जीव होता है और ‘प्रकर्षेण
आसमन्तात् भृतं इति प्राभृतम’ जो उत्कृष्टता के साथ सब ओर से भरा हो --- जिसमें
पूर्वापर विरोधरहित सांगोपांग वर्णन हो उसे प्राभृत कहते हैं इस निरूक्ति के
अनुसार प्राभृत का अर्थ शास्त्र होता है । ‘समयस्य प्राभृतम्’ इस समास के अनुसार
समयप्राभृत का अर्थ जीव –आत्मा का शास्त्र होता है । ग्रंथ का चालू नाम समयसार
है अत: इसका अर्थ त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव अथवा सिद्धपर्याय है ।
समयप्राभृत ग्रंथ निम्न 10 अधिकारों में विभाजित है –1.
पूर्वरंग, 2.
जीवाजीवाधिकार, 3.
कर्तृकर्माधिकार, 4.
पुण्यपापाधिकार, 5.
आस्त्रवाधिकार ,6.
संवराधिकार, 7.
निर्जराधिकार, 8.
बंधाधिकार, 9.
मोक्षधिकार और 10.
सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार । नयों का सामंजस्य बैठाने के लिए अमृतचंद्र स्वामी ने
पीछे से स्याद्वादाधिकार और उपायोपेयाभावाधिकार नामक दो स्वतंत्र परिशिष्ट और
जोडे़ हैं । अमृतचंद्र सूरिकृत टीका के अनुसार समग्र ग्रंथ 415 गाथाओं में समाप्त
हुआ है और जयसेनाचार्यकृट टीका के अनुसार 442 गाथाओं में ।
उपर्युक्त गाथाओं का प्रतिपाद्य विषय
इस प्रकार है—
पुर्वरंगाधिकार
कुंदकुंदस्वामी ने स्वयं पूर्वरंग
नाम का कोई अधिकार सूचित नहीं किया है परंतु संस्कृत टीकाकार अमृतचंद्रसूरिने
38वीं गाथा की समाप्ति पर पूर्वरंग समाप्ति की सूचना दी है । इन 38 गाथाओं में
प्रारंभ की 12 गाथाएँ पीठिकास्वरूप में हैं जिनमें ग्रंथकर्ता ने मंगलाचरण,
ग्रंथप्रतिज्ञा, स्वसमय-परसमय का व्याख्यान तथा शुद्धनय और अशुद्धनय के स्वरूप
का दिग्दर्शन कराया है । इन नयों के ज्ञान के बिना समयाप्रभृत को समझना अशक्य है
। पीठिका के बाद 38वीं गाथातक पूर्वरंग नाम का अधिकार है जिसमें आत्मा के शुद्ध
स्वरूप का निदर्शन कराया गया है ।
शुद्धनय आत्मामें जहाँ परद्रव्यजनित विभावभाव को स्वीकृत नहीं करता वहाँ वह
अपने गुण और पर्यायों के साथ भेद भी स्वीकृत नहीं करता । वह इस बात को भी स्वीकृत
नहीं करता कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और समयक्चारित्र ये आत्मा के गुण हैं,
क्योंकि इनमें गुण और गुणी का भेद सिद्ध होता है । वह यह घोषित करता है कि आत्मा
सम्यग्दर्शनादिरूप है । ‘आत्मा प्रमत्त है और आत्मा अप्रमत्त है ’ इस कथन को
भी शुद्धनय स्वीकृत नहीं करता, क्योंकि इस कथन में आत्मा प्रमत्त और अप्रमत्त
पर्यायों में विभक्त होता है । वह तो आत्मा को एक ज्ञायक ही स्वीकृत करता है ।
जीवाधिकार में जीव के निजस्वरूप का कथन कर उसे परपदार्थों और परपदार्थों के
निमित्त से होने वाले विभावों से पृथक् निरूपित किया है । नोकर्म मेरा नहीं है,
द्रव्यकर्म मेरा नहीं है, और भावकर्म भी मेरा नहीं है, इस तरह इन पदार्थों से आत्मतत्त्व
को पृथक् सिद्ध कर ज्ञेय-ज्ञायक भाव और भाव्य- भावक
भावकी
अपेक्षा भी आत्मा को ज्ञेय तथा भाव्य से पृथक् सिद्ध किया है । जिस प्रकार दर्पण
अपने में प्रतिबिंबित मयूर से भिन्न है उसी प्रकार आत्मा अपने ज्ञान में आये
घटपटादि ज्ञेयों से भिन्न है और जिस प्रकार दर्पण ज्वालाओं के प्रतिबिंब से
संयुक्त होने पर भी तज्जन्य ताप से उन्मुक्त रहता है इसी प्रकार आत्मा अपने
अस्तित्व में रहनेवाले सुख-दु:ख रूप कर्मफल के अनुभव से रहित है । इस तरह प्रत्येक
परपदार्थों से भिन्न आत्मा के अस्तित्व का श्रद्धान करना जीवतत्त्व के निरूपण
का लक्ष्य है । इस प्रकरण के अंत में कुंदकुंदस्वामी ने उद् घोष किया है—
अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो
सदा रूबी ।
णवि अत्थि मज्झ किंचिवि अण्णं
परमाणुमित्तं पि।।38।।
अर्थात् निश्चयसे मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ , दर्शन-ज्ञान से तन्मय हूँ, अन्य
परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है ।
इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि यह जीव, पुद् गल के संयोग से उत्पन्न
हुई संयोगज पर्याय में आत्मबुद्धि कर उनकी इष्ट – अनिष्ट परिणति में हर्ष-
विषाद का अनुभव करता हुआ व्यर्थ ही रागी-द्वेषी होता है और उनके निमित्त से नवीन
कर्मबंध कर अपने संसार की वृद्धि करता है । जब यह जीव, परपदार्थों से भिन्न निज
शुद्ध स्वरूप की ओर लक्ष्य करने लगता है तब परपदार्थों से इसका ममत्वभाव स्वयमेव
दूर होने लगता है ।
जीवाजीवाधिकार
जीव
के साथ अनादि काल से कर्म –नोकर्म रूप पुद् गल द्रव्य का संबंध चला आ रहा है ।
मिथ्यात्व दशा में यह जीव शरीररूप नोकर्म की परिणति को आत्मा की परिणति मानकर
उसमें अहंकार करता है---इस रूप ही मैं हूँ ऐसा मानता है अत: सर्वप्रथम इसकी शरीर
से पृथक्ता सिद्ध की है। उसके बाद
ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म और रागादिकभाव कर्मों से इसका पृथक्त्व दिखाया है ।
आचार्य महाराजने कहा है कि हे भाई! ये सब पुद् गल द्रव्य के परिणमन से निष्पन्न
हैं, अत: पुद्ग गल के हैं, तू इन्हें जीव क्यों मान रहा है?
यथा –
एए सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा
केवलिजिणेहि भणिया कह ते जीवोत्ति वुच्चंति।।44।।
जो स्पष्ट ही अजीव हैं उनके अजीव
कहने में तो कोई खास बात नहीं है, परंतु जो अजीवाश्रित परिणमन जीव के साथ घुलमिलकर
अनित्य तन्मयीभाव से तादात्म्य जैसी अवस्था को प्राप्त हो रहे हैं, उन्हें अजीव सिद्ध करना इस अधिकार की विशेषता
है । रागादिक भाव अजीव हैं, गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास आदि भाव अजीव हैं यह बात
यहाँ तक सिद्ध की गयी है । अजीव हैं—इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ये घटपटादि के
समान अजीव हैं । यहाँ ‘अजीव हैं’ इसका इतना ही तात्पर्य है कि ये जीव की स्वभावपरिणति
नहीं हैं । यदि जीव की स्वभाव परिणति होती तो त्रिकाल में इनका अभाव नहीं होता ।
परंतु जिस पौद् गलिक कर्म की उदयावस्था में ये भाव होते हैं उसका अभाव होने पर ये
स्वयं विलीन हो जाते हैं । अग्नि के संसर्ग के पानी में उष्णता आती है परंतु वह
उष्णता सदा के लिए नहीं आती है । अग्नि का संबंध दूर होते ही दूर हो जाती है ।
इसी प्रकार क्रोधादि द्रव्यकर्मों के उदयकाल में होनेवाले रागादिभाव आत्मा में
अनुभूत होते हैं, परंतु वे संयोगज भाव होने से आत्मा के विभाव भाव हैं, स्वभाव
नहीं, इसीलिए इनका अभाव हो जाता है ।
ये रागादिक भाव आत्मा को छोड़कर अन्य पदार्थों में नहीं होते इसलिए उन्हें
आत्मा के कहने के लिए आचार्यों ने एक अशुद्ध नय की कल्पना की है । वे, ‘शुद्ध
निश्चय नय से आत्मा के नहीं हैं, परंतु अशुद्ध निश्चय नय से आत्मा के हैं’ ऐसा
कथन करते हैं, परंतु कुंदकुंद स्वामी विभाव को आत्मा मानने के लिए तैयार नहीं
हैं । उन्हें आत्मा के कहना, वे व्यवहार नय का विषय मानते हैं और उस व्यवहार का
जिसे कि उन्होंने अभूतार्थ कहा है। इसी प्रसंग में जीव
का स्वरूप बतलाते हुए कुंदकुंद स्वामी ने कहा है—
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं
चेदणागुणमसदृं।
जाण अलिंगग्गहणं
जीवमणिदिृट्ठसंठाणं।।49।।
अर्थात् हे भव्य!
तू आत्मा को ऐसा जान कि वह रसरहित है,रूपरहित है, गंधरहित है, अव्यक्त अर्थात्
स्पर्शरहित है, शब्दरहित है, अलिंगग्रहण है अर्थात् किसी खास लिंग से उसका ग्रहण
नहीं होता तथा जिसका कोई आकार निर्दिष्ट नहीं किया गया है ऐसा है, किंतु
चेतनागुणवाला है ।
यहाँ चेतनागुण जीव का स्वरूप है और रस, गंध आदि उसके स्वरूप नहीं हैं ।
परपदार्थ से उसका पृथक्त्व सिद्ध करने के लिए ही यहाँ उनका उल्ल्ेख किया गया
है । वर्णादिक और रागादिक – सभी जीव से भिन्न है — जीवेतर हैं । इस तरह इस
जीवाजीवाधिकार में आचार्य ने मुमुक्षु प्राणी के लिए परपदार्थ से भिन्न जीव के
शुद्ध स्वरूप का दर्शन कराया है । साथ ही उससे संबंध रखने वाले पदार्थ को अजीव
दिखलाया है । यह जीवाजीवाधिकार 39 वीं गाथा से लेकर 68 वीं गाथातक चला है ।
कर्तृकर्माधिकार
जीव
और अजीव (पौद् गलिक कर्म) अनादि काल से संबद्ध अवस्था को प्राप्त हैं, इसलिए
प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इनके अनादि संबंध का कारण क्या है ?
जीवने
कर्म को किया या कर्मने जीव को किया ?
यदि जीवने कर्म को किया तो जीव में ऐसी कौन सी विशेषता थी कि जिससे उसने कर्मको
किया ?
यदि बिना विशेषता के ही किया तो सिद्ध महाराज भी कर्म को करें, इसमें क्या आपत्ति
है? और कर्म ने जीव को
किया तो कर्म में ऐसी विशेषता कहाँ से आयी कि वे जीव को कर सकें — उसमें रागादिक
भाव उत्पन्न कर सकें । बिना विशेषता के ही यदि कर्म रागादिक करते हैं । तो कर्म
के अस्तित्वकाल में सदा रागादिक उत्पन्न होना चाहिए । इस प्रश्नावली से बचने
के लिए यह समाधान किया गया है कि जीव के
रागादि परिणामों से पुद् गल द्रव्यमें कर्मरूप परिणमन होता है और पुद् गल के
कर्मरूप परिणमन—उनकी उदयावस्था का निमित्त पाकर आत्मा में रागादिक भाव उत्पन्न
होते हैं । इस समाधान में जो अन्योन्याश्रय दोष आता है उसे अनादि संयोग मानकर
दूर किया गया है। इस कर्तृकर्माधिकार में कुंदकुंद स्वामी ने इसी बात का बड़ी
सूक्ष्मता से वर्णन किया है ।
अमृतचंद्र स्वामी ने कर्ता, कर्म और क्रिया का लक्षण लिखते हुए कहा है—
य:परिणमति स कर्ता य:परिणामो
भवेत्तु तत्कर्म ।
या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं
न वस्तुतया ।।51।।
अर्थात्
जो परिणमन करता है वह कर्ता कहलाता है, जो परिणाम होता है उसे कर्म कहते हैं और जो
परिणति होती है वह क्रिया कहलाती है । वास्वत में ये तीनों ही भिन्न नहीं हैं,
एक द्रव्य की ही परिणति है ।
निश्चय नय,
कर्तृ-कर्मभाव उसी द्रव्य में मानता है जिसमें व्याप्य – व्यापक भाव अथवा
उपादान-उपादेय भाव होता है । जो कार्यरूप
परिणत होता है उसे व्यापक या उपादान कहते हैं और जो कार्य होता है उसे व्याप्य
या उपादेय कहते हैं ।‘मिट्टी से घट बना’ यहाँ मिट्टी व्यापक या उपादान है और घट
व्याप्य या उपादेय है । यह व्याप्य –व्यापक भाव या उपादान –उपादेय भाव सदा एक
द्रव्य में ही होता है, दो द्रव्यों में नहीं, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप
परिणमन त्रिकाल में भी नहीं कर सकता । जो उपादान के कार्यरूप परिणमन में सहायक
होता है वह निमित्त कहलाता है, जैसे मिट्टी के घटाकार परिणमन में कुंभकार तथा दंड,
चक्र आदि । और उस निमित्त की सहायता से उपादान में जो कार्य होता है वह नैमित्तिक
कहलाता है, जैसे कुंभकार आदि की सहायता से मिट्टी में हुआ घटाकार परिणमन । यह
निमित्त-नैमित्तिक भाव दो विभिन्न द्रव्यों में भी बन जाता है, परंतु
उपादान-उपादेय भाव या व्याप्य–व्यापक भाव एक द्रव्य में ही बनता है । जीव के
रागादि भाव का निमित्त पाकर पुद् गल में और पुद् गल की उदयावस्था का निमित्त पाकर
जीव में रागादि भाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार दोनों में निमित्त-नैमित्तिक
भाव होने पर भी निश्चयनय उनमें कर्तृ-कर्मभाव को स्वीकृत नहीं करता ।
निमित्त-नैमित्तिक भाव के होने पर भी कर्तृ- कर्मभाव न मानने में युक्ति यह दी है
कि ऐसा माननेपर निमित्तमें द्विक्रियाकारित्व का दोष आता है अर्थात् निमित्त अपने
परिणमन का भी कर्ता होगा और उपादान के परिणमन का भी कर्ता होगा, जो कि संभव नहीं
है । कुंदकुंद स्वामी ने कहा है—
जीवो ण करदि घड़ं, णेव पडं सेसगे
दव्वे ।
जोगुवजोगा उप्पादगा, य तेसिं हवदि
कत्ता।।100।।
जीव न तो घट को करता है न पटको करता
है और न बाकी के अन्य द्रव्यों को कहता है, जीव के योग और उपयोग ही उनके कर्ता
है ।
इसकी टीका में अमृतचंद्र स्वामी ने लिखा है—जो घटादिक और क्रोधादिक
परद्रव्यात्मक कर्म हैं, यदि इन्हें आत्मा व्याप्य – व्यापक भाव से करता है
तो तद्रुपता का प्रसंग आता है और निमित्त-नैमित्तिक भाव से करता है तो नित्यकर्तृत्व
का प्रसंग आता है परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि आत्मा उनसे न तो तन्मय ही है और न
नित्यकर्ता ही है । अत: न तो व्याप्य- व्यापक भाव से कर्ता है और
निमित्त-नैमित्तिक भाव से । किंतु अनित्य जो योग और उपयोग हैं वे ही घट-पटादि
द्रव्यों के निमित्त कर्ता हैं । उपयोग और योग आत्मा के विकल्प और व्यापार हैं
अर्थात् जब आत्मा ऐसा विकल्प करता है कि मैं घटको बनाऊँ , तब काय योग के द्वारा
आत्मा के प्रदेशों में चंचलता आती है और चंचलता की निमित्तता पाकर हसतादिक के व्यापार
द्वारा दंडनिमित्तक चक्रभ्रमि होती है तब घटादिक की निष्पत्ति होती है । यह विकल्प
और योग अनित्य हैं, कदाचित् अज्ञान के ,द्वारा करने से आत्मा इनका कर्ता हो भी
सकता है परंतु परद्रव्यात्मक कर्मों का कर्ता कदापि नहीं हो सका । यहाँ निमित्त
कारण को दो भागों में विभाजित किया गया है—एक साक्षात् निमित्त और दूसरा परंपरा
निमित्त । कुंभकार अपने योग और उपयोग का कर्ता है, यह साक्षात् निमित्तकी अपेक्षा
कथन है, क्योंकि इनके साथ कुंभकार का साक्षात् संबंध है और कुंभकार के योग तथा
उपयोग से दंड तथा चक्रादि में जो व्यापार होता है तथा उससे जो घटादिक की उत्पत्ति
होती है वह परंपरा निमित्त की अपेक्षा कथन है । जब परंपरा निमित्त से होने वाले
निमित्त-नैमित्तिक भाव को गौण कर कथन किया जाता है तब यह बात कही जाती है कि जीव
घट-पटादि का कर्ता नहीं है परंतु जब परंपरा निमित्तसे होनेवाले निमित्त-नैमित्तिक
भाव को प्रमुखता देकर कथन किया जाता है तब जीव घट-पटादि का कर्ता होता है । तात्पर्यवृत्ति
की निम्न पंक्तियों से यही भाव प्रकट होता है—
‘इति परम्परया निमित्तरूपेण घटादिविषये जीवस्य कर्वृत्वं स्यात् ।
यदि पुन: मुख्यवृत्त्या निमित्तकर्तृत्वं भवति तहिं जीवस्य नित्यत्वात्
सर्वदैव कर्मकर्तृत्वप्रसड्.गाद् मोक्षाभाव:।’गाथा 100
इस प्रकार
परंपरा निमित्त रूप से जीव घटादिक का कर्ता होता है, यदि मुख्य वृत्ति से जीव को
निमित्त कर्ता माना जावे तो जीव के नित्य होने से सदा ही कर्मकर्तृत्व का प्रसंग
आ जायेगा और उस प्रसंग से मोक्ष का अभाव हो जावेगा ।
‘घटका कर्ता कुम्हार नहीं है,
पटका कर्ता कुविंद नहीं है और रथ का कर्ता बढ़ई नहीं है,’ यह कथन लोकविरूद्ध अवश्य
प्रतीत होता है पर यथार्थ में जब विचार किया जाता है तब कुम्हार, कुविंद और
बढ़र्इ अपने-अपने उपयोग और योग के कर्ता होते है । लोक में जो उनका कर्तृव्य
प्रसिद्ध है वह परंपरा निमित्त की अपेक्षा संगत होता है ।
मूल प्रश्न यह था कि कर्म का
कर्ता कौन है?
तथा रागादिक का कर्ता कौन है?
इस प्रश्न के उत्तर में जब व्याप्य- व्यापकभाव
या उपादान-उपादेय भाव की अपेक्षा विचार होता है तब यह बात आती है कि चूँकि कर्मरूप
परिणमन पुद् गल रूप उपादान में हुआ है इसलिए उसका कर्ता पुद् गल ही है, जीव नहीं
है ।परंतु जब परंपरा नैमित्तिक भाव की अपेक्षा विचार होता है तब जीव के रागादिक
भावों का निमित्त पाकर पुद् गल में कर्मरूप परिणमन हुआ है इसलिए उनका कर्ता जीव है
। उपादान- उपादेयभाव की अपेक्षा रागादिक का कर्ता जीव है और परंपरा
निमित्त-नैमित्तिक भाव की अपेक्षा उदयावस्था को प्राप्त रागादिक द्रव्य कर्म ।
जीवादिक नौ पदार्थों के विवेचन के बीच में कर्तृकर्मभाव की चर्चा छेड़ने
में कुंदकुंद स्वामी का इतना ही अभिप्राय ध्वनित होता है कि यह जीव अपने आपको
किसी पदार्थ का कर्ता, धर्ता तथा हर्ता मानकर व्यर्थ ही रागद्वेष के प्रपंच में
पड़ता है । अपने आपको परका कर्ता मानने से अहंकार उत्पन्न होता है और परकी इष्ट
अनिष्ट परिणति में हर्ष-विषाद का अनुभव होता है ।जब तक परपदार्थों और तन्निमित्तक
वैभाविक भावों में हर्ष-विषाद का अनुभव होता रहता है तब तक यह जीव अपने ज्ञाता
द्रष्टा स्वभाव में सुस्थिर नहीं होता । वह मोह की धारा में बहकर स्वरूप से च्युत
रहता है । मोक्षाभिलाषी जीव को अपनी यह भूल सबसे पहले सुधार लेनी चाहिए । इसी
उद्देश्य से आस्त्रवादि तत्त्वों की
चर्चा करने के पूर्व कुंदकुंद महाराज ने सचेत किया है कि ‘हे मुमुक्षु प्राणी !
तू कर्तृव्य के अहंकार से बच , अन्यथा राग- द्वेष की दलहल में फँस जावेगा ।‘
‘आत्मा कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं है’ निश्चय करके इस कथन का
विपरीत फलितार्थ निकालकर जीवों को स्वच्छंद नहीं होना चाहिए । क्योंकि अशुद्ध निश्चयनय के जीव रागादिक
भावों का और व्यवहार नय से कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता स्वीकार किया गया है ।
परस्परविरोधी नयों का सामंजस्य पात्रभेद के विचार से ही संपन्न होता है ।
इसी कर्तृकर्माधिकार में अमृतचंद्र स्वामी ने अनेक नयपक्षों का उल्लेख कर
तत्त्ववेदी पुरूष को उनके पक्ष से अतिक्रांत – परे रहनेवाला बताया है । आखिर, नय
वस्तुस्वरूप को समझने के साधन हैं, साध्य नहीं । एक अवस्था ऐसी भी आती है जहाँ
व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार के नयों के विकल्पों का अस्तित्व नहीं रहता,
प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेप चक्र का तो पता ही नहीं चलता कि वह कहाँ गया—
उदयति न नयश्रीरस्तमेति
प्रमाणं
क्वचिदपि च न विद्मो
याति निक्षेपचक्रम ।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि
सर्वड्.कषे∙स्मि-
त्रनुभवमुपयाते भाति न
द्वैतमेव।।9।।
पुण्यपापाधिकार
संसार चक्र से निकलकर मोक्ष प्राप्त
करने के अभिलाषी प्राणी को पुण्य का प्रलोभन अपने लक्ष्य से भ्रष्ट करने वाला
है । इसलिए कुंदकुंद स्वामी आस्त्रवाधिकार का प्रारंभ करने के पहले ही इसे सचेत
करते हुए कहते हैं कि हे मुमुक्षु!
तू मोक्षरूपी महानगर के लिए निकला है । देख, कहीं बीच में ही पुण्य के प्रलोभन
में नहीं पड़ जाना । यदि उसके प्रलोभन में पड़ा तो एक झटके में ऊपर से नीचे आ
जायेगा और सागरोंपर्यत के लिए उसी पुण्यमहल में नजरकैद हो जायेगा ।
अधिकार के प्रारंभ में कुंदकुंद महाराज कहते हैं कि लोग अशुभ को कुशील और
शुभ को सुशील कहते हैं । परंतु वह सुशील शुभ कैसे हो सकता है जो इस जीव को संसार
में ही प्रविष्ट रखता है—उससे बाहर नहीं निकलने देता । बंधन की अपेक्षा सुवर्ण और
लोह – दोनों की बेड़ियाँ समान हैं । जो बंधन से बचना चाहता है उसे सुवर्ण की बेड़ी
भी तोड़नी होगी ।
वास्तव में जीव पुण्य का प्रलोभन तोड़ने में असमर्थ-सा हो रहा है । यदि
अपने आत्मस्वातंत्र्य तथा शुद्ध स्वभाव
की ओर
इसका लक्ष्य बन जावे तो कठिन नहीं है । दया, दान, व्रताचरण आदि के भावलोक में
पुण्य कहे जाते हैं और हिंसादि पापों में प्रवृत्तिरूप भाव पाप कहे जाते हैं
।पुण्य के फलस्वरूप पुण्यप्रकृतियों का बंध होता है और पाप के फलस्वरूप पाप
प्रकृतियों का ।जब उन पुण्य और पाप प्रकृतियों का उदयकाल आता है तब इस जीव को
सुख-दु:ख का अनुभव होता है । परमार्थ से
विचार किया जावे तो पुण्य और पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियों का बंध इस जीव को
संसार में ही रोकनेवाला है । इसलिए इनसे बचकर उस तृतीयावस्था को प्राप्त करने का
प्रयास करना चाहिए जो पुण्य और पाप दोनों के विकल्प से परे है । उस तृतीयावस्था
में पहुँचने पर ही जीव कर्मबंध से बच सकता है और कर्मबंध से बचने पर ही जीव का
वास्तविक कल्याण हो सकता है । उन्होंने कहा है—
परमट्ठबाहिरा जे अण्णाणेण
पुण्णमिच्छंति ।
संसारगमण हेदुं वि मोक्खहेउं
अजाणंता ।।154।।
जो परमार्थ से बाह्य हैं अर्थात्
ज्ञानात्मक आत्मा के अनुभव से शून्य है वे अज्ञान से संसार गमन का कारण होने पर
भी पुण्य की इच्छा करते हैं तथा मोक्ष के कारण को जानते भी नहीं हैं।
यहाँ आचार्य महाराजने कहा है कि जो मनुष्य परमार्थज्ञान से रहित हैं वे
अज्ञानवश मोक्ष का साक्षात् कारण जो वीतराग परिणति है उसे तो जानते नहीं हैं और
पुण्य को मोक्ष का साक्षात् कारण समझकर उसकी उपासना करते हैं जब कि यह पुण्य
संसार की ही प्राप्ति का कारण है । यहाँ पुण्यरूप आचारण का निषेध नहीं है किंतु
पुण्याचरण को मोक्ष का साक्षात् मार्ग मानने का निषेध किया है । ज्ञानी जीव अपने
पद के अनुरूप पुण्याचरण करता है और उसके फलस्वरूप प्राप्त हुए इंद्र, चक्रवर्ती
आदि के वैभव का उपयोग भी करता है परंतु श्रद्धा में यही भाव रखता है कि हमारा यह
पुण्याचरण मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है तथा उसके फलस्वरूप जो वैभव प्राप्त
होता है वह मेरा स्वपद नहीं है । यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने के योग्य है कि
जिस प्रकार पापाचरण बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता उस प्रकार बुद्धिपूर्वक पुण्याचरण
नहीं छोडा़ जाता, वह तो शुद्धोपयोग की भूमिका में प्रविष्ट होने पर स्वयं छूट
जाता है ।
जिनागम का कथन नयसापेक्ष होता है अत: शुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग रूप
पुण्य को त्याज्य कहा गया है परंतु अशुभोपयोगरूप पाप की अपेक्षा उसे उपादेय
बताया गया है । शुभोपयोग में यथार्थ मार्ग जल्दी मिल सकता है, परंतु अशुभोपयोग
में उसकी संभावना ही नहीं है । जैसे प्रात: काल संबंधी सूर्यलालिमा का फल सूर्योदय
है और सायंकालसंबंधी सूर्यलालिमा का फल सूर्यास्त है । इसी आपेक्षिक कथन को
अंगीकृत करते हुए श्री कुंदकुंद स्वामी ने मोक्षपाहुड में कहा है ---
वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं
होउ णिरय इयरेहिं ।
छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण
गुरूभेयं ।।25।।
और इसी अभिप्राय से पूज्यपाद स्वामी
ने भी इष्टोपदेश में शुभोपयोगरूप व्रताचरण से होनेवाले दैवपद को कुछ अच्छा कहा
है और अशुभोपयोगरूप पापाचरण से होनेवाले नारकपद को बुरा कहा है—
वरं व्रतै: पदं दैवं
नाव्रतैर्बत नारकम् ।
छायातपस्थयोर्भेद:
प्रतिपालयतोर्महान्।।2।।
अर्थात् व्रतों से देवपद पाना कुछ अच्छा है परंतु अव्रतों से नारकपद पाना
अच्छा नहीं है । क्योंकि छाया और धूप में बैठकर प्रतीक्षा करनेवालों में महान्
अंतर है ।
अशुभोपयोग सर्वथा त्याज्य ही है और शुद्धोपयोग उपादेय ही है । परंतु
शुभोपयोग पात्रभेद की अपेक्षा हेय और उपादेय
दोनों रूप है । किन्हीं-किन्हीं1 आचार्यों
ने सम्यग्दृष्टि के पुण्य को मोक्ष का कारण बताया है और मिथ्यादृष्टि के पुण्य
को बंध का कारण । उनका यह कथन भी नयविवक्षा से संगत होता है । वस्तुवत्त्व का
यथार्थ विशलेषण करने पर यह बात अनुभव में आती है कि सम्यग्दृष्टि जीव की मोह का आंशिक अभाव हो जाने से जो आंशिक निर्मोह
अवस्था हुई है वही उसकी निर्जरा का कारण है और जो शुभ रागरूप अवस्था है वह बंधका
ही कारण है। बंध के कारणों की चर्चा करते हुए कुंदकुंद स्वामी ने तो एक ही बात
कही है—
रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि
जीवो विरागसंपत्तो ।
ऐसो जिणोवएसो तम्हा कम्मेसु मा
रज्ज।।150।।
रागी जीव कर्मों को बॉंधता है और विराग को प्राप्त हुआ जीव कर्मों का
छोड़ता है । यह भी जिनेश्वर का उपदेश है , इससे कर्मों में राग मत करो ।
यहाँ आचार्य ने शुभ अशुभ दोनों प्रकार के राग को ही बंध का कारण कहा है ।
यह बात जुदी है कि शुभ राग से शुभ कर्म का बंध होता है और अशुभ राग से अशुभ कर्म
का । शुभ राग के समय शुभ कर्मों में स्थिति अनुभाग बंध अधिक होता है और अशुभ राग
में अशुभ कर्मों में स्थिति अनुभाग बंध अधिक होता है । वैसे प्रकृति और प्रदेश बंध
तो यथासंभव व्युच्छित्तिपर्यंत सभी कर्मों का होता रहता है ।
यह पुण्यपापाधिकार 145 से 163 गाथा तक चलता है
।
आस्त्रवाधिकार
संक्षेप में जीव द्रव्य की दो अवस्थाऍं
है---एक संसारी और दूसरी मुक्त । इनमें संसारी अवस्था अशुद्ध होने से हेय है और
मुक्त अवस्था शुद्ध होने से उपादेय है । संसार अवस्था का कारण आस्त्रव और
बंधतत्त्व है तथा मोक्ष अवस्था का कारण संवर और निर्जरा तत्त्व है । आत्मा के
जिन भावों से कर्म आते हैं उन्हें आस्त्रव कहते हैं । ऐसे भाव चार है—मिथ्यात्व,
अविरमण, कषाय और योग । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रकारने इन चार के सिवाय प्रमाद का भी
वर्णन किया है, परंतु कुंदकुंद स्वामी प्रमाद को कषाय का ही एक रूप मानते हैं अत:
उन्होंने चार आस्त्रवों का ही वर्णन किया है । इन्हीं चार के निमित्त से आस्त्रव
होता है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों ही आस्त्रव हैं, उसके बाद अविरत सम्यग्दृष्टि तक अविरमण, कषाय और योग ये तीन आस्त्रव हैं ।
पंचम गुणस्थान में एकदेश अविरमण का अभाव हो जाता है । छठवें गुणस्थान से दसवें
गुणस्थान तक कषाय और योग ये दो आस्त्रव हैं और उसके बाद 11,12,और 13वें गुणस्थान
में मात्र योग आस्त्रव है । तथा चौंदहवें गुणस्थान में आस्त्रव बिलकुल ही नहीं
है ।
इस अधिकार की खास चर्चा यह है कि ज्ञानी अर्थात्
सम्यग्दृष्टि जीव के आस्त्रव और बंध नहीं होते । जब कि करणानुयोग की पद्धति से
अविरत सम्यग्दृष्टि को आदि लेकर तेरहवें गुणस्थान तक क्रमसे
77,67,63,59,58,22,17,1,1 प्रकृतियों का बंध
बताया है । यहाँ कुंदकुंद स्वामी का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मिथ्यात्व और
अनंतानुबंधी के उदयकाल में इस जीव के तीव्र अर्थात् अनंत संसार का कारण बंध होता
था उस प्रकार का बंध सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होता । सम्यग्दर्शन की ऐसी अद्
भुत महिमा है कि उसके होने के पूर्व ही बध्यमान कर्मों की स्थिति घटकर अन्त:कोडाकोडी
सागर प्रमाण हो जाती है और सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति इससे भी संख्यात
सागर कम रह जाती है । वैसे भी अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के 41 प्रकृतियों का आस्त्रव
और बंध तो रूक ही जाता है । वास्तविक बात ________________________________________________________________________
1.
सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ
संसारकारणं णियमा ।
1.मोक्खस्स
होइ हेउं जइवि णिदाणं ण सो कुणई।।40।।--भावसंग्रहे देवसेनस्य
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
यह है कि सम्यग्दृष्टि
जीव के सम्यग्दर्शन रूप परिणामों से बंध नहीं होता । उसके जो बंध होता है उसका
कारण अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों का उदय है । सम्यग्दर्शनादि भाव मोक्ष के
कारण है वे बंध के कारण नहीं हो सकते किंतु उनके सद्भभावकाल में जो रागादिक भाव
हैं वे ही बंध के कारण हैं । इसी भाव को अमृतचंद्रसूरिने ने निम्नांकित कलश में
प्रकट किया है—
रागद्वेषविमोहानां
ज्ञानिनो यदसम्भव: ।
तत एव न बन्धो∙स्ति
ते हि बन्धस्य कारणम् ।।119।।
चूँकि ज्ञानी जीव के
राग द्वेष और विमोह का अभाव है इसलिए उसके बंध नहीं होता । वास्तव में रागादिक ही
बंध के कारण हैं जहाँ जघन्य रत्नत्रय को
बंध का कारण बतलाया है वहाँ भी यही विवक्षा ग्राह्य है कि उसके काल में जो रागादिक भाव हैं वे बंध
के कारण हैं । रत्नत्रय को उपचार से बंध का कारण कहा गया है ।
यह आस्त्रवाधिकार 164 से 180 गाथा तक चलता
है ।
संवराधिकार
आस्त्र का विराधी तत्त्व संवर है अत:
आस्त्रव के बाद ही उसका वर्णन किया जा रहा है । ‘आस्त्रवनिरोध: संवर:’ आस्त्रव
का रूक जाना संवर है । यद्यपि अन्य ग्रंथकारों ने गुप्ति, समिति, धर्म,
अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र को संवर कहा है किंतु इस अधिकार में कुंदकुंद स्वामी
ने भेदविज्ञान को ही संवर का मूल कारण बतलाया है । उनका कहना है कि उपयोग, उपयोग
में ही है, क्रोधादिक में नहीं है और क्रोधादिक क्रोधादिक में ही हैं, उपयोग
में नहीं हैं। कर्म और नोकर्म तो स्पष्ट ही आत्मा से भिन्न हैं अत: उनसे भेदज्ञान
प्राप्त करने में महिमा नहीं है । महिमा तो उस उस रागादिक भाव कर्मों से अपने
ज्ञानोपयोग को भिन्न करने में है जो तन्मयीभाव को प्राप्त होकर एक दिख रहे हैं
। अज्ञानी जीव इस ज्ञानधारा और रागादिधारा को भिन्न –भिन्न नहीं समझ पाता इसलिए
वह किसी पदार्थ का ज्ञान होने पर उसमें तत्काल राग-द्वेष करने लगता है परंतु
ज्ञानी जीव उन दोनों धाराओं के अंतर को समझता है इसलिए वह किसी पदार्थ को देखकर
उसका ज्ञाता –द्रष्टा तो रहता है परंतु रागी-द्वेषी नहीं होता । जहाँ यह जीव
रागादिक को अपने ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव से भिन्न अनुभव करने लगता है वहीं उनके
संबंध से होने वाले रागद्वेष से बच जाता है । राग द्वेष से बच जाना ही सच्चा संवर
है । किसी वृक्ष को उखाड़ना हो तो उसके पत्ते नोंचने से काम नहीं चलेगा, उसकी जड़
पर प्रहार करना होगा । राग द्वेष की जड़ है भेद विज्ञान का अभाव । अत: भेद विज्ञान
के द्वारा उन्हें अपने स्वरूप से पृथक् समझना यही उनके नष्ट करने का वास्तविक
उपाय है । इस भेदविज्ञान की महिमा का गान करते हुए अमृतचंद्रसूरिने कहा है---
भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा ये
किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल
केचन ।।131।।
आजतक जितने सिद्ध हुए हैं वे सब भेदविज्ञान से
ही सिद्ध हुए हैं और जितने संसार में बद्ध हैं वे भेदविज्ञान के अभाव से ही बद्ध
हैं ।
इस भेदविज्ञान की भावना तब तक करते रहना
चाहिए जब तक कि ज्ञान, पर से च्यूत होकर ज्ञान में ही प्रतिष्ठित नहीं हो जाता ।
परपदार्थ से ज्ञान को भिन्न करने का पुरूषार्थ चतुर्थ गुणस्थान से शुरू होता है
और दशम गुणस्थान के अन्तिम समय में समाप्त होता है । वहाँ वह परमार्थ से अपनी
ज्ञानधारा को रागादिक की धारा से पृथक् कर लेता है । इस दशा में इस ______________________________________________________________________________
1.
तत्त्वार्थसूत्र नवमाध्याय सूत्र 1।2.
‘स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रै:’
तत्त्वार्थसूत्र नवमाध्याय सूत्र 2।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जीव
का ज्ञान, सचमुच ही ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाता है और इसीलिए जीव के रागादिक के
निमित्त से होने वाले बंध का सर्वथा अभाव हो जाता है । मात्र योग के निमित्त से
सातावेदनीय का आस्त्रव और बंध होता है सो भी सांपरायिक आस्त्रव और स्थिति तथा
अनुभाग बंध नहीं, मात्र ईर्यापथ आस्त्रव और प्रकृति- प्रदेश बंध होता है ।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ऐसा जीव नियम से केवलज्ञान प्राप्त करता है । अहो भव्य
प्राणियो!
संवर के इस साक्षात् मार्गपर अग्रसर होओ जिससे आस्त्रव और बंध से छुटकारा मिले ।
संबराधिकार 181 से 192 गाथा तक चलता है ।
निर्जराधिकार
सिद्धों के अनंतवें भाग और अभव्यराशि से
अनंतगुणित कर्म परमाणुओं की निर्जरा संसार के प्रत्येक प्राणी के प्रतिसमय हो रही
है । पर ऐसी निर्जरा से किसी का कल्याण नहीं होता । क्योंकि जितने कर्म परमाणुओं
की निर्जरा होती है उतने ही कर्मपरमाणु आस्त्रवपूर्वक बंध को प्राप्त हो जाते
हैं । कल्याण उस निर्जरा से होता है जिसके होने पर नवीन कर्मपरमाणुओं का आस्त्रव
और बंध नहीं होता । इसी उद्देश्य से यहाँ कुंदकुंद महाराजने संवर के बाद ही
निर्जरा पदार्थ का निरूपण किया है । संवर के बिना निर्जरा की कोई सफलता नहीं है ।
निर्जराधिकार के प्रारंभ में ही कहा गया
है----
उवभोगमिंदियेहिं दव्वामचेदणाणमिदराणं
।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं
णिज्जरणिमित्तं।193।।
सम्यग्दृष्टि
जीव के इंद्रियों के द्वारा जो चेतन अचेतन पदार्थों का उपभोग होता है वह निर्जरा
के निमित्त होता है । अहो !
सम्यग्दृष्टि जीव की कैसी उत्कृष्ट महिमा है कि उसके पूर्वबद्ध कर्म उदय में आ
रहें हैं उनके उदयकाल में होने वाला उपभोग भी हो रहा है परंतु उससे नवीन बंध नहीं
होता ।किंतु पूर्वबद्ध कर्म अपना फल देकर खिर जाते है । सम्यग्दृष्टि जीव कर्म
और कर्म के फल का भोक्ता अपने आप को नहीं मानता । उनका ज्ञायक तो होता है, परंतु
भोक्ता नहीं । भोक्ता अपने ज्ञायक स्वभाव का ही होता है । यही कारण है कि उसकी
वह प्रवृत्ति निर्जरा का कारण बनती है ।
सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और वैराग्य
की अद् भुत सामर्थ्य है । ज्ञान सामर्थ्य की महिमा बतलाते हुए कुंदकुंद स्वामी
ने कहा है कि जिस प्रकार विष का उपभोग करता हुआ वैद्य मरण को प्राप्त नहीं होता
उसी प्रकार ज्ञानी पुरूष पुद् गल कर्म के उदय का उपभोग करता हुआ बंध को प्राप्त
नहीं होता है । वैराग्य सामर्थ्य की महिमा बतलाते हुए कहा है कि जिस प्रकार अरति
भाव से मदिरा का पान करनेवाला मनुष्य मद को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार
अरतिभाव से द्रव्य का उपभोग करनेवाला ज्ञानी पुरूष बंध को प्राप्त नहीं होता । कैसी
अद् भुत महिमा ज्ञान और वैराग्य की है कि उसके होने पर सम्यग्दृष्टि जीव मात्र
निर्जरा को करता है, बंध को नहीं ।अन्य ग्रंथों मे इस अविद्या की निर्जरा का कारण
तपश्चरण कहा गया है, परंतु कुंदकुंद स्वामी ने तपश्चरण को यथार्थ तपश्चरण
बनानेवाला जो जीव और वैराग्य है उसी का प्रथम वर्णन किया है । ज्ञान और वैराग्य
के बिना तपश्चरण निर्जरा का कारण न होकर शुभ बंध का कारण होता है । ज्ञान और
वैराग्य से शून्य तपश्चरण के प्रभाव से यह जीव अनंत वार मुनिव्रत धारण कर नौवें
ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो जाता है परंतु उतने मात्र से संसार भ्रमण का अंत नहीं
होता ।
अब प्रश्न यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव के
क्या निर्जरा ही निर्जरा होती है?
बंध बिल्कुल नहीं होता? इसका उत्तर करणानुयोग की पद्धति से यह होता है
कि सम्यग्दृष्टि जीव के निर्जरा का होना प्रारंभ हो गया । मिथ्यादृष्टि जीव के
ऐसी निर्जरा आज तक नहीं हुई । किंतु सम्यग्दर्शन के होते ही वह ऐसी निर्जरा का
पात्र बन जाता है ।
‘समयग्दृष्टिविरतानन्तवियोजकददर्शनमोहक्षपकोपशमशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना:
क्रमशोऽसड्.ख्येगुणनिर्जरा:----’ आगम में गुणश्रेणि निर्जरा के दस स्थान बतलाये
हैं। इनमें निर्जरा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । सम्यग्दृष्टि जीव के निर्जरा और
बंध दोनों चलते है । निर्जरा के कारणों से निर्जरा होती है और बंध के कारणों से
बंध होता है । जहाँ बंध का सर्वथा अभाव
होकर मात्र निर्जरा ही निर्जरा होती है ऐसा तो सिर्फ चौदहवॉं गुणस्थान है । उसके
पूर्व चतुर्थ गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक निर्जरा और बंध दोनों चलते
हैं । यह ठीक है कि जैसे-जैसे यह जीव
उपरितन गुणस्थानो में चढ़ता जाता है वैसे-वैसे निर्जरा में वृद्धि और बंध में न्यूनता
होती जाती है । सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और वैराग्यशक्ति की प्रधानता हो जाती
है इसलिए बंध के कारणों की गौणता कर ऐसा कथन किया जाता है कि सम्यग्दृष्टि के
निर्जरा होती है, बंध नहीं । इसी निर्जराधिकार में कुंदकुंद स्वामी ने सम्यग्दर्शन
के आठ अंगों का विशद वर्णन किया है ।
यह अधिकार 193 से 236 गाथा तक चलता है ।
बंधाधिकार
आत्मा
और पौद्गलिक कर्म — दोनों ही स्वतंत्र द्रव्य हैं और दोनों में चेतन अचेतन की
अपेक्षा पूर्व-पश्चिम जैसा अंतर है । फिर भी इनका अनादिकाल से संयोग बन रहा । जिस
प्रकार चुंबक में लोहा को खींचने की और लोहा में खिंचने की योग्यता है उसी प्रकार
आत्मा में कर्मरूप पुद् गल को खींचने की और कर्मरूप पुद् गल में खिंचने की योग्यता
है । अपनी अपनी योग्यता के कारण दोनों का एकक्षेत्रावगाह हो रहा है । इसी
क्षेत्रावगाह को बंध कहते है । इस बंध दशा के कारणों का वर्णन करते हुए आचार्य ने
स्नेह अर्थात् रागभाव को ही प्रमुख कारण बतलाया है । अधिकार के प्रारंभ में ही वे
एक दृष्टांत देते हैं कि जिस प्रकार धूलिबहुल स्थान में कोई मनुष्य शस्त्रों
से व्यायाम करता है, ताड़ तथा केले आदि के वृक्षों को छेदता भेदता है, इस क्रिया
से उसका धूलि से संबंध होता है सो इस संबंध के होने में कारण क्या है ?
उस व्यायामकर्ता के शरीर में जो स्नेह--- तेल लग रहा है वही उसका कारण है। इसी
प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव, इंद्रियविषयों में व्यापार करता है, उस व्यापार के
समय जो कर्मरूपी धूलिका संबंध उसकी आत्मा के साथ होता है, उसका कारण क्या है?
उसका कारण भी आत्मा में विद्यमान स्नेह अर्थात् रागभाव है । यह रागभाव जीव का
स्वभाव नहीं किंतु विभाव है और वह भी द्रव्य कर्मों की उदयावस्थारूप कारण से
उत्पन्न हुआ है ।
आस्त्रवाधिकार में आस्त्रव के जो चार
प्रत्यय—मिथ्यादर्शन, अविरमण, कषाय और योग बतलाये हैं वे ही बंध के भी प्रत्यय—कारण
हैं । इन्हीं प्रत्ययों का संक्षिप्त नाम रागद्वेष अथवा अध्यवसान भाव है। इन
अध्यवसान भावों का जिनके अभाव हो जाता है वे शुभ अशुभ कर्मों के साथ बंध को
प्राप्त नहीं होते । जैसा कि कहा है ।
एदाणि णत्थि-जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि ।
ते
असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणे ण लिंपंति ।।270।।
मैं किसी की हिंसा करता हूँ तथा कोई
अन्य जीव मेरी हिंसा करते हैं । मैं किसी को जिलाता हूँ तथा कोई अन्य जीव मुझे
जिलाते हैं । मैं किसी को सुखदु:ख देता हूँ तथा कोई अन्य मुझे सुखदु:ख देते हैं--—यह
सब भाव अध्यवसान भाव कहलाते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव इन अध्यवसानभावों को कर कर्मबंध करता है और सम्यग्दृष्टि जीव उससे
दूर रहता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव बंध के इस वास्तविक कारण
को समझता है इसलिए वह उसे दूर कर निर्बंध
अवस्था को प्राप्त होता है परंतु मिथ्यादृष्टि जीव इस वास्तविक कारण को
समझ नहीं पाता इसलिए करोड़ों वर्ष की तपस्या के द्वारा भी वह निर्बंध अवस्था
प्राप्त नहीं कर पाता । मिथ्यादृष्टि जीव धर्मका आचरण — तपश्चरण आदि करता भी है
परंतु ‘धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं’ धर्म को भोग के निमित्त
करता है, कर्मक्षय के निमित्त नहीं ।।
अरे भाई
! सच्चा कल्याण यदि करना चाहता है तो अध्यवसानभावों
को समझ और उन्हें दूर करने का पुरूषार्थ कर ।
कितने ही जीव निमित्त की मान्यता से बचने
के लिए ऐसा व्याखान करते हैं कि आत्मा में रागादिक अध्यवसान स्वत: होते हैं,
उनमें द्रव्य कर्म की उदयावस्था निमित्त नहीं है । ऐसे जीवों को बंधाधिकार की
निम्न गाथाओं का मनन कर अपनी श्रद्धा ठीक करनी चाहिए—
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ
रायमाईहिं ।
रंगिज्जइ अण्णेहिं दु सो
रत्तादीहिं दव्वेहिं ।।278।।
एवं णाणी सुद्धो णयं परिणमइ
रायमाईहिं ।
राइज्जइ अण्णेहिं दु सो
रागादीहिं दोसेहिं ।।279।।
जेसे स्फटिकमणि आप शुद्ध है, वह स्वयं ललाई
आदि रंगरूप परिणमन नहीं करता किंतु लाल आदि द्रव्यों से ललाई आदि रंगरूप परिणमन
करता है । इसी प्रकार ज्ञानी जीव आप शुद्ध है, वह स्वयं राग आदि विभावरूप परिणमन
नहीं करता, किंतु अन्य राग आदि दोषों –द्रव्यकर्मोंदयजनित विकारों से रागादि
विभावरूप परिणमन करता है।
श्री अमृतचंद्र स्वामी ने भी कलशों के
द्वारा उक्त भाव प्रकट किया है---
न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति
यथार्ककान्त: ।
तस्मिन्निमित्तं परसड्.ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति
तावत् ।।175।।
जिस प्रकार अर्ककांत—स्फटिकमणि स्वयं
ललाई आदि को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार आत्मा स्वयं रागादि के निमित्त भाव
को प्राप्त नहीं होता, उसमें निमित्त परसंग ही है—आत्मा के द्वारा किया हुआ परका
संग ही है ।
ज्ञानी जीव स्वभाव और विभाव के अंतर को
समझता है । वह स्वभाव को अकारण मानता है और विभाव को सकारण मानता है । ज्ञानी जीव
स्वभाव में सवत्व बुद्धि रखता है और विभाव में परत्व बुद्धि । इसीलिए वह बंध से
बचता है ।
यह अधिकार 237 से लेकर 287 गाथा तक चलता
है।
मोक्षाधिकार
आत्मा की सर्वकर्म से रहित जो अवस्था है
उसे मोक्ष कहते हैं । मोक्ष शब्द ही इसके पूर्व रहनेवाली बद्ध अवस्था का प्रत्यय
कराता है । मोक्षाधिकार में मोक्षप्राप्ति के कारणों का विचार किया गया है ।
प्रारंभ में ही कुंदकुंद स्वामी लिखते हैं- जिस प्रकार चिरकाल से बंधन में पड़ा
हुआ पुरूष उस बंधन के तीव्र या मंद या मध्यमभाव को जानता है तथा उसके कारणों को
भी समझता है परंतु उस बंधन का – बेड़ी का छेदन नहीं करता है तो उस बंधन से मुक्त
नहीं हो सकता । इसी प्रकार जो जीव कर्मबंध के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग
बंध को जानता है तथा उनकी स्थिति आदि को भी समझता है परंतु उस बंध को छेदने का
पुरूषार्थ नहीं करता तो वह उस कर्मबंध से मुक्त नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में कुंदकुंद गस्वामी ने बड़ी उत्कृष्ट
बात कही है । मेरी समझ से वह उत्कृष्ट बात महाव्रताचरणरूप सम्यक् चारित्र है ।
हे जीव !
तुझे श्रद्धान है कि मैं कर्मबंधन से बद्ध हूँ और बद्ध होने के कारणों को भी जानता
है, परंतु तेरा यह श्रद्धान और ज्ञान तुझे कर्मबंध से मुक्त करनेवाला नहीं है ।
मुक्त करनेवाला तो यथार्थ श्रद्धान और ज्ञान के साथ होने वाला होने वाला सम्यक्
चारित्ररूप पुरूषार्थ ही है । जब तक तू इस पुरूषार्थ को अंगीकृत नहीं करेगा तब तक
बंधन से मुक्त होना दुर्भर है । मात्र ज्ञान और दर्शन को लिए हुए तेरा
सागरोंपर्यंत का दीर्घकाल योंही निकल जाता है पर तू बंधन से मुक्त नहीं हो पाता ।
परंतु उस श्रद्धान ज्ञान के साथ जहाँ
चारित्ररूपी पुरूषार्थ को अंगीकृत करता है वहाँ तेरा कार्य बनने में विलंब
नहीं लगता ।।
हे जीव!
तू मोक्ष किसका करना चाहता है ?
आत्मा का करना चाहता है । पर संयोगी पर्याय के अंदर तूने आत्मा को समझा या नहीं ?
इस बात का तो विचार कर । कहीं इस संयोगी पर्याय को ही तूने आत्मा नहीं समझ रक्खा
है ? मोक्षप्राप्ति का
पुरूषार्थ करने के पहले आत्मा और बंध को समझना आवश्यक है । कुंदकुंद स्वामी ने
कहा है ।
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति
सलक्खणेहिं णियएहिं ।
बंधो छेएदव्वो सुद्धो अप्पा
य घेत्तव्वो ।।295।।
जीव
और बंध अपने अपने लक्षणों से जाने जाते हैं सो जानकर बंध तो छेदने के योग्य है और
जीव --- आत्मा ग्रहण करने के योग्य है ।
शिष्य कहता है, भगवत् !
वह उपाय तो बताओ जिसके द्वारा मैं आत्मा का ग्रहण कर सकूँ । उत्तर में कुंदकुंद
महाराज कहते हैं ---
कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो
उ घिप्पए अप्पा ।
जह पण्णाइ विहत्तो तह पण्णा
एव घित्तव्वो ।।296।।
उस आत्मा का
ग्रहण कैसे किया जावे ?
प्रज्ञा ---- भेदज्ञान के द्वारा आत्मा
का ग्रहण किया जावे । जिस तरह प्रज्ञा से उसे विभक्त किया था उसी तरह उसे प्रज्ञा
से ग्रहण करना चाहिए ।
पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो
।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ
परेत्ति णायव्वा।।297।।
प्रज्ञा के
द्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो चेतयिता है वही मैं हूँ और अवशेष जो भाव हैं वे मुझसे
पर हैं । इस प्रकार स्वपर के भेदविज्ञानपूर्वक जो चारित्र धारण किया जाता है वही
मोक्षप्राप्ति का वास्तविक पुरूषार्थ है । मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की परिणति
को चारित्र कहते हैं । व्रत, समिति, गुप्ति आदि, इसी वास्वतिक चारित्र की
प्राप्ति में साधक होने से चारित्र कहे जाते हैं ।
यह अधिकार 288 से लेकर 307 गाथातक चलता है ।
सर्वविशुद्ध
ज्ञानाधिकार
आत्मा के अनंत गुणों में ज्ञान ही सबसे
प्रमुख गुण है । उसमें किसी प्रकार का विकार शेष न रह जावे, इसलिए पिछले अधिकारों
में उक्त अनुक्त बातों का एक बार फिर से विचार कर ज्ञान को सर्वथा निर्दोष बनाने
का प्रयत्न इस सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार में किया गया है ।
‘आत्मा परद्रव्य के कर्तृत्व से रहित है’
इसके समर्थन में कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने ही गुण-पर्यायरूप परिणमन
करता है, अन्य द्रव्यरूप नहीं, इसलिए वह परका कर्ता नहीं हो सकता, अपने ही गुण
और पर्यायों का कर्ता हो सकता है । यही
कारण है कि आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है कर्मों का कर्ता पुद् गल द्रव्य है क्योंकि
ज्ञानावरणादि रूप परिणमन पुद् गल द्रव्य में ही हो रहा है । इसी तरह रागादिकका
कर्ता आत्मा ही है, परद्रव्य नहीं, क्योंकि रागादिरूप परिणमन आत्मा ही करता
है। निमित्तप्रधान दृष्टि को लेकर पहले अधिकार में पुद् गलजन्य होने के कारण
रागको पौद् गलिक कहा है । यहाँ उपादानप्रधान दृष्टि को लेकर कहा गया है कि चूँकि
रागादिरूप परिणमन आत्मा का होता है, अत: आत्मा के है । अमृतचंद्रसूरिने तो यहाँ
तक कहा है कि जो जीव रागादि की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्त मानते हैं
वे ’शुद्धबोधविधुरांधबुद्धि’ हैं तथा मोहरूपी नदी को नहीं तैर सकते –
रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव
कलयन्ति ये तु ते।
उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं
शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धय:।।221।।
कितने ही महानुभाव अपनी एकान्त उपादान की मान्यता का समर्थन करने के लिए
इस कलश का अवतरण दिया करते हैं पर वे श्लोक में पड़े हुए ‘एव’ शब्द की ओर
दृष्टिपात नहीं करते । यहाँ अमृतचंद्रसूरि ‘एव’ शब्द के द्वारा यह प्रकट कर रहे
हैं कि जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही कारण मानते हैं, स्वद्रव्य को
नहीं मानते वे मोहनदी को नहीं तैर सकते । रागादिक की उत्पत्ति में परद्रव्य
निमित्त कारण है और स्वद्रव्य उपादान कारण है । जो पुरूष स्वद्रव्यरूप उपादान
कारण न मानकर परद्रव्य को ही कारण मानते हैं--- मात्र निमित्त कारण से ही उनकी
उत्पत्ति मानते हैं वे मोहनदी को नहीं तैर सकते । यह ठीक है कि निमित्त, कार्यरूप
परिणत नहीं होता परंतु कार्य की उत्पत्ति में उसका साहाय्य अनिवार्य आवश्यक है ।
अंतरंग बहिरंग कारणों से कार्य की उत्पत्ति होती है, यह जिनागम की सनातन मान्यता
है । यहाँ जिस निमित्त के साथ कार्य का अन्वय व्यतिरेक रहता है वही निमित्त शब्द
से विवक्षित है इसका ध्यान रखना चाहिए ।
आत्मा पर का --- कर्म का कर्ता नहीं है,
यह सिद्ध कर जीव को कर्मचेतना से रहित सिद्ध किया गया है । इस तरह ज्ञानी जीव अपने
ज्ञायक स्वभाव का ही भोक्ता है, कर्मफल का भोक्ता नहीं है, यह सिद्ध कर उसे
कर्मफलचेतना से रहित सिद्ध किया गया है । ज्ञानी तो एक ज्ञानचेतना से ही सहित है,
उसी के प्रति उसकी स्वत्वबुद्धि रहती है ।
इस अधिकार के अंत में एक बात और बड़ी सुंदर
कही गयी है । कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कि कितने ही लोग मुनिंलिग अथवा गृहस्थ के
नाना लिंग धारण करने की प्रेरणा इसलिए करते हैं कि ये मोक्षमार्ग हैं, परंतु कोई
लिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है, मोक्ष का मार्ग तो सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान और
सम्यक्चारित्र की एकता है । इसलिए-----
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेति तं चेव झाहि तं चेया ।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु
।।412।।
मोक्षमार्ग
में आत्मा को लगाओ, उसीका ध्यान करो, उसी का चिंतन करो और उसमें विहार करो । अन्य
द्रव्यों में नहीं ।
इस निश्चयपूर्ण कथन का कोई यह फलितार्थ न
निकाल ले कि कुंदकुंद स्वामी मुनिलिंग और श्रावकलिंग का निषेध करते हैं । इसलिए
वे लगे हाथ अपनी नयविवक्षाको प्रकट करते है---
ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणइ
मोक्खपहे ।
णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।414।।
परंतु व्यवहार
नय दोनों नयों को मोक्षमार्ग में कहता है और निश्चय नय मोक्षमार्ग मे सभी लिंगों
को इष्ट नहीं मानता ।
इस तरह विवाद के स्थलों को कुंदकुंद स्वामी
तत्काल स्पष्ट करते हुए चलते हैं । जिनागम का कथन नयविवक्षा पर अवलंबित है, यह
तो सर्वसम्मत बात है, इसलिए व्याख्यान करते समय वक्ता अपनी नयविवक्षा को प्रकट
करता चलें और भोक्ता (श्रोता ?)
भी उस नयविवक्षा से व्याख्यात तत्त्व को उसी नयविवक्षा से ग्रहण करने का प्रयास
करें तो विसंवाद होने का अवसर ही नहीं आवे । यह अधिकार 308 से लेकर 415 गाथा तक
चलता है ।
स्याद्वादाधिकार
और उपायोपेय भावाधिकार
ये
अधिकार अमृतचंद्र स्वामी ने स्वरचित आत्मख्याति टीका के अंगरूप लिखे हैं ।
इतना स्पष्ट है कि समयप्राभृत या समयसार
अध्यात्म ग्रंथ है । अध्यात्म ग्रंथों का वस्तुतत्त्व सीधा आत्मा से संबंध
रखने वाला होता है । इसलिए उसके कथन में निश्चयनय का आलंबन प्रधानरूप से लिया
जाता है । परपदार्थ से संबंध रखनेवाले व्यवहारनय का आलंबन गौण रहता है । जो
श्रोता दोनों नय के प्रधान और गौण भावपर दृष्टि नहीं रखते उन्हें भ्रम हो सकता है
। उनके भ्रम का निराकरण करने के उद्देश्य से ही अमृतचंद स्वामी ने इन अधिकारों
का अवतरण किया है ।
स्याद्वाद अधिकार में उन्होंने स्याद्वाद
के वाच्यभूत अनेकान्त का समर्थन करने के लिए तत्-अतत्-सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य
-अनित्य आदि अनेक नयों से आत्मतत्त्व का
निरूपण किया है । अंत में कलशकव्यों के द्वारा इसी बात का समर्थन किया है ।
अमृतचंद्र स्वामी ने अनेकान्त को परमागम का जीव – प्राण और समस्त नयों के विरोध
को नष्ट करनेवाला माना है । जैसा कि उन्होंने स्वरचित ‘पुरूषार्थसिद्ध्युपाय ’
ग्रंथ के मंगलाचरण में कहा है—
परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम्
।
सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्त्म्
।।2।।
आत्मख्याति
टीका के प्रारंभ में भी उन्होंने यही आकांक्षा प्रकट की है—
अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मन:।
अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव
प्रकाशताम्।।2।।
अनेक धर्मात्मक
परमांत्मतत्त्व के स्वरूप का अवलोकन करनेवाली अनेकान्तमयी मूर्ति निरंतर ही
प्रकाशमान रहे ।
इसी अधिकार
में उन्होंने जीवत्वशक्ति , चितिशक्ति आदि 47 शक्तियों का निरूपण किया है जो
नयविवक्षा के परिज्ञान से ही सिद्ध होता है ।
उपायोपेयाधिकार में उपायोपायभाव की चर्चा
की गयी है, जिसका सार यह है –
पानेयोग्य वस्तु जिससे प्राप्त की जा
सकती है वह उपाय है और उस उपाय के द्वारा जो वस्तु प्राप्त की जा सकती है वह
उपेय है । आत्मारूप वस्तु यद्यपि ज्ञानमात्र वस्तु है तो भी उसमें उपायोपेय भाव
विद्यमान है । क्योंकि उस आत्मवस्तु के एक होने पर भी उसमें साधक और सिद्ध के
भेद से दोनों प्रकार का परिणाम देखा जाता है अर्थात् आत्मा ही साधक है और आत्मा
ही सिद्ध है । उन दोनों परिणामों में जो साधकरूप है वह उपाय कहलाता है और जो
सिद्धरूप है वह उपेय कहलाता है । यह आत्मा अनादिकाल से मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र
के कारण संसार में भ्रमण करता है । जब तक व्यवहार रत्नत्रय को निश्चलरूप से
अंगीकार कर अनुक्रम से अपने स्वरूपानुभव की वृद्धि करता हुआ निश्चय रत्नत्रय की
पूर्णता को प्राप्त होता है तब तक तो साधकभाव है और निश्चय रत्नत्रय की पूर्णता
से समस्त कर्मों का क्षय होकर जो मोक्ष प्राप्त होता है वह सिद्धभाव है । इन
दोनों भावरूप परिणाम ज्ञान का ही है, इसलिए वही उपाय है और वही उपेय है । यह गुण
की प्रधानता से कथन है ।
कुन्दकुन्द भारती की भूमिका से साभार ....
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