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भगवान् महावीर की मूल वाणी : षट्खण्डागम

 

णमो जिणाणं

 भगवान् महावीर की मूल वाणी : षट्खण्डागम

प्रो.डॉ. अनेकान्त कुमार जैन

 जैनदर्शन विभाग ,दर्शन संकाय,

श्री लाल बहादुर शास्त्रीराष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ,क़ुतुब सांस्थानिक क्षेत्र,नई दिल्ली ११००१६

anekant76@gmail.com

 

सामान्य रूप से आप्त के वचन को आगम कहा जाता है | आप्त के वचनादि से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहते हैं।[1]वास्तव में आगम ज्ञान रूप हैं जो शब्दों के माध्यम से हमें प्राप्त होते हैं | कारण में कार्य का उपचार कर देने से संक्षेप में आप्त के वचन को आगम कह दिया जाता है |  आगम और आगमज्ञान की विशेष महिमा है । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘‘आगम चक्खू साहू’’ अर्थात् साधु को आगम चक्षु कहा है क्योंकि हम अपने चर्मचक्षुओं से तो मात्र सीमित बाह्य स्थूल पदार्थों को ही देख सकते हैं किन्तु आगम रूपी चक्षुओं के द्वारा परोक्षरूप में सूक्ष्म, देश-कालांतरित उन सभी असीमित पदार्थों आदि का ज्ञान संभव है, जिन्हें केवलज्ञानी प्रत्यक्षरूप में जानते देखते हैं। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कह दिया कि आगम ज्ञान के बिना तत्त्व-श्रद्धापूर्वक ज्ञान, इसके बिना संयम तथा इस संयम के बिना निर्वाण प्राप्ति संभव नहीं है।[2] किन्तु वह आगम कौन है ? इस संबंध में उन्होंने नियमसार में स्पष्ट किया है कि ‘‘यथार्थ आगम उसे समझना चाहिए, जो वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया हो तथा पूर्वापर-विरोध आदि दोषों से रहित हो।[3] आगम का यही लक्षण सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है।

आगम, सिद्धान्त और प्रवचन- इन तीनों शब्दों का अर्थ एक ही है।[4] षट्खण्डागम में निर्दिष्ट श्रुतज्ञान के इकतालीस पर्यायवाची नामों में ‘‘प्रवचन’’ नाम भी है | [5] धवला टीका में ‘‘पूर्वापर विरोधादि दोषों से रहित, निरवद्य अर्थ के प्रतिपादक प्रकृष्ट शब्द-कलाप को ‘‘प्रवचन’’ कहा गया है।[6] इसी टीका में आगे वर्ण-पंक्ति स्वरूप द्वादशांग श्रुत को तथा प्रकारान्तर से द्वादशांग भावश्रुत को ‘‘प्रवचन’’ शब्द से अभिहित किया है। षट्खण्डागम भी प्रवचन रूप आगमिक सिद्धान्त ग्रंथ है। परमागमरूपता को प्राप्त यह सिद्धान्त ग्रंथ मुमुक्षु भव्यजनों को मोक्षमार्ग में प्रवृत्त कराने वाला एक अपूर्व साधन है। इसलिए पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचंदसूरि ने ‘‘लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन’’ कहकर परमागम को तीन लोकों का अद्वितीय नेत्र घोषित किया है।[7]

क्या गृहस्थ को आगम पढना चाहिए ?

कुछ विद्वानों के कथनों के आधार पर कुछ लोगों की यह धारणा रही है कि गृहस्थों को सिद्धान्त-ग्रंथों के रहस्य के अध्ययन का अधिकार नहीं है किन्तु आ. वीरसेन स्वामी ने इसी षट्खण्डागम में ‘‘तम्हा मोक्खवंâखिणा भवियलोएण अब्भसेयत्वो’’ कहकर सामान्यत: सभी मुमुक्षु भव्य जीवों को इस षट्खण्डागम के अध्ययन की प्रेरणा की है।[8] इसी विषय को और भी स्पष्ट करते हुए पं. बालचंद जी सिद्धान्त शास्त्री ने लिखा है कि ‘‘धवलाकार ने मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिए जो प्रस्तुत षट्खण्डागम के अभ्यास के लिए प्रेरित किया है, वह कितना महत्त्वपूर्ण है, यह विचार करने की बात है। षट्खण्डागम और कसायपाहुड़ जैसे महत्वपूर्ण कर्मग्रंथों के अभ्यास के बिना मुमुक्षु भव्यजीव द्वारा कर्मबंध क्या है तथा कितने प्रकार का है? आत्मा के साथ उन पुण्य-पाप कर्मों का संबंध किन कारणों से हुआ? और वे कौन से कारण हैं कि जिनके आश्रय से उन कर्मों का क्षय किया जा सकता है तथा जीव का स्वभाव क्या है? इत्यादि प्रकार से संसार व मोक्ष के कारणों को जब तक नहीं समझा जायेगा तब तक मोक्ष की प्राप्ति भी संभव नहीं है। इसीलिए धवलाकार ने भी सभी मुमुक्षु जनों से सिद्धान्तग्रंथों के अभ्यास की प्रेरणा की है।[9]

दिगंबर आगम परंपरा

दिगम्बर परंपरा की मान्यतानुसार षट्खंडागम और कषायप्राभृत ही ऐसे ग्रंथ हैं जिनका सीधा सम्बन्ध महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से है। शेष जब श्रुतज्ञान इससे पूर्व ही क्रमश: लुप्त व छिन्न भिन्न हो गया। इनमें से बारहवें अंग को छोड़कर शेष सब ही नामों के अंगग्रंथ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जब भी पाये जाते हैं। यह बात जानने योग्य है कि जो ग्यारह अंग श्वेताम्बर साहित्य में हैं वे दिगम्बर साहित्य में नहीं हैं और जिस बारहवें अंग का श्वेताम्बर साहित्य में सर्वथा अभाव है वही दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग प्रस्तुत सिद्धान्त ग्रंथों का उद्गम स्थान है। बारहवें दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पांच प्रभेद हैं। इनमें से पूर्वगत के चौदह भेदों में  द्वितीय आग्रायणीय पूर्व से ही जीवट्ठाण का बहुभाग और शेष पांच खंड संपूर्ण निकले हैं।

षट्खण्डागम –

प्रथम शती के जैनाचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने अपने विद्यागुरु आचार्य धरसेन से प्राप्त आगमज्ञान के आधार पर ‘‘षट्खण्डागम (छक्खंडागम) नामक महान् आगम ग्रन्थरत्न की रचना शौरसेनी प्राकृत भाषा में की। आचार्य धरसेन ने पुष्पदन्त और भूतबलि को पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्राप्त वह ज्ञान दिया जिनकी परम्परा भगवान् महावीर स्वामी तक पहुँचती है। पुष्पदन्ताचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित मुनि को पढ़ाकर अनन्तर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा। भूतबलि ने जिनपालित के द्वारा दिखाये गये सूत्रों को देखकर और पुष्पदन्ताचार्य अल्पायु हैं, ऐसा समझकर तथा हम दोनों के बाद महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद हो जायेगा; इस प्रकार की बुद्धि के उत्पन्न होने से भगवान भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रंथ रचना की। इसलिए इस खण्ड सिद्धान्त (षट्खण्ड सिद्धान्त) की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदन्त आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं।

 पुष्पदन्त और भूतबलि ने भी उन्हीं आगम सिद्धान्तों को लिखा जो धरसेनाचार्य से प्राप्त हुआ था और धवला टीकाकार ने भी उनका विवेचन पूर्व मान्यताओं और पूर्व आचार्यों के अनुसार ही किया है जैसा कि उनकी टीका में स्थान स्थान पर प्रकट है। पुष्पदन्त व भूतबलि की रचना तथा उस पर वीरसेन की टीका इसी पूर्व परम्परा की मर्यादा को लिये हुए है |

इस आगम में निम्नलिखित छह भाग हैं -

१. जीवट्ठाण (जीवस्थान),२. खुद्दाबंध (क्षुल्लक बंध),३. बंधसामित्त विचय (बंध स्वामित्व विचय),४. वेयणा (वेदना),५. वग्गणा (वर्गणा) और ६. महाबंध।

आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला टीका (पुस्तक १. पृ.४) में इस आगम को खंडसिद्धांत अर्थात् खण्डसिद्धान्त कहा है। खण्डसिद्धान्त से तात्पर्य जीवट्ठाण आदि छह खण्डों में विभक्त यह आगम गंथ सम्पूर्ण नहीं, अपितु विशाल महाकर्म प्रकृति प्राभृतआगम के उपसंहार स्वरूप इसका कुछ ही अंश है। इस स्थिति में इसे खण्डसिद्धान्त ही कहा जा सकता है। क्योंकि इसे षट्खण्डागम में महाकर्म प्रकृति प्राभृत के चौबीस अनुयोगद्वारों में से मात्र कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बंधन, इन आरंभिक छह अनुयोग द्वारों की प्ररूपणा की गई है। शेष अट्ठारह अनुयोग द्वारों की प्ररूपणा धवला में स्वयं वीरसेनाचार्य ने की है।

पूर्वोक्त छहखण्डों में से प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा सूत्रों के रचयिता आ. पुष्पदंत हैं तथा दूसरे खण्ड से लेकर छठे खण्ड तक की रचना आचार्य भूतबलि ने की है। उन्होंने आचार्य पुष्पदन्त रचित सूत्रों को मिलाकर पाँच खण्डों के छह हजार सूत्रों की तथा छठे महाबंध खण्ड के तीस हजार सूत्रों की रचना की। इस प्रकार अनुयोग द्वार के अन्तर्गत षट्खण्डागम एवं पाहुड़ों की रचना की गई।

षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड ‘‘जीवट्ठाण’’ में चौदह गुणस्थानों तथा चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारा जीव का कथन किया गया है। दूसरे खण्ड खुद्दाबंध में ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्म का बंध करने वाले जीव का वर्णन है। तीसरे खण्ड में मार्गणाओं की अपेक्षा किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियाँ बँधती हैं, कितनी बंध व्युच्छित्ति होती है, इत्यादि सविस्तार वर्णन मिलता है। चतुर्थ खण्ड में ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाववेदना, प्रत्यय स्वामित्व वेदना तथा गति, अनन्तर, सन्निकर्ष, परिमाण, भागाभाग, अल्पबहुत्व का कथन है। वर्गणा नामक पाँचवे खण्ड में कर्म-प्रकृतियों तथा पुद्गल की तेईस प्रकार की वर्गणाओं का विस्तार से कथन है। छठे महाबंध-खण्ड का मूलाधार बंधन नामक अर्थाधिकार है, जिसमें बन्धत्व का प्रमुखता से विवेचन किया गया है। बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान-बंधन के इन चार अर्थाधिकारों का क्रमबद्ध विवेचन किया गया है।

धरसेनाचार्य, पुष्पदंत और भूतबलि की महिमा –

पुष्पदन्त और भूतबलि का नाम साथ-साथ प्राप्त होता है। फिर भी नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में पुष्पदंत को भूतबलि से ज्येष्ठ माना गया है। धरसेनाचार्य के बाद पुष्पदंत का आचार्य काल ३० वर्ष का बताया है और इनके बाद भूतबलि का २० वर्ष कहा गया है अत: इनका समय धरसेनाचार्य के समय के लगभग ही स्पष्ट है। धरसेनाचार्य ने दो मुनियों को अन्यत्र मुनिसंघ से बुलाकर विद्याध्ययन कराया था। अनन्तर शास्त्रसमाप्ति के दिन उनकी विनय से संतुष्ट हुए भूतजाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक मुनि की पुष्प, बलि तथा शंख और सूर्य जाति के वाद्य विशेषों के नाद से बड़ी भारी पूजा की, उसे देखकर धरसेनाचार्य ने उनका ‘‘भूतबलि’’ यह नाम रखा और दूसरे मुनि की अस्त-व्यस्त दंत पंक्तियों को ठीक करके उनके दाँत समान कर दिये-जिससे गुरु ने उनका ‘‘पुष्पदन्त’’ यह नाम रखा।[10]

 श्री धरसेनाचार्य, पुष्पदंत और भूतबलि के विषय में धवला में अनेक विशेषताएँ उपलब्ध हैं। यथा-

जयउ धरसेणणाहो, जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।

बुद्धिसिरेणुद्धरिओ, समप्पिओ पुप्फयन्तस्स।।[11]

अर्थात् वे धरसेन स्वामी जयवन्त होवें, जिन्होंने महाकर्म प्रकृति-प्राभृतरूपी पर्वत को अपने बुद्धिरूपी मस्तक से उठाकर पुष्पदंत को समर्पित किया है।

पणमामि पुप्फयंतं, दुकयंतं दुण्णयंधयाररविं।

भग्गसिवमग्गकंटय-मिसिसमिइवइं सया दंतं।।[12]

अर्थात् जो पापों का अन्त करने वाले हैं, कुनयरूपी अंधकार का नाश करने के लिए सूर्यतुल्य हैं, जिन्होंने मोक्षमार्ग के विघ्नों को नष्ट कर दिया है, जो ऋषियों की सभा के अधिपति हैं और निरन्तर पंचेन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, ऐसे पुष्पदन्ताचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ। यहाँ पर ‘‘ऋषिसमितिपति’’ विशेषण से ये महान् संघ के नेता आचार्य सिद्ध होते हैं। ऐसे ही-

‘‘ण चासंबद्धं भूतबलिभडारओ परूवेदि महाकम्मपयडिपाहुड-अमियवाणेण ओसारिदा णंसरागदोसमोहत्तादो।’’[13]

अर्थात् भूतबलि भट्टारक असंबद्ध कथन नहीं कर सकते, क्योंकि महाकर्म प्रकृति प्राभृतरूपी अमृतपान से उनका समस्त रागद्वेष मोह दूर हो गया है। इन प्रकरणों से इन पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों की महानता का परिचय मिल जाता है। ये आचार्य हम और आप जैसे साधारण लेखक या वक्ता न होकर भगवान महावीर की द्वादशांग वाणी के अंशों के आस्वादी और उस वाणी के ही प्ररूपक थे तथा राग, द्वेष और मोह से बहुत दूर थे। उनके संज्वलन कषाय का उदय होते हुए भी वे असत्यभाषण से सर्वथा परे होने से वीतरागी थे, महान् पापभीरू थे।

टीकायें –

ईसा की नौवीं शती के पूर्वार्ध में आचार्य वीरसेन स्वामी ने इस महान् परमागम ग्रंथ पर ‘‘धवला’’ नामक बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण टीका मणिप्रवाल शैली में प्राकृत एवं संस्कृत इन दोनों भाषाओं के मिश्रित रूप में लिखी। यद्यपि इस ग्रंथ पर धवला टीका के पूर्व भी अनेक टीकाओं के लिखे जाने के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु वे उपलब्ध नहीं हैं। डॉ. हीरालाल जैन सहित बीसवीं सदी के अनेक विद्वानों ने इस विशाल ‘‘धवला’’ टीका का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया, जो सोलह खण्डों में प्रकाशित है। इस सबके उपरान्त बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवी सदी के प्रारंभ में इस परमागम पर ‘‘सिद्धान्त चिन्तामणि’’ नामक संस्कृत भाषा में विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित महत्त्वपूर्ण टीका भी सामने आयी है । विदुषी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद कर इस गंभीर टीका के रहस्य को उद्घाटित करके सहज-सरल शैली में प्रस्तुत किया है।

यह हमारे कोई महा पुण्य का उदय है जो भगवान् महावीर की साक्षात वाणी स्वरुप पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों द्वारा शास्त्ररूप से निबद्ध हुआ परमागम आज हमें उपलब्ध हो रहा है |

वर्तमान में हमारा दायित्व

         आज देखने में यह आ रहा है कि लोग षट्खण्डागम पढ़ना तो दूर उससे भलीभांति परिचित भी नहीं हैं | यह अमूल्य ग्रन्थ भारतीय ज्ञान विज्ञान की भी एक अमूल्य धरोहर है | हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि देश विदेश में जितने भी जैन मंदिर हैं ,या पुस्तकालय,वाचनालय.या स्वाध्याय केंद्र हैं उनमें से एक भी केंद्र ऐसा नहीं होना चाहिए जहाँ शास्त्र भण्डार में षट्खण्डागम न हो | कितने बलिदानों और समर्पणों के बाद यह मूल आगम जो कि भगवान् महावीर कि मूल वाणी है आज थोड़ी बहुत बच पाई है ,तो क्या हम इतना भी नहीं कर सकते कि इसकी एक प्रति हमारे जिनालय में अवश्य उपलब्ध हो | श्रुत पञ्चमी कि यही सार्थकता है कि इस दिन हम इसी ग्रन्थ को साक्षात् सामने रखकर इसकी पूजन करें और इसका स्वाध्याय भी प्रारंभ करें |



[1] आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः।-परीक्षामुख  ३/९९

[2] प्रवचनसार ,गाथा ३/३७

[3] तस्स मुहग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं।

आगमिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ।।-नियमसार ,गाथा -८

[4] आगमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो । – धवला, पुस्तक संख्या १/१,,१/२०/७

[5] षट्खण्डागम ,सूत्र ५,,५०

[6] धवला टीका ,पुस्तक १३, पृष्ठ २८०, २८३ तथा पु. ८ पृ. ९०,तथा

पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहते।

द्योतकः सर्वभावनामाप्तव्याहतिरागमः ।।९।। -धवला टीका पुस्तक संख्या ३/१,,२/९,११/१२

[7] पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय १-३

[8] षट्खण्डागम पु. ९ पृ. १३३

[9] षट्खण्डागम परिशीलन ग्रंथ की पीठिका ,पृ. ११

[10] डॉ हीरालाल जैन ,षट्खण्डागम की शास्त्रीय भूमिका ,पृष्ठ ३२

[11] धवला,अ.४७५

[12] धवला पुस्तक १ ,पृष्ठ ७

[13] धवला पुस्तक १० ,पृष्ठ २७४-२७५

 

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