*महाविघ्न पक्षपात*
धर्म के प्रयोजन व महिमा को जानने या सीखने संबंधी बात चलती है अर्थात धर्म संबंधी शिक्षण की बात है, वास्तव में यह जो चलता है इसे प्रवचन ना कहकर शिक्षण क्रम नाम देना अधिक उपयुक्त है । किसी भी बात को सीखने या पढ़ने में क्या-क्या बाधक कारण होते हैं ? उनकी बात है । पांच कारण बताए गए थे ,उनमें से चार की व्याख्या हो चुकी है, जिस पर से यह निर्णय कराया गया कि यदि धर्म का स्वरूप जानना है और उससे कुछ काम लेना है तो
1. उसके प्रति बहुमान व उत्साह उत्पन्न कर
2. निर्णय करके यथार्थ वक्ता से उसे सुन
3. अक्रम से न सुनकर 'क' से 'ह' तक क्रम पूर्वक सुन 4. धैर्य धारकर बिना चूक प्रतिदिन महीनों तक सुन ।
अब पांचवें बाधक कारण की बात चलती है वह है वक्ता व श्रोता का पक्षपात ।
वास्तव में यह पक्षपात बहुत घातक है इस मार्ग में ।
यह उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता कारण पहले बताया जा चुका है । पूरा वक्तव्य क्रम पूर्वक ना सुनना ही उस पक्षपात का मुख्य कारण है । 'थोड़ा जानकर मैं बहुत कुछ जान गया हूं'- ऐसा अभिमान अल्पज्ञ जीवो में अक्सर उत्पन्न हो जाता है जो आगे जाने की उसे आज्ञा नहीं देता ।
वह जो मैंने जाना तो ठीक है तथा जो दूसरों ने जाना तो झूठ है और दूसरा भी जो मैंने जाना तो ठीक था जो आपने जाना सो झूठ ।
इस एक अभिप्राय को धार परस्पर लड़ते हैं शास्त्रार्थ करते हैं वाद विवाद करते हैं उस वाद-विवाद को सुनकर कुछ उसकी रुचि के अनुकूल व्यक्ति उसके पक्ष का पोषण करने लगते हैं तथा दूसरे की रुचि के अनुकूल व्यक्ति दूसरे के पक्ष का । उसके अतिरिक्त कुछ साधारण व भोले व्यक्ति भी जो उसकी बात को सुनते हैं , उसके अनुयाई बन जाते हैं और जो दूसरे की बात को सुनते हैं वह दूसरे के बिना इसको जाने कि इन दोनों में से कौन क्या कह रहा है और इस प्रकार निर्माण हो जाता है संप्रदायों का ।
जो वक्ता की मृत्यु के पश्चात भी परस्पर लड़ने में ही अपना गौरव समझते हैं और हित का मार्ग न स्वयं खोज सकते हैं और ना दूसरे को दर्शा सकते हैं ।
मजे की बात यह है कि यह सब लड़ाई होती है धर्म के नाम पर ।
यह दुष्ट पक्षपात कई जाति का होता है उनमें से मुख्य दो जाति हैं - एक अभिप्राय का पक्षपात तथा दूसरा शब्द का पक्षपात ।
अभिप्राय का पक्षपात तो स्वयं वक्ता तथा उसके श्रोता दोनों के लिए घातक और शब्द का पक्षपात केवल श्रोताओं के लिए क्योंकि इस पक्षपात में वक्ता का अपना अभिप्राय तो ठीक रहता है पर बिना शब्दों के प्रगट हुए श्रोता बेचारा कैसे जान सकेगा उसके अभिप्राय को ?
अतः वह अभिप्राय में भी पक्षपात धारण करके स्वयं वक्ता के अंदर में पड़े हुए अनुक्त अभिप्राय का भी विरोध करने लगता है ।
यदि विषय को पूर्ण सुन व समझ लिया जाए तो कोई भी विरोध अभिप्राय शेष ना रह जाने के कारण पक्षपात को अवकाश नहीं मिल सकता इस पक्षपात का दूसरा कारण है श्रोता की अयोग्यता ।
उसकी स्मरण शक्ति की हीनता, जिसके कारण कि सारी बात सुन लेने पर भी बीच-बीच में कुछ-कुछ बात तो याद रह जाती है उसे और कुछ कुछ भूल जाता है वह और इस प्रकार एक अखंड धारावाही अभिप्राय खंडित हो जाता है उसके मन में ।
फल वही होता है जो कि अक्रम रूप से सुनने का है। पक्षपात का तीसरा कारण है व्यक्ति विशेष के कुल में परंपरा से चली आई कोई मान्यता या अभिप्राय ।
इस कारण का तो कोई प्रतिकार ही नहीं है, भाग्य से ही कदाचित प्रतिकार बन जाए तथा अन्य भी अनेकों कारण हैं ।जिनका विशेष विस्तार करना यहां ठीक सा नहीं लगता ।
हमें तो यह जानना है कि निज कल्याणार्थ धर्म का स्वरूप कैसे समझें ? धर्म का स्वरूप जानने से पहले इस पक्षपात को तिलांजलि देकर यह निश्चय करना चाहिए, कि धर्म संप्रदाय की चारदीवारी से दूर किसी स्वतंत्र दृष्टि में उत्पन्न होता है, स्वतंत्र वातावरण में पलता है व स्वतंत्र वातावरण में ही फल देता है । यद्यपि संप्रदायों को आज धर्म के नाम से पुकारा जाता है परंतु वास्तव में यह भ्रम है , पक्षपात का विषैला फल है ,संप्रदाय कोई भी क्यों ना हो धर्म नहीं हो सकता । संप्रदाय पक्षपात को कहते हैं और धर्म स्वतंत्र अभिप्राय को कहते हैं । जिसे कोई भी मनुष्य किसी भी संप्रदाय में उत्पन्न हुआ हो छोटा या बड़ा गरीब या अमीर यहां तक कि तिर्यंच भी सब धारण कर सकते हैं , जबकि संप्रदाय इसमें अपनी टांग अड़ा कर किसी को धर्म पालन का अधिकार देता है और किसी को नहीं देता । आज के जैन संप्रदाय का धर्म भी वास्तव में धर्म नहीं है संप्रदाय है, एक पक्षपात है , इसके अधीन क्रियाओं में ही कूप मंडूक बन कर वर्तने में कोई हित नजर नहीं आता ।
......... इस भाव का आधार है गुरु का पक्षपात अर्थात् जिनवाणी की बात ठीक है , क्योंकि मेरे गुरु ने कही है और यह बात झूठ है क्योंकि अन्य के गुरु ने कही है । यदि जिनवाणी की बात को भी युक्ति व तर्क द्वारा स्वीकार करने का अभ्यास किया होता तो यहां भी उसी अभ्यास का प्रयोग करते । यदि कुछ बात ठीक बैठ जाती तो स्वीकार कर लेते, नहीं तो नहीं । इसमें क्षोभ की क्या बात थी ?
बाजार में जाएं, अनेक दुकानदार आपको अपनी और बुलाएं , आप सबकी ही तो सुन लेते हैं । किसी से सौदा पटा तो ले लिया और नहीं पता तो आगे चल दिए । इसी प्रकार यहां क्यों नहीं होता ?
बस इस अनदेखस के भाव को टालने की बात कही जा रही है । मार्ग के प्रति जो तेरी श्रद्धा है उसका निषेध नहीं किया जा रहा है । युक्ति व तर्क पूर्वक समझने का अभ्यास हो तो सब बातों में से तथ्य निकाला जा सकता है । भूल भी कदापि नहीं हो सकती । यदि श्रद्धा सच्ची है तो उसमें बाधा भी नहीं आ सकती । (अन्य गुरुओं की ) सुनने से डर क्यों लगता है परंतु क्योंकि 'मेरे गुरु ने कहा है इसलिए सत्य है' तेरे अपने कल्याण अर्थ इस बुद्धि का निषेध किया जा रहा है ।
वैज्ञानिकों का यह मार्ग नहीं है वे अपने गुरु की बात को भी बिना युक्ति के स्वीकार नहीं करते । यदि अनुसंधान या अनुभव में कोई अंतर पड़ता प्रतीत होता है तो युक्ति द्वारा ग्रहण की हुई को भी नहीं मानते हैं । बस तत्व की यथार्थता को पकड़ना है तो इसी प्रकार करना होगा । गुरु के पक्षपात से सत्य का निर्णय ही ना हो सकेगा । अनुभव तो दूर की बात है । अपनी दही को मीठी बताने का नाम सच्ची श्रद्धा नहीं है । वास्तव में मीठी हो तथा उसके मिठास को चखा हो तब उसे मीठी कहना सच्ची श्रद्धा है ।(पृष्ठ 11)
क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ,
शांति पथ प्रदर्शक ,पृष्ठ 9-11
Comments
Post a Comment