धर्म कर्म की जीवन में आवश्यकता ही क्या है ? जीवन के लिए यह कुछ उपयोगी तो भासता नहीं , यदि बिना किसी धार्मिक प्रवृत्ति के ही जीवन बिताया जाए तो क्या हर्ज है ?
फिलोस्फर बनने के लिए कहा गया है ना मुझे , प्रश्न बहुत सुंदर है, और करना भी चाहिए था , अंतर में उत्पन्न हुए प्रश्न को कहते हुए शर्माना नहीं चाहिए । नहीं तो यह विषय स्पष्ट ना होने पाएगा । प्रश्न बेधड़क कर दिया करो डरना नहीं । वास्तव में ही धर्म की कोई आवश्यकता नहीं होती यदि मेरे अंदर की सभी अभिलाषाओं की पूर्ति साधारणतः हो जाती ।
कोई भी पुरुषार्थ किसी प्रयोजनवश ही करने में आता है किसी अभिलाषा विशेष की पूर्ति के लिए ही कोई कार्य किया जाता है । ऐसा कोई कार्य नहीं जो बिना किसी अभिलाषा के किया जा रहा हो ।
अतः उपरोक्त बात का उत्तर पाने के लिए मुझे विश्लेषण करना होगा अपनी अभिलाषाओं का । ऐसा कहने से अस्पष्टता कुछ ध्वनि अंतरंग में आती प्रतीत होगी इस रूप में कि 'मुझे सुख चाहिए ,मुझे निराकुलता चाहिए'- यह ध्वनि छोटे बड़े सभी प्राणियों की चिर परिचित है ,क्योंकि कोई भी ऐसा नहीं है जो इस ध्वनि को बराबर उठते ना सुन रहा हो और यह ध्वनि कृत्रिम भी नहीं है ।
किसी अन्य से प्रेरित होकर यह सीख उत्पन्न हुई हो ऐसा भी नहीं है, स्वाभाविक है ।
कृत्रिम बात का आधार वैज्ञानिक लोग नहीं लिया करते परंतु इस स्वाभाविक ध्वनि का कारण तो अवश्य जाना पड़ेगा ।
अपने अंदर की ध्वनि से प्रेरित होकर इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए मैं कोई प्रयत्न ना कर रहा हूं ऐसा भी नहीं है ।
मैं बराबर कुछ ना कुछ उद्यम कर रहा हूं ,जहां भी जाता हूं कभी खाली नहीं बैठता और कब से करता आ रहा हूं , यह भी नहीं जानता परंतु इतना अवश्य जानता हूं कि सब कुछ करते हुए भी बड़े से बड़ा धनवान या राजा आदि बन जाने पर भी यह ध्वनि आज तक शांत होने नहीं पाई है ।
यदि शांत हो गई होती या उसके लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ जितनी देर तक चलता रहता है उतने अंतराल मात्र के लिए भी कदाचित शांत होती हुई प्रतीत होती तो अवश्य ही धर्म आदि की कोई आवश्यकता ना होती ।उसी पुरुषार्थ के प्रति और अधिक उद्यम करता और कदाचित सफलता प्राप्त कर लेता ।
वह शांति की अभिलाषा ही मुझे बाध्य कर रही है कोई नया अविष्कार करने के लिए, जिसके द्वारा मैं उसकी पूर्ति कर पाऊं । आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है इसी कारण धर्म का आविष्कार ज्ञानीजनों ने अपने जीवन में किया और उसी का उपदेश सर्व जगत को भी दिया तथा दे रहे हैं किसी स्वार्थ के कारण नहीं बल्कि प्रेम व करुणा के कारण कि किसी प्रकार आप भी सफल हो सके अभिलाषा को शांत करने में।
शांतिपथ प्रदर्शक : पृष्ठ १४
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