Skip to main content

चौंसठ ऋद्धियां


*१. केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धि -*
सभी द्रव्यों के समस्त गुण एवं पर्यायें एक साथ देखने व जान सकने की शक्ति ।

*२. मन:पर्ययज्ञान बुद्धि ऋद्धि -* 
अढ़ार्इ द्वीपों के सब जीवों के मन की बात जान सकने की शक्ति ।

*३. अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धि -* 
द्रव्य, क्षेत्र, काल की अवधि (सीमाओं) में विद्यमान पदार्थो को जान सकने की शक्ति ।

*४. कोष्ठ बुद्धि ऋद्धि -*
जिसप्रकार भंडार में हीरा, पन्ना, पुखराज, चाँदी, सोना आदि पदार्थ जहाँ जैसे रख दिए जावें, बहुत समय बीत जाने पर भी वे जैसे के तैसे, न कम न अधिक, भिन्न-भिन्न उसी स्थान पर रखे मिलते हैं; उसीप्रकार सिद्धान्त, न्याय, व्याकरणादि के सूत्र, गद्य, पद्य, ग्रन्थ जिस प्रकार पढ़े थे, सुने थे, पढ़ाये अथवा मनन किए थे, बहुत समय बीत जाने पर भी यदि पूछा जाए, तो न एक भी अक्षर घटकर, न बढ़कर, न पलटकर, भिन्न-भिन्न ग्रन्थों को उसीप्रकार सुना सकें ऐसी शक्ति ।

*५. एक-बीज बुद्धि ऋद्धि -*
ग्रन्थों के एक बीज (अक्षर, शब्द, पद) को सुनकर पूरे ग्रंथ के अनेक प्रकार के अर्थो को बता सकने की शक्ति ।

*६. संभिन्न संश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धि -*
बारह योजन लम्बे नौ योजन चौड़े क्षेत्र में ठहरनेवाली चक्रवर्ती की सेना के हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल, पक्षी, मनुष्य आदि सभी की अक्षर-अनक्षररूप नानाप्रकार की ध्वनियों को एक साथ सुनकर अलग-अलग सुना सकने की शक्ति ।

*७. पदानुसारिणी बुद्धि ऋद्धि -* 
ग्रन्थ के आदि के, मध्य के या अन्त के किसी एक पद को सुनकर सम्पूर्ण-ग्रन्थ को कह सकने की शक्ति ।

*८. दूरस्पर्शन बुद्धि ऋद्धि -*
दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती पदार्थ का स्पर्शन कर सकने की शक्ति जबकि सामान्य मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूरी के पदार्थो का स्पर्शन जान सकता है ।

*९. दूर-श्रवण बुद्धि ऋद्धि -*
दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती शब्द सुन सकने की शक्ति; जबकि सामान्य मनुष्य अधिकतम बारह योजन तक के दूरवर्ती शब्द सुन सकता है ।

*१०.    दूर-आस्वादन बुद्धि ऋद्धि -*
दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात् योजन दूर स्थित पदार्थों के स्वाद जान सकने की शक्ति; जबकि मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर स्थित पदार्थो के रस जान सकता है ।

*११.    दूर-घ्राण बुद्धि ऋद्धि -*
दिव्य मतिज्ञान के बल से संख्यात् योजन दूर स्थित पदार्थो की गंध जान सकने की शक्ति; जबकि मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर स्थित पदार्थो की गंध ले सकता है ।

*१२. दूर-अवलोकन बुद्धि ऋद्धि -*
दिव्य मतिज्ञान के बल से लाखों योजन दूर स्थित पदार्थों को देख सकने की शक्ति; जबकि मनुष्य अधिकतम सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन दूर स्थित पदार्थो को देख सकता है ।

*१३.प्रज्ञाश्रमणत्व बुद्धि ऋद्धि -*
पदार्थो के अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व जिनको केवली एवं श्रुतकेवली ही बतला सकते हैं; द्वादशांग, चौदह पूर्व पढ़े बिना ही बतला सकने की शक्ति ।

*१४.प्रत्येक-बुद्ध बुद्धि ऋद्धि -*
अन्य किसी के उपदेश के बिना ही ज्ञान, संयम, व्रतादि का निरूपण कर सकने की शक्ति ।

*१५.दशपूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि -*
दस पूर्वो के ज्ञान के फल से अनेक महा विद्याओं के प्रकट होने पर भी चारित्र से चलायमान नहीं होने की शक्ति ।

*१६.चतुर्दशपूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि -*
 चौदह पूर्वो का सम्पूर्ण श्रुतज्ञान धारण करने की शक्ति ।

*१७.प्रवादित्व बुद्धि ऋद्धि -*
क्षुद्र वादी तो क्या, यदि इन्द्र भी शास्त्रार्थ करने आए, तो उसे भी निरुत्तर कर सकने की शक्ति ।

*१८.अष्टांग महानिमित्त-*
विज्ञत्व बुद्धि ऋद्धि - अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न (तिल), स्वप्न-इन आठ महानिमित्तों के अर्थ जान सकने की शक्ति ।

*१९. जंघा चारण ऋद्धि -*
पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर आकाश में, जंघा को बिना उठाये सैकड़ों योजन गमन कर सकने की शक्ति ।

*२०. अनल (अग्नि-शिखा) चारण ऋद्धि -*
अग्निकायिक जीवों की विराधना किये बिना अग्निशिखा पर गमन सकने की शक्ति ।

*२१.श्रेणीचारण ऋद्धि -*
सब जाति के जीवों की रक्षा करते हुए पर्वत श्रेणी पर गमन कर सकने की शक्ति ।

*२२.फलचारण ऋद्धि -*
किसी भी प्रकार से जीवों की हानि नहीं हो, इस हेतु फलों पर चल सकने की शक्ति ।

*२३.अम्बुचारण ऋद्धि -*
जीव-हिंसा किये बिना पानी पर चलने की शक्ति ।

*२४.तन्तुचारण ऋद्धि -*
मकड़ी के जाले के समान तन्तुओं पर भी उन्हें तोड़े बिना चल सकने की शक्ति ।

*२५.पुष्पचारण ऋद्धि -*
फूलों में स्थित जीवों की विराधना किये बिना उन पर गमन कर सकने की शक्ति ।

*२६.बीजांकुरचारण ऋद्धि -* 
बीजरूप पदार्थों एवं अंकुरों पर उन्हें किसी प्रकार हानि पहुंचाये बिना गमन कर सकने की शक्ति ।

*२७.नभचारण ऋद्धि -* 
कायोत्सर्ग की मुद्रा में पद्मासन या खडगासन में आकाश गमन कर सकने की शक्ति ।

*२८.अणिमा ऋद्धि -*
अणु के समान छोटा शरीर कर सकने की शक्ति ।

*२९.महिमा ऋद्धि -*
सुमेरु पर्वत के समान बड़ा शरीर बना सकने की शक्ति ।

*३०.लघिमा ऋद्धि -*
वायु से भी हल्का शरीर बना सकने की शक्ति ।

*३१.गरिमा ऋद्धि -*
वज्र से भी भारी शरीर बना सकने की शक्ति ।

*३२.मनबल ऋद्धि -*
अन्तर्मुहूर्त में ही समस्त द्वादशांग के पदों को विचार सकने की शक्ति ।

*३३.वचनबल ऋद्धि -*
जीभ, कंठ आदि में शुष्कता एवं थकावट हुए बिना सम्पूर्ण श्रुत का अन्तर्मूहुर्त में ही पाठ कर सकने की शक्ति ।

*३४.कायबल ऋद्धि -*
एक वर्ष, चातुर्मास आदि बहुत लम्बे समय तक कायोत्सर्ग करने पर भी शरीर का बल, कान्ति आदि थोड़ा भी कम न होने एवं तीनों लोकों को कनिष्ठ अंगुली पर उठा सकने की शक्ति ।

*३५.कामरूपित्व ऋद्धि -*
एक साथ अनेक आकारोंवाले अनेक शरीरों को बना सकने की शक्ति ।

*३६.वशित्व ऋद्धि -*
तपके बल से सभी जीवों को अपने वश में कर सकने की शक्ति ।

*३७.र्इशत्व ऋद्धि -*
तीनों लोकों पर प्रभुता प्रकट सकने की शक्ति ।

*३८. प्राकाम्य ऋद्धि -*
जल में पृथ्वी की तरह और पृथ्वी में जल की तरह चल सकने की शक्ति ।

*३९. अन्तर्धान ऋद्धि -*
तुरन्त अदृश्य हो सकने की शक्ति ।

*४०. आप्ति ऋद्धि -*
भूमि पर बैठे हुए ही अंगुली से सुमेरु पर्वत की चोटी, सूर्य, और चन्द्रमा आदि को छू सकने की शक्ति ।

*४१. अप्रतिघात ऋद्धि -*
पर्वतों, दीवारों  के  मध्य  भी  खुले  मैदान  के समान बिना रुकावट आवगमन की शक्ति ।

*४२. दीप्त तप ऋद्धि -*
बड़े-बड़े उपवास करते हुए भी मनोबल, वचन बल, कायबल में वृद्धि, श्वास व शरीर में सुगंधि, तथा महा कान्तिमान शरीर होने की शक्ति ।

*४३. तप्त तप ऋद्धि -*
भोजन से मल, मूत्र, रक्त, मांस, आदि न बनकर गरम कड़ाही में से पानी की तरह उड़ा देने की शक्ति ।

*४४. महा उग्र तप ऋद्धि -*
एक, दो, चार दिन के, पक्ष के, मास के आदि  किसी उपवास को धारण कर मरण- पर्यन्त न छोड़ने की शक्ति ।

*४५. घोर तप ऋद्धि -*
भयानक रोगों से पीड़ित होने पर भी उपवास व काय क्लेश आदि से नहीं डिगने की शक्ति ।

*४६. घोर पराक्रम तप ऋद्धि -*
 दुष्ट, राक्षस, पिशाच के निवास स्थान, भयानक जानवरों से व्याप्त पर्वत, गुफा, श्मशान, सूने गाँव में तपस्या करने, समुद्र के जल को सुखा देने एवं तीनों लोकों को उठाकर फेंक सकने की शक्ति ।

*४७. परमघोर तप ऋद्धि -*
सिंह-नि:क्रीडित आदि महा-उपवासों को करते रहने की शक्ति ।

*४८. घोर ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि -*
आजीवन तपश्चरण में विपरीत परिस्थिति मिलने पर भी स्वप्न में भी ब्रह्मचर्य से न डिगने की शक्ति ।

*४९. आमर्ष औषधि ऋद्धि -*
 समीप आकर जिनके बोलने या छूने से ही सब रोग दूर हो जाएँ-ऐसी शक्ति ।

*५०. सर्वोषधि ऋद्धि -*
जिनका शरीर स्पर्श करनेवाली वायु ही समस्त रोगों को दूर कर दे-ऐसी शक्ति ।

*५१. आशीर्विषा औैषधि ऋद्धि -*
जिनके (कर्म उदय से क्रोधपूर्वक) वचन मात्र से ही शरीर में जहर फैल जाए-ऐसी शक्ति ।

*५२. आशीर्विषा औषधि ऋद्धि -*
महाविष व्याप्त अथवा रोगी भी जिनके आशीर्वचन सुनने से निरोग या निर्विष हो जाये-ऐसी शक्ति ।

*५३. दृष्टिविषा ऋद्धि -*
कर्मउदय से (क्रोध पूर्ण) दृष्टि मात्र से ही मृत्युदायी जहर फैल जाए ऐसी शक्ति ।

*५४. दृष्टिअविषा (दृष्टिनिर्विष) ऋद्धि -*
महाविषव्याप्त जीव भी जिनकी दृष्टि से निर्विष हो जाए-ऐसी शक्ति ।

*५५. क्ष्वेलौषधि ऋद्धि -*
जिनके थूक, कफ आदि से लगी हुर्इ हवा के स्पर्श से ही रोग दूर हो जाए-ऐसी शक्ति ।

*५६. विडौषधि ऋद्धि -*
जिनके मल (विष्ठा) से स्पर्श की हुर्इ वायु ही रोगनाशक हो-ऐसी शक्ति ।

*५७. जलौषधि ऋद्धि -*
जिनके शरीर के जल (पसीने) में लगी हुर्इ धूल ही महारोगहारी हो ऐसी शक्ति ।

*५८. मलौषधि ऋद्धि -*
जिनके दांत, कान, नाक, नेत्र आदि का मैल ही सर्व रोगनाशक होता है, उसे मलौषधि ऋद्धि कहते हैं ।

*५९. क्षीरस्रावी ऋद्धि -*
जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही दूध के समान गुणकारी हो जाए अथवा जिनके वचन सुनने से क्षीण-पुरुष भी दूध-पान के समान बल को प्राप्त करे ऐसी शक्ति ।

*६०. घृतस्रावी ऋद्धि -*
जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही घी के समान बलवर्षक हो जाए अथवा जिनके वचन घृत के समान तृप्ति करें ऐसी शक्ति ।

*६१. मधुस्रावी ऋद्धि -* 
जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही मधुर हो जाए अथवा जिनके वचन सुनकर दु:खी प्राणी भी साता का अनुभव करें ऐसी शक्ति ।

*६२. अमृतस्रावी ऋद्धि -*
जिससे नीरस भोजन भी हाथों में आते ही अमृत के समान पुष्टि कारक हो जाए अथवा जिनके वचन अमृत के समान आरोग्य कारी हों ऐसी शक्ति ।

*६३. अक्षीणसंवास ऋद्धि -*
ऐसी ऋद्धिधारी जहाँ ठहरे हों, वहाँ चक्रवर्ती की विशाल सेना भी बिना कठिनाई के ठहर सके-ऐसी शक्ति ।

*६४. अक्षीण महानस ऋद्धि -* 
इस ऋद्धि के धारी जिस चौके में आहार करे-वहाँ चक्रवर्ती की सेना के लिये भी भोजन कम न पड़े-ऐसी शक्ति ।

Source Whatsapp

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन्नत्ति में तीन लोक तथा उ

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश

जैन चित्रकला

जैन चित्र कला की विशेषता  कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं विकास मानव जीवन के उद्भव व विकास के साथ ही हुआ है। जिसके प्रमाण हमें चित्रकला की प्राचीन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होते हैं। जिनका विकास निरन्तर जारी रहा है। चित्र, अभिव्यक्ति की ऐसी भाषा है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन काल से अब तक चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें से जैन शैली चित्र इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन चित्रित प्रत्यक्ष उदाहरण मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में जोगीमारा गुफा में मिलते है। जिसका समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।१ ग्यारहवीं शताब्दी तक जैन भित्ति चित्र कला का पर्याप्त विकास हुआ जिनके उदाहरण सित्तनवासल एलोरा आदि गुफाओं में मिलते है। इसके बाद जैन चित्रों की परम्परा पोथी चित्रों में प्रारंभ होती है और ताड़पत्रों, कागजों, एवं वस्त्रों पर इस कला शैली का क्रमिक विकास होता चला गया। जिसका समय ११वीं से १५वी शताब्दी के मध्य माना गया। २ जैन धर्म अति प्राचीन एवं अहिंसा प्रधान