“श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य”
यह पुस्तक पढ़ना क्यों ज़रूरी है !
श्रमण जैनधर्म और संस्कृति अति प्राचीन और महान् तो है ही, इस देश की यह मूल संस्कृति भी है – यह हम सभी जैन धर्मावलम्बी आपस में एक-दूसरे को तथा वक्तव्यों में कहते भी हैं और मानते भी हैं । ऐसा कहना-सुनना बहुत सरल भी है और पूर्णतः यथार्थ भी है । किन्तु भारतीय इतिहास और इसकी पुस्तकों में हमारी क्या स्थिति है ? इस सत्य से भी हम सभी सुपरिचित हैं । काफी कुछ निराकरण के बाद आज भी इतिहास और अन्य विषयों की पुस्तकों में भ्रामक रूप में जैनधर्म के संस्थापक भगवान् महावीर थे – यह लिखा हुआ मिल जाता है । इसके अतिरिक्त और भी अनेक भ्रमपूर्ण मान्यताएं आज भी प्रचलित हैं । इन सबके पीछे अनेक कारणों में से काफ़ी कुछ हम भी दोषी हैं । जैनेतर इतिहासकारों और विद्वानों को न तो प्रमाण सहित हमने अपना प्राचीन वैभव दिखाया और न इतना विशाल जैन साहित्य प्रस्तुत किया, जिसके माध्यम से वे अनुसंधान पूर्वक सही तथ्यों को लिख पाते । क्योंकि इतिहासकार सबल प्रमाण चाहते हैं । जबकि वेदों, उपनिषदों, वैदिक पुराणों, स्मृतियों, बौद्ध-पालि साहित्य और शिलालेखों आदि में हमारे अनेकानेक प्रमाण समृद्ध रूप में विद्यमान हैं ।
इस दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से अभी-अभी प्रकाशित और वाराणसी के सुप्रसिद्ध विद्वान् सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व जैनदर्शन विभागाध्यक्ष, जिन्हें अभी भारत सरकार द्वारा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा हुई है; ऐसे प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी द्वारा अनेक वर्षों के अध्ययन-अनुसंधान एवं कठिन परिश्रम पूर्वक लिखित “श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य“ नामक पुस्तक के माध्यम से इस दुर्लभ विषय को प्रस्तुत करने का अथक प्रयास किया गया है । यह पुस्तक जैन समाज के सभी श्रावक-श्राविकाओं, युवाओं एवं विद्वानों को तो अवश्य ही पढ़ना चाहिए साथ ही अपने अन्य जैनेतर मित्रों, विद्वानों को भी उपहार स्वरूप भेंट कर उन्हें भी इस पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए । ताकि वे सब भी अपनी मूल जैन प्राचीन संस्कृति के वैभव से भली भाँति परिचित होकर उसे जान-समझ सकें ।
इस पुस्तक में वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, आरण्यकों, वाल्मीकि रामायण, अन्यान्य वैदिक पुराणों, बौद्ध साहित्य, प्राचीन शिलालेखों आदि में जो प्राचीन जैन श्रमण संस्कृति के प्रमाण उपलब्ध हैं, उन्हें लेखक ने वर्षों के अध्ययन-पूर्वक अनुसंधान, अथक परिश्रम के साथ खोजकर सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है । वेदों में वर्णित ‘व्रात्य’ कौन थे ? वस्तुतः ये सभी जैन संस्कृति के उपासक थे । इस तरह के और भी अनेक नए-नए दुर्लभ विषयों को, प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया गया है । निश्चित ही इस पुस्तक को पढ़कर और प्रमाणों के साथ अपने समृद्ध प्राचीन इतिहास को जानकर, कोई भी जैनबंधु गर्व से कह सकेगा कि हमारा जीवन धन्य है कि हम अतिप्राचीन और महान् धर्म के उपासक हैं । इस पुस्तक को पढ़कर अब अन्य भारतीय इतिहासकार भी शनैः-शनैः जैन धर्म और संस्कृति को इसके मौलिक स्वरूप में स्वीकार करने और लिखने लगेंगे ।
इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि इसका लोकार्पण २७ अप्रैल २०१८ को संत शिरोमणि पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के विशाल संघ और अपार जन समुदाय के समक्ष श्री सिद्धक्षेत्र पपौरा जी (टीकमगढ़. म.प्र.)में जब हुआ, तब अपार करतलध्वनि के मध्य पूज्य आचार्यश्री ने इसे मंच पर ही पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं पूरे दिन भर में इसको पढ़कर प्रसन्नता व्यक्त की और लेखक के साथ आपसे इस विषय में कुछ चर्चाएँ भी हुईं ।
पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द महाराज जी ने भी कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली में प्रसन्नता पूर्वक इस पुस्तक के प्रति अपना शुभाशीष प्रदान किया । देश के अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने भी इस पुस्तक की प्रशंसा की और इस अत्यंत उपयोगी एवं सभी को पढ़ने योग्य बतलाया है ।
अत्यंत कम मात्र १५६/- रुपये मूल्य में इस पुस्तक के प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली – ११०००३ से मंगाया जा सकता है । अथवा इस पुस्तक के लेखक से मोबाईल न. ९६७०८६३३३५ पर संपर्क किया जा सकता है ।
प्रेषक : डॉ. सुनील ‘संचय’
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