Skip to main content

Posts

Showing posts from April, 2024

युग-चिंतक सन्त शिरोमणि:आचार्यश्री विद्यासागर जी मुनिराज

युग-चिंतक सन्त शिरोमणि:आचार्यश्री विद्यासागर जी मुनिराज प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी      परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी मुनिराज सम्पूर्ण देश में सर्वोच्च संयम साधना और अध्यात्म जगत के मसीहा माने जाते थे। उनका बाह्य व्यक्तित्व भी उतना ही मनोरम था,जितना अन्तरंग । संयम साधना और तपस्वी जीवन में वे व्रज्र से भी कठोर हैं । किन्तु उनके मुक्त हास्य और सौम्य मुख मुद्रा से उनके सहज जीवन में पुष्पों की कोमलता झलकती है । जहाँ एक ओर उनकी संयम साधना, मुनि जीवन की चर्या, तत्त्वदर्शन एवं साहित्य सपर्या में आचार्य कुन्दकुन्द प्रतिविम्बित होते हैं; वहीँ दूसरी ओर उनकी वाणी में आचार्य समन्तभद्र स्वामी जैसी निर्भीकता, निःशंकता, निश्चलता, निःशल्यता परिलक्षित होती है । आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान हैं । मूलाचार में वर्णित श्रमणाचार का पूर्णतः पालन करते हुए आप  राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजयी, नदी की तरह प्रवहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, अनियत विहारी, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त,

तीर्थंकर वर्द्धमान : एक झलक

तीर्थंकर वर्द्धमान : एक झलक 1.अन्य नाम - वर्द्धमान (वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर) 2.तीर्थंकर क्रम -चतुर्विंशतम 3.जन्मस्थान- क्षत्रिय कुण्डग्राम (वैशाली) 4.पूर्व भव - अच्युतेन्द्र 5.पितृनाम -सिद्धार्थ 6. मातृनाम -  त्रिशलादेवी (प्रियकारिणी) 7. वंशनाम् - नाथववंश                 (ज्ञातृवंश, 'नाठ'-इति पालिः) 8. गर्भावतरण - आषाढ़ शुक्ला-षष्ठी, शुक्रवार,                    17 जून 599 ई.पू. 9.गर्भवास -नौ-मास, सात-दिन, बारह घंटे 10.जन्मतिथि -चैत्रशुक्ल त्रयोदशी, सोमवार, 27 मार्च, 598 ई.पू. 11. वर्ण (कान्ति)- स्वर्णाभ (हेमवर्ण) 12.चिह्न - सिंह 13.गृहस्थितरूप -अविवाहित          (प्रसंग चला, परन्तु विवाह नहीं किया) 14. कुमारकाल -28 वर्ष, 5 माह, 15 दिन 15.दीक्षातिथि -मंगसिरकृष्ण दसमी, सोमवार,              29 दिसम्बर 569 ई.पू. 16.तपःकाल - 12 वर्ष, 5 मास, 15 दिन 17. कैवल्य-प्राप्ति - वैशाखशुक्ल दसमी,              रविवार 26 अप्रैल, 557 ई.पू. 18. देशनापूर्व मौन - 66 दिन 19. देशनातिथि ( प्रथम )- श्रावणकृष्णप्रतिपदा,            शनिवार, 1 जुलाई 557 ई.पू. 20. निर्वाणतिथि - कार्तिक कृष्ण 30, मंगलवार

भगवान् महावीर के पूर्व भव

*⭐पुरुरवा भील की पर्याय से श्री वर्धमान भगवान की पर्याय में जन्म तक भगवान के असंख्यात भवों का वर्णन* 1️⃣ पुरुरवा भील 2️⃣ पहले सौधर्म स्वर्ग में देव 3️⃣ भरत का पुत्र मरीचि 4️⃣ पांचवें ब्रह्म स्वर्ग में देव 5️⃣ जटिल ब्राह्मण 6️⃣ पहले सौधर्म स्वर्ग में देव 7️⃣ पुष्यमित्र ब्राह्मण 8️⃣ पहले सौधर्म स्वर्ग में देव 9️⃣ अग्निसह ब्राह्मण 🔟 तीसरे सनत्कुमार स्वर्ग में देव 1️⃣1️⃣ अग्निमित्र ब्राह्मण 1️⃣2️⃣ चौथे महेन्द्र स्वर्ग में देव 1️⃣3️⃣ भारद्वाज ब्राह्मण 1️⃣4️⃣ चौथे महेन्द्र स्वर्ग में देव 1️⃣5️⃣  कुमार्ग प्रकट करने के फलस्वरूप त्रस स्थावर योनियों में असंख्यात वर्षों तक परिभ्रमण 1️⃣6️⃣ स्थावर ब्राह्मण 1️⃣7️⃣ चौथे महेन्द्र स्वर्ग में देव 1️⃣8️⃣ विश्वनंदी 1️⃣9️⃣ दसवें महाशुक्र स्वर्ग में देव 2️⃣0️⃣ त्रिपृष्‍ठ नारायण 2️⃣1️⃣ सातवां नरक  2️⃣2️⃣ सिंह 2️⃣3️⃣ पहला नरक  2️⃣4️⃣ सिंह 2️⃣5️⃣ पहले सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव 2️⃣6️⃣ कनकोज्ज्वल विद्याधर 2️⃣7️⃣ सातवें लांतव स्वर्ग में देव 2️⃣8️⃣ हरिषेण राजा 2️⃣9️⃣ दसवें महाशुक्र स्वर्ग में देव 3️⃣0️⃣ चक्रवर्ती प्रियमित्र 3️⃣1️⃣ बारहवें सहस्रार स्वर

जापान में जैन धर्म

।।जापान में जैन धर्म।। उपरोक्त विषय को देखकर आप आश्चर्यचकित हो सकते हैं, लेकिन यह सच है। जापान में लगभग 5000 स्थानीय जापानी जैन  परिवारों के घर है ।जो सभी अनुष्ठानों के साथ ,जैन जीवन शैली एवं आहार शैली का सख्ती से पालन कर रहे हैं। वे सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त से पहले भोजन करते हैं। व गर्म पानी का उपयोग करते हैं ।घंटों तक ध्यान करते हैं, जैन धर्म के त्योहार जैसे महावीर जयंती , चतुर्मास ,पर्युषण पर्व ,दीपावली आदि को जैन दर्शन के अनुसार मनाते हैं ।फलतः  जापान में जैन दर्शन एक आगे बढ़ता हुआ दर्शन है। मुज़े यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि 1950 में, भारत सरकार ने 40 जापानी छात्रों को भारतीय धर्मों का अध्ययन करने के लिए प्रायोजित किया था। जापानी छात्र अध्ययन के लिए गुजरात और वाराणसी आये ।इनमें से कुछ छात्रों ने जैन दर्शन, विशेष रूप से कर्म की अवधारणाओं के प्रति गहरी आश्ता विकसित की, और जैन दर्शन को अपनाने का फैसला किया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे घर वापस चले गये।जैन जीवन पद्धति को अपनाया एवं अपने इष्ट मित्रों में भी इसका प्रचार प्रसार किया । जैन धर्म पर पहली ज्ञात जापानी भाषा की पुस्तक, “

जैनधर्म में भगवान हनुमान Hanuman

*जैनधर्म में भगवान हनुमान का महत्वपूर्ण स्थान*  🍁 *जैन धर्म में 20 वें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ के शासन काल में वीर, बलशाली, पराक्रमी  तेजस्वी, ओजस्वी, तपस्वी,मनस्वी  हनुमान का जन्म  पराक्रमी पवन की धर्म -पत्नी अंजना सती के गर्भ से हुआ।*  *पति -पत्नी का आपस में 22 वर्ष का वियोग भी रहा। हनुमान की पवनपुत्र के रूप में  पहचान रही।* *जनमानस उन्हें वीर, महाबलशाली महावीर के रूप में याद करते हैं।* 🍁 *वह भारतभूमि में कामदेव के रूप में उत्पन्न हुए।सर्वांग सुंदर, दिव्यता और भव्यता से भरपूर मनमोहक उनका अलौकिक शक्तिशाली रूप था। वे वानरवंशी थे। वानर/बंदर नहीं थे। उसके मुकुट में वानर का चिन्ह अंकित था वानरवंशी होने से। उनकी मनोज्ञ मानवाकृति थी।* 🍁 *जैन धर्म में भगवान जन्मते नहीं ,बनते हैं। जन्म से कोई भगवान नहीं होते। सभी महापुरुषों ने मानव देह धारण कर मानवीय मूल्यों को आत्मसात करते हुए अपने आत्मपुरूषार्थ जागृत कर, मोक्षमार्गी बनकर , निजस्वभाव की साधना साधकर ,कर्मकालिमा से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं।* 🍁 *कामदेव हनुमान ने रामचंद्र जी के सहयोगी और सच्चे साथी बनें , कदम- कदम पर उनका

तीर्थंकर भगवान महावीर का संक्षिप्त परिचय

*तीर्थंकर भगवान महावीर का संक्षिप्त परिचय* 🍁 *जन्म -* *चतुर्थ काल का 75 वर्ष 3 माह शेष बचे थे तब वैशाली गणराज्य के वासो कुण्ड ग्राम में राजा सिद्धार्थ के नंद्यावर्त राजमहल में रानी त्रिशला देवी के उदर से ई.पू.598 में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को सोमवार के दिन हुआ। सभी देवताओं के साथ मनुष्यों ने उनका जन्मकल्याणक महोत्सव भक्ति भाव से मनाया।* *माता-* प्रियकारिणी त्रिशला  *पिता-*  राजा सिद्धार्थ  *दादा -*  राजा सर्वार्थ  *दादी -* रानी श्रीमती  *नाना* -राजा चेटक  *नानी*- रानी सुभद्रा  कुल - क्षत्रिय/ज्ञातृ/ नाथ वंश 🍁 *मौसी -6* 🔸 सुप्रभा, प्रभावती,प्रियावती,सुज्येष्ठा,चेलना और चंदनवाला. 🍁 *मामा -10* 🔸 धनदत्त, उपेन्द्र,सिंहभद्र,अकंपन,धनभद्र,सुदत्त,सुकुम्भोज,पतंगक, प्रभंजन और प्रभास  *नाम -* 🍁  5 प्रसिद्ध  *वर्धमान,वीर, अतिवीर, सन्मति और महावीर।* *मूल नाम वर्धमान शेष चार नाम घटनाओं के आधार पर रखे गए.* 🍁 *विवाह -* 🔸 *यशोधरा सुकन्या से विवाह का प्रस्ताव आया था पर उन्होंने विवाह संस्कार से मना कर दिया। वह अंतिम पांचवें बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकर थे।* *यशोधरा ने भी राजुल की भांति आत्मसाधना में जीव

भगवान महावीर स्वामी का अनेकान्तवाद

भगवान महावीर स्वामी का अनेकान्त सिद्धाँत -----------------------------         *अनेकान्त* शब्द 'अनेक' और 'अन्त' इन दो शब्दों से बना है। अनेक का अर्थ है-एक से अधिक, अन्त का अर्थ है-धर्म (स्वभाव)। वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों के समूह को स्वीकार करना अनेकान्त है। जैन दर्शन के अनुसार एक ही वस्तु में एक ही समय में अनन्त विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं, यह अनेकान्त दर्शन की महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मों, अनन्त गुणों और अनन्त पर्यायों का अखण्ड समूह है। कोई भी पदार्थ न एकान्ततः नित्य है और न अनित्य। न एक है, न अनेक। न सत् है, न असत्। न वाच्य है, न अवाच्य। सभी पदार्थ नित्य भी हैं, अनित्य भी हैं। एक भी हैं, अनेक भी हैं। सत् भी हैं, असत् भी हैं। वाच्य भी हैं, अवाच्य भी हैं। इस प्रकार अनेकान्त एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों को प्रकट करता है। कोई भी वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य स्वरूप वाली नहीं है। वस्तु में नित्यता और अनित्यता का कथन सापेक्ष है। जिस समय पदार्थ के जिस धर्म की विवेचना  होती है, वह प्रधान बन जाता है, शेष सारे धर्म गौण

मध्यस्थ और न्यायाधीश

*मध्यस्थ और न्यायाधीश के रूप में जैनियों की क्षमता की खोज* - मानकचंद राठौड़ जैन व्यक्ती मध्यस्थ या जज बन सकता हैं क्योंकि उसमें महाजन का स्वरूप होता है। उसकी योग्यता उसके निष्पक्ष चरित्र की तटस्थता में होती है। पहले गांवों में इसीलिए जैनों को महाजन कहा जाता था। जैन धर्म में ऐसी बातों पर विशेष महत्व दिया जाता है कि जैन समाज के सदस्यों में मान्यताओं, न्याय के सिद्धांतों तथा निर्णयों के प्रति एक सत्य, निष्पक्ष और न्यायपरायण चरित्र पैदा होता है। इस विशेष गुणवत्ता के कारण, जैन धर्म के सदस्यों को "महाजन" भी कहा जाता है। जैन धर्म में यह शब्द न्याय और नैतिकता के स्तर को दर्शाने के लिए उपयोग किया जाता है। जैन धर्म में महाजन के स्वरूप से प्रेरित होकर, जैन व्यक्ति में न्यायिक, संयमित, नैतिक और सही निर्णय लेने की क्षमता होती है। इसलिए, कुछ लोग विचार करते हैं कि जैन व्यक्ति मध्यस्थ या जज बनने की प्राथमिकता रखते हैं, क्योंकि वे न्यायिक, निष्पक्ष और नैतिक निर्णय लेने की क्षमता के साथ सदैव संयुक्त रहते हैं। जैन धर्म के पूर्वग्रंथों और प्रभावशाली शिक्षकों ने जैन समाज के सदस्यों को अपने न्यायि

जैन धर्म में देव, शास्त्र और गुरु

*21- जैन धर्म में देव, शास्त्र और गुरु*      जैन धर्म में *देव, शास्त्र और गुरु* को ही परम पूज्य माना जाता है और इन्हीं की आराधना की जाती है. इन्हें सच्चे मार्ग (मोक्ष मार्ग) के तीन मुख्य स्तंभ माना जाता है।       जैन धर्म में सच्चे *देव* के रूप में *तीर्थंकरों* को पूजा जाता है। तीर्थंकर वे महान आत्माएं हैं जो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक चारित्र के माध्यम से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और अन्य जीवों के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर होते हैं, और प्रत्येक काल चक्र में ये तीर्थंकर आते हैं। वर्तमान काल के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं, जिन्होंने जैन धर्म के मूल सिद्धांतों को पुनः स्थापित किया और उनका प्रचार किया। जैन धर्म में देवयोनि में जन्म लेने वाले देवता भी होते हैं, लेकिन उनकी इस तरह की पूजा नहीं की जाती. देवयोनि के  देवता भी संसार के बंधन में होते हैं और उन्हें भी मोक्ष की प्राप्ति के लिए तीर्थंकरों के दिखाए मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है।जैन मान्यताओं के अनुसार ऐसे देवताओं को मनुष्य जन्म लेकर ही मोक्ष मिल सकता है।            *शास्त्र*

जैन दर्शन में वैयावृत्ति

जैन दर्शन में वैयावृत्ति      इस शब्द की संधि विच्छेद करने पर यह दो शब्दों में विभाजित होता है: *वै* और *आवृत्ति*। यहाँ *वै* एक उपसर्ग है और *आवृत्ति* मूल शब्द है। इस प्रकार, *वैयावृत्ति* शब्द का संधि विच्छेद होगा: वै + आवृत्ति यहाँ *आवृत्ति* का अर्थ होता है आचरण या व्यवहार, और *वै* उपसर्ग के साथ मिलकर यह एक विशेष प्रकार के आचरण या व्यवहार की ओर संकेत करता है  इस तरह, वैयावृत्ति जैन दर्शन में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो अहिंसा के सिद्धांत को और भी गहराई से समझाती है। जैन धर्म में अहिंसा का अर्थ केवल शारीरिक हिंसा से बचना ही नहीं है. विचार, वाणी और कर्म से भी किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचाना भी इसका लक्ष्य है। इस तरह, *वैयावृत्ति* का अर्थ है किसी भी प्राणी के जीवन की  रक्षा करना और उसके प्राणों को  बचाने के उपाय और प्रयास सोचना भी वैयावृत्ति का अहिंसामयी प्रयास है।         जैन धर्म में पांच महाव्रत होते हैं, जिनमें से अहिंसा प्रथम है। वैयावृत्ति इस अहिंसा व्रत का एक विस्तारित कार्यकारी रूप  है। यह न केवल अपने आचरण में हिंसा से बचने का अभ्यास है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि हमारे आ

अद्भुत है दिल्ली का अदृश्य नाभेय जिनालय

*अद्भुत है दिल्ली का अदृश्य नाभेय जिनालय* (जैनदर्शन और हिन्दू अध्ययन के अध्येताओं ने किया हेरिटेज वॉक )            शैक्षिक भ्रमण, विद्यार्थियों को रोचक तरीके से भारतीय इतिहास,संस्कृति और धर्म को समझने का एक कारगर और आकर्षक  उपाय है । पुस्तकें मात्र सैद्धांतिक ज्ञान देती हैं, जबकि शैक्षिक भ्रमण वास्तव में उस स्थान पर जाकर प्रायोगिक ज्ञान प्रदान करता है ।  जैन धर्म,जिनायतन,पूजन अभिषेक, तीर्थंकर ,जैन मूर्तिकला और पुरातत्व के विशेष साक्षात्कार के लिए लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय,नई दिल्ली के जैन दर्शन विभाग एवं हिन्दू अध्ययन विभाग के  विद्यार्थियों एवं अध्यापको ने जैन हेरिटेज वॉक का आयोजन किया। जिसके तहत सर्वप्रथम तीर्थंकर महावीर के अनुपम तीर्थ अहिंसा स्थल,महरौली में सभी लोग प्रात:काल एकत्रित हुए । वहाँ आचार्य कुंदकुंद समयसार मंदिर में विराजमान भगवान् के अभिषेक और पूजन के साक्षात् दर्शन किये । उसके अर्थ और महत्त्व पर प्रो अनेकांत जैन जी द्वारा प्रकाश डाला गया। अनंतर ऊपर खुले आकाश में विराजमान तीर्थंकर महावीर की विशाल प्रतिमा के समक्ष गोष्ठी का आयोजन हुआ।

जैन धर्म में सूर्यास्त पूर्व भोजन - समर्थन के वो 5 कारण

*जैन धर्म में सूर्यास्त पूर्व भोजन - समर्थन के वो 5 कारण* जैन धर्म में, सूर्यास्त से पहले भोजन करने की प्रथा, जिसे दिगम्बर जैन परम्परा में  *अन्थऊ* और श्वेताम्बर जैन परम्परा में *चौविहार* कहा जाता है. जैन आहार संहिता का एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह प्रथा अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित है, जो जैन दर्शन का केंद्र है। जैन इस तरह से जीने का प्रयास करते हैं जिससे सभी जीवित प्राणियों को उनके किसी भी क्रिया कलाप से नुकसान न हो, और यह उनकी आहार संबंधी आदतों तक भी विस्तारित होता है।     सूर्यास्त से पहले भोजन करने का महत्व कई कारणों में से वो 5 महत्वपूर्ण कारण है जिनसे जैन धर्म की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्पष्ट विशिष्ट पहचान  बन गई है : *1. सूक्ष्म जीवों को नुकसान से बचाना:*  जैन अनुयायियों का मानना है कि सूर्यास्त के बाद, पर्यावरण में सूक्ष्मजीवों की संख्या में वृद्धि होती है। अंधेरे के बाद भोजन करने से इन प्राणियों को अनजाने में नुकसान हो सकता है, क्योंकि वे हवा, पानी या भोजन पर ही मौजूद हो सकते हैं। सूर्यास्त से पहले भोजन करके, जैन अनुयायियों का लक्ष्य इन सूक्ष्मजीवों को अनजाने मे

भगवान महावीर (जैन धर्म) और गौतम बुद्ध (बौद्ध धर्म )

जो आप जानते हैं अगली पीढ़ी को भी बताएं  *13-भगवान महावीर (जैन धर्म) और गौतम बुद्ध (बौद्ध धर्म )*      जैन धर्म के वर्तमान 24 तीर्थंकर में से 24वें व अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर हैं। उन्हें जैन परंपरा में इस युग के सबसे बड़े भगवान माना जाता है, जिन्होंने सर्वज्ञता और फिर मोक्ष प्राप्त किया। भगवान महावीर का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास वैशाली राज्य में एक शाही परिवार में हुआ था, जो अब भारत के बिहार राज्य में है। माना जाता है कि तीर्थंकर के रूप में भगवान महावीर ने जैन समुदाय को पुनर्जीवित और पुनर्गठित किया था, उनकी शिक्षाएँ जैन सिद्धांत का मूल हैं। जैन अनुयायियों द्वारा प्रतिवर्ष महावीर जयंती के उत्सव के दौरान उनके जीवन और शिक्षाओं का स्मरण किया जाता है। भगवान महावीर के करोड़ों वर्ष पूर्व वर्तमान चौबीसी (24 तीर्थंकर भगवान) में पहले भगवान ऋषभ देव हुए हैं. जैन दर्शन की मान्यताओं के अनुसार इसके भी पूर्व भूतकालीन चौबीसी (24 तीर्थंकर भगवान) हुए हैं और अगले युग में जैन दर्शन की शिक्षा देने के लिए भविष्य में भी चौबीसी (24 तीर्थंकर भगवान) विराजमान होंगे. इसीलिए जैन दर्शन का सदैव अस्तित्व था ह

जैन धर्म के ग्रंथों में गणितीय व्याख्याएँ

*जो आप जानते हैं अगली पीढ़ी को भी बताएं* *09- जैन धर्म के ग्रंथों में गणितीय व्याख्याएँ*     जैन धर्म एक प्राचीन भारतीय धर्म है इसमें जीवन और ब्रह्मांड के कई पहलुओं पर एक अद्वितीय दृष्टिकोण है. ऐतिहासिक रूप से इसमें गणित और ब्रह्मांड विज्ञान की एक परिष्कृत समझ शामिल है जो इसके सिद्धांतों में गहराई से अंतर्निहित है। जैन गणितीय प्रणाली काफी उन्नत रही है और इसमें अनंत, अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति और यहां तक कि गणितीय तर्क की अवधारणाएं शामिल हैं। जैन अनंत की अवधारणा रखने वाली प्रारंभिक संस्कृतियों में से थे, जिसे वे कहते भी "अनंत" ही हैं। उन्होंने संख्याओं को असंख्य और अनंत में वर्गीकृत किया, जिनमें से प्रत्येक को आगे की श्रेणियों में विभाजित किया गया है। जैन गणितज्ञों के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से कुछ  सेट, क्रमचय और संचय के सिद्धांत पर उनकी व्याख्या है। पश्चिम में ज्ञात होने से बहुत पहले ही उन्होंने इन गणितीय अवधारणाओं के अपने संस्करण विकसित कर लिए थे। उदाहरण के लिए, सूर्य प्रज्ञप्ति, एक प्राचीन जैन आलेख संख्याओं को विभिन्न सेटों में वर्गीकृत करता है, और एक अन्य पवित्र ग्रन्