युग-चिंतक सन्त शिरोमणि:आचार्यश्री विद्यासागर जी मुनिराज
प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी
परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी मुनिराज सम्पूर्ण देश में सर्वोच्च संयम साधना और अध्यात्म जगत के मसीहा माने जाते थे। उनका बाह्य व्यक्तित्व भी उतना ही मनोरम था,जितना अन्तरंग । संयम साधना और तपस्वी जीवन में वे व्रज्र से भी कठोर हैं । किन्तु उनके मुक्त हास्य और सौम्य मुख मुद्रा से उनके सहज जीवन में पुष्पों की कोमलता झलकती है । जहाँ एक ओर उनकी संयम साधना, मुनि जीवन की चर्या, तत्त्वदर्शन एवं साहित्य सपर्या में आचार्य कुन्दकुन्द प्रतिविम्बित होते हैं; वहीँ दूसरी ओर उनकी वाणी में आचार्य समन्तभद्र स्वामी जैसी निर्भीकता, निःशंकता, निश्चलता, निःशल्यता परिलक्षित होती है ।
आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान हैं । मूलाचार में वर्णित श्रमणाचार का पूर्णतः पालन करते हुए आप राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजयी, नदी की तरह प्रवहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, अनियत विहारी, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त, ज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्यश्री भौतिक कोलाहलों से दूर, जगत् के माया जाल से असंपृक्त सदा संयम साधना में लीन रहने वाले तपस्वी हैं । सार्वभौमिक चिंतन के इस व्यक्तित्व ने जहाँ एक ओर आत्म साधना कि ऊंचाइयों के स्वर्ण शिखरों को छुआ हैं तो वही सारस्वत साहित्य-साधना के महासागर में अवगाहन कर ‘मूक-माटी’, ‘संस्कृत-शतक’ जैसे अनेक ग्रन्थरत्न भी प्रधान किये हैं । निरीह, निर्भीक, निरालम्ब और निष्पक्ष आपका जीवन ध्रुव तारे कि तरह प्रकाशमान और अप्रतिम आदर्शमय है । जब हम श्रमणाचार परक आगम साहित्य के परिपेक्ष्य में परम पूज्य आचार्यश्री की चर्या आदि को देखते हैं तो वे इस कसौटी पर पूर्णतः खरे उतरते हैं । अतः यहाँ हम आगमों में वर्णित आचार्य के स्वरूप का उल्लेख करना आवश्यक समझते हैं, ताकि हम दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके ।
आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप : श्रमण संघ में नायक के रूप में आचार्य (आयरिय) का महत्त्वपूर्ण स्थान है । नमस्कार महामंत्र में आचार्य परमेष्ठी को ‘णमो आयरियाणं’ कहकर उनकी महनीयता और महत्ता प्रकाशित की गई, जो कि अप्रतिम गौरव का सूचक है । श्रमण संघ के संगठन, संवर्द्धन, अभिरक्षण, अनुशासन एवं उसके सर्वांगीण विकास का सामूहिक एवं प्रमुख दायित्व आचार्य का होता है । क्योंकि आचार्य दीपक के समान होते हैं । कहा भी है –
जह दीवा दीवसयं पईप्पए सो उ दिप्पए दीवो ।
दीव समा आयरिया अप्पं च परं च दीवंति ।। - आचा. नि. ८
अर्थात् जैसे एक दीपक स्वयं दीप्त रहकर उससे सैकड़ों दीप प्रज्ज्वलित हो जाते हैं, वैसे ही आचार्य स्वयं प्रकाशमान रहकर दूसरों को प्रकाशित करते हैं। इसीलिए “स एव भवसत्ताणं चक्खुभूए वियाहिए” ( गच्छा. पयन्ना अधि. १) अर्थात् आचार्य को सम्पूर्ण संघ का ‘नेत्र’ भी कहा जाता है।
वस्तुतः आचार्य का सीधा सम्बन्ध आचार से है । भगवती आराधना के कर्ता आचार्य शिवार्य ने कहा है कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य- इन पाँच आचारों का स्वयं निरतिचार पालन करते है और इनमें दूसरों को प्रवृत्त कराते हैं - वे आचार्य हैं ।( भ. आ. गाथा ४१८)
श्रमणाचार के प्रमुख ग्रन्थ आचार्य वट्टकेर द्वारा प्रणीत मूलाचार (७/८,९) में भी कहा गया है कि जो सर्वकाल सम्बन्धी आचार को जानता है तथा आचरण योग्य आचार का स्वयं पूरी तरह आचरण करता है और अन्य साधुओं को आचरण में प्रवृत्त करता है उसे आचार्य कहते हैं। क्योंकि जिस कारण आचार्य पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हुए सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अपने द्वारा आचरित आचार दूसरों को आदर्श बनाते हुए सुशोभित होने के कारण उनका ‘आचार्य’ नाम सार्थक है । इसीलिये ‘आचार्य’ शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका के आदिमंगल रूप णमोकार महामंत्र की व्याख्या में कहा है- ‘पंचविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः।’(धवला १/१, १,१, ४८/८) अर्थात् जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य – इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे साधुओं से पालन कराते हैं उन्हें ‘आचार्य’ कहते हैं । आचार्य वीरसेन स्वामी आगे ‘आचार्य’ के लक्षण बतलाते हुए कहते हैं - जो प्रवचनरूपी समुद्र जल के मध्य स्नान करने से अर्थात् परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु के समान निष्कम्प हैं, जो शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, जो वर्य (श्रेष्ठ) हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप हैं - ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। ऐसे ही आचार्य संघ के संग्रह में कुशल, सूत्रार्थ में विशारद होते हैं, जिनकी कीर्ति सर्वत्र फैल रही है, जो सारण (आचरण), वारण (निषेध), और शोधन (व्रतों की शुद्धि) करने वाली क्रियाओं में निरन्तर उद्युक्त हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं ।( षट्खण्डागम धवलाटीका १/११, १/२९-३१ तथा ४९)
इस प्रकार उपर्युक्त स्वरूप के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य अनेक विशिष्ट गुणों से युक्त होते हैं। क्योंकि साधुओं की दीक्षा-शिक्षा के देने वाले, उनके दोषों का निवारण करके सद्गुणों में प्रवृत्त कराने वाले, अनेक गुण विशिष्ट, संघ नायक साधु को ही आचार्य कहते हैं। वीतरागी होने के कारण पंचपरमेष्ठी में उनका स्थान है और उनमें किंचित् देवत्व भी माना गया है। (नियमसार तात्पर्यवृत्ति १४६. बोधपाहुड १/१)
योग्य आचार्य से ही संघ की प्रतिष्ठा होती है तथा योग्य आचार्य के संघ में रहकर साधना और संयम द्वारा मुनि निर्विघ्नपूर्वक स्वपर कल्याण के अपने लक्ष्य को पूर्ण करता है। योग्य आचार्य ही अपने कौशल से उन्मार्गगामी शिष्यों को भी शीघ्र ही सन्मार्ग पर लगा लेते हैं।
आचार्य परमेष्ठी के विशिष्ट गुण:
श्रमणत्व (साधुत्व) की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय, और साधु- सभी समान होते हैं और सामान्य रूप से मूलगुणों तथा उत्तरगुणों का पालन सभी को समान रूप से करना होता है किन्तु इन तीनों में आचार्य संघ का प्रधान होता है अतः उसमें अनेक विशिष्ट गुण आवश्यक माने गये हैं। भगवती आराधना में कहा है –
आयारवं च आधारवं च ववहारवं पकुव्वीय ।
आयावायविदंसी तहेव उप्पीलगो चेव ।।
अपरिस्साई णिव्वावओ य णिज्जावओ पहिदकित्ती ।
णिज्जवणगुणोवेदो एरिसओ होदि आयरिओ ।। भ. आ. ४१९, ४२०
अर्थात् आचार्य को आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, प्रकुर्वीत (कर्ता), आयापाय-दर्शनोद्यत (रत्नत्रय के लाभ और विनाश को दिखाने वाला), अवपीडक (उत्पीडक), अपरिस्रावी, निर्वापक, निर्यापक, प्रथितकीर्ति (प्रसिद्ध कीर्तिशाली) तथा निर्यापन- इन सभी गुणों से विशिष्ट होना चाहिए । मूलाचार में कहा है –
संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती ।
किरिआचरण सुजुत्तो गाहुय आदेज्जवयणो य।
गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणासीलो ।
खिदिससिसायरसरिसो कमेण तं सो दु सपत्तो ।। मूलाचार ४/१५८, १५९
आचार्य वट्टकेर ने आचार्य को इन गुणों से युक्त माना है-संग्रह और अनुग्रह (शिक्षा देकर योग्य बनाने) में कुशल, सूत्रार्थ विशारद, प्रथित कीर्ति, क्रियाओं के आचरण में तत्पर, ग्रहण करने योग्य तथा उपादेय वचन बोलने वाले, गंभीर, दुर्धर्ष (प्रवादियों द्वारा परिभव-तिरस्कार नहीं किये जा सकने वाले), शूर, धर्म की प्रभावना करने वाला, क्षमागुण में पृथ्वी, सौम्यता में चन्द्रमा तथा निर्मलता में समुद्र के समान आचार्य होते हैं ।
आचारवत्व आदि आठ गुण :
१. आचारवत्व - दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य - इन पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं पालन करना और दूसरों से पालन करवाना ।
२. आधारवत्व - श्रुत (आगम) का असाधारण ज्ञान ।
३. व्यवहारपटु- आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पाँच प्रकार के व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त को तत्त्वरूप से विस्तार के साथ जानता है तथा जिनने अनेक आचार्यों को प्रायश्चित्त देते देखा है और स्वयं दूसरों को प्रायश्चित्त दिया है वे आचार्य व्यवहारवान् हैं । (भ. आ. ४५१)
४. प्रकुर्वित्व (पकुव्वओ) - समाधिमरण कराने और ऐसे श्रमणों को पूर्ण सजगता से वैयावृत्त्य करने एवं कराने में कुशल ।
५. आयापायदेष्टा - सरलभावों से आलोचना करने वाले क्षपक के गुणों तथा दोषों को बतलाने में कुशल ।
६. उत्पीलक (अवव्रीडक) - छिपाये गये (गुह्य) अतिचारों को भी प्रगट कराने में समर्थ ।
७. अपरिस्रावी - श्रमणों द्वारा आलोचित गोप्यदोष को दूसरों पर प्रकाशित न करके पानी के घूँट की तरह पीने वाले ।
८. सुखावह - श्रमणों को समाधिमरण के समय क्षुधादि दुःखों से घबड़ा कर विमुख न होने देने के लिये उत्तम कथाओं द्वारा उन दुःखों का उपशमन करने वाले । (अनगारधर्मामृत ९/७६-७७)
आचार्य पद के पूर्वोक्त सभी के गुणों के परिपेक्ष्य में जब हम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर महाराजजी का सम्पूर्ण जीवन देखते हैं तो वहाँ परिपूर्णता दिखाई पड़ती है ।
इसी प्रकार मुनिधर्म की आधारशिला के रूप में ‘अट्ठाईस मूलगुण’ श्रमणाचार की मूल पहचान हैं, जो इस प्रकार हैं - पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इंद्रिय निग्रह, सामायिक, स्तव वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, ये छह आवश्यक तथा लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन , स्थितभोजन, अदंतधावन और एकभक्त- ये शेष सात मूलगुण - इस तरह ये अट्ठाईस मूलगुण श्रमणाचार की आधारशिला हैं . इनमें लेशमात्र की न्यूनता साधक को श्रमण धर्म से च्युत कर देती हैं.
इनके साथ ही अनशन आदि बारह तप क्षुधा-तृषा आदि बाईस परिषह, बारह भावनायें, दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप और वीर्य - यह पांच आचार, उत्तम क्षमा-मार्दव-आर्जव आदि दस धर्म आदि अनेक गुण हैं, जिन्हें उत्तरगुण कहते हैं । ये सब श्रमणाचार के अंतर्गत आते हैं ।
परमपूज्य आचार्यश्री इन सभी मूलगुणों और उत्तरगुणों का निरतिचार पालन करते रहे । बारह प्रकार के तपों का श्रमणाचार में बहुत महत्व है । मूलतः तप के दो भेद हैं - बाह्य और आभ्यंतर तप । अनशन, अवमौदर्य, वृतिपरिसंख्यान,रसपरित्याग, कायक्लेश और विविक्त शयनासन – ये छह बाह्य तप हैं ।
पूज्य आचार्यश्री के संपूर्ण जीवन में इन बाह्य तपों का परिपालन स्पष्ट रूप में दिखलाई देता था । इसी तरह प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग – ये आभ्यंतर तप हैं । इनका भी परिपालन आपके संपूर्ण जीवन में परिलक्षित होता रहा ।
आचार्यश्री के तपस्वी संयमी जीवन से, सिद्धांतों और वाणियों से हम सभी को निरंतर सुख शांति की सुगन्ध सुवासित होती रहीl निरतिचार श्रमणचर्या में आप अपने प्रति वज्र से भी कठोर परन्तु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर , शीत-ताप एवं वर्षा जैसी सभी ऋतुओं के गहन झंजावातों में भी आप संयम-साधना में अथक प्रवर्तमान रहते थे ; इसीलिए श्रम और अनुशासन, विनय और संयम, तप और त्याग की अग्नि में तप्त आपकी साधना अनुपम रही । अंतिम श्वांस तक उन्होंने अपने कठोर साधनाव्रत का निर्वाह किया।
आप संयम-साधना और साहित्य सृजन के सशक्त हस्ताक्षर बने तभी से श्रमणाचारपरक आपकी चर्या में धरती ही बिछौना, आकाश ही ओढना और दस दिशायें ही आपके वस्त्र बने हुए थे, और पद विहार द्वारा जन-जन का कल्याण करते रहे। जीवन-मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाले स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत् व्यवहार के संपोषक पूज्य आचार्यश्री के व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान थी। इसीलिए किसी कवि ने उचित ही कहा है –
संयम सौरभ साधना, जिनको करै प्रणाम ; त्याग तपस्या लीन यति विद्यासागर नाम ।
जीवन में आस्था और विश्वास, निर्मल ज्ञान चारित्र तथा अहिंसा, अनेकान्तवाद, सर्वोदय, राष्ट्रीयता की भावना को बल देने वाले संतकवि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान युग के ऐसे शिखर पुरुष थे, जिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुता, व्यक्तित्व में समता, जीवन में संयम साधना की त्रिवेणी थी । अहिंसा धर्म की रक्षार्थं अहर्निश सजग, करुणा हृदयी आचार्यश्री विद्यासागर जी की स्वावलंबी, निर्मोही, समता, सरलता. सहिष्णुता की पराकाष्ठा के जीवन्त वे अपने तपस्वी जीवन से सदा दैदीप्यमान रहते थे ।
यहां हम एक घटना आचार्य श्री की घटना का एक उल्लेख करना आवश्यक समझते हैं - सन् १९८० को श्रुतपंचमी ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी के दिन सागर मोराजी में षट्खंडागम शास्त्र वाचना पूर्ण हुई । इसमें देश के अनेक सुविख्यात विद्वान् भी उपस्थित थे । समापन समारोह के आयोजकों ने आचार्यश्री की अनुपम संयम साधना और ज्ञान की अतिशयता देख उन्हें चारित्र चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित करने की योजना बनाई और आचार्यश्री के समक्ष ही इस योजना की माइक से घोषणा भी कर दी और यह भी कह दिया कि उनकी निरतिचार संयम साधना इस उपाधि का सम्यक् बोध कराती है । इतना सुनते ही उपस्थित विशाल समुदाय ने जयघोष किया और उनकी चरण रज लेने जनता उमड़ पड़ी । यह घोषणा सुनते ही आचार्य श्री ने माइक से कहा कि आप सभी शांति से यथास्थान बैठ जाइए । सभी के बैठते ही निस्तब्धता छा गई ।
आचार्यश्री ने गंभीर स्वर में कहा कि हम आप लोगों को बहुत समझदार समझते थे किंतु आपकी इस घोषणा से आपके विवेक का परिचय नहीं मिलता । मेरा अभिप्राय जाने बिना, मेरी बिना सहमति के पद देने से अभी तक जो प्रभावना हुई है, वह अब अप्रभावना में परिवर्तित हो जाएगी । रागी, वीतरागी को पद से अलंकृत करे, इससे क्या वीतरागी की साधना को कोई संबल मिलने वाला नहीं है । भविष्य में ऐसी भूल ना हो, इसका आप लोग विशेष ध्यान रखें । उपाधियां साधु को शोभा नहीं देती, उनके लिए तो वह परिग्रह सूचक हैं । समाज ने आचार्य श्री से क्षमा याचना की और अपने शब्द वापस ले लिए ।
वस्तुतः जगत् के उपकारी संत के रूप में वे संत शिरोमणि थे, अनेक उपाधियाँ उनके आगे बौनी हो जातीं रहीं । क्योंकि वे मानते हैं थे, कि ये उपाधियाँ ‘व्याधियां’ हैं । अपने गुरु द्वारा प्रदत्त उपाधियों के साथ न्याय करते हुए वे अपने आचार्य पद को इतना प्रतिष्ठित किये हुए रहे कि किसी के मुख से संबोधन में यदि ‘आचार्यश्री’ शब्द निकले तो मन-मस्तिष्क में आचार्यश्री विद्यासागरजी की छवि ही ध्यान आती थी।
समाज के कुछ लोग आचार्यश्री और उनके संघस्थ मुनिवरों के विषय में यह कहते हुए सुने जाते हैं कि वे अन्य संघस्थ कुछ आचार्यों, मुनियों को नमोस्तु, वंदना आदि नहीं करते, किन्तु सभी को यह सोचना चाहिए कि आज जहाँ आचार्य, उपाध्याय आदि पदों की होड़ में साधु बनते देर नहीं लगती और आचार्य, उपाध्याय आदि पद धारण कर लेते हैं, ऐसे मुनिराजों को अनेक वर्षों से दीक्षित निरतिचार चर्या का पालन करने वाले दीर्घ तपस्वी आचार्यश्री व उनके संघस्थ मुनिराज,अन्य कुछ-कुछ मुनिराजों को नमोस्तु, प्रतिनमोस्तु आदि कैसे करें ? क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है –
अधिगगुणा सामण्णे वट्टति गुणाधरेहिं किरियासु ।
जादि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पब्भट्टचारित्ता ।। (३/६७)
अर्थात् जो मुनि, मुनिपद में स्वयं अधिक गुणवाले होकर गुणहीन मुनियों के साथ वन्दनादि क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं अर्थात् उन्हें नमस्कारादि करते हैं, वे मिथ्यात्व से युक्त तथा चारित्र से भ्रष्ट होते हैं l
सुत्तपाहुड में भी कहा है –
जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओवि ।
सो होई वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए ।। ११ ।।
अर्थात् जो संयमों से सहित है तथा आरम्भ और परिग्रहों से विरत है, वही सुर, असुर एवं मनुष्य सहित लोक में वंदना करने योग्य हैं ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने 1968 में दिगंबरी दीक्षा ली थी और तब से आज तक वे निरंतर सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य की साधना करते हुए इन पंच महाव्रतों के देशव्यापी प्रचार हेतु समर्पित हो गए। लोक कल्याण की भावना से अनुप्राणित होकर पूज्य आचार्य श्री महाराज ने अपने जीवन में सैकड़ों मुनियों एवं आर्यिकाओं को दीक्षा प्रदान की और लोकोपकारी कार्यों हेतु सदैव अपनी प्रेरणा और आशीर्वाद प्रदान किया। संपूर्ण भारतवर्ष में उन्होंने अनेक स्थानों पर गौशालाएं,अस्पताल,शुद्धआयुर्वेद के रूप में पूर्णायु, प्रतिभास्थली जैसे अनेक शिक्षा संस्थान, हथकरघा केंद्र तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की लोकमंगलकारी योजनाओं का शुभारंभ कराया।
अनेक कारागारों में वहां रह रहे हजारों बंदीजनों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन करने का अभूतपूर्व कार्य आपके आशीर्वाद से ही चल रहा है। उनकी यही अभिलाषा थी कि यह देश अपनी उदात्त शिक्षाओं और जीवनादर्शों को लेकर पुनः खड़ा हो और वर्तमान समय में विश्व को नई दिशा प्रदान करे। उनका संपूर्ण जीवन इन आदर्शों के प्रति पूरी तरह समर्पित था।
करुणा,समता, अनेकान्त का जीवंत दस्तावेज: पूज्य आचार्यश्री के उपदेश, हमेशा जीवन-समस्याओं संदर्भों की गहनतम गुत्थियों के मर्म का संस्पर्श करते हैं, जीवन को उसकी समग्रता में जानने और समझने की कला से परिचित कराते हैं । उनके साधनामय, तेजस्वी जीवन को शब्दों की परिधि में बांधना संभव नहीं है। हां, उसमें अवगाहन करने की कोमल अनुभूतियाँ अवश्य शब्दातीत हैं । उनका चिंतन फलक देश, काल, जाति, संप्रदाय, धर्म सबसे दूर, प्राणिमात्र को समाहित करता है, नैतिक जीवन की प्रेरणा देता है। उनका प्रखर तेजोमय व्यक्तित्व करुणा, समता और अनेकान्त का एक जीवंत दस्तावेज था। अन्त में हम गौरव के साथ कह सकते हैं कि -
इस युग का सौभाग्य रहा, कि इस युग में गुरूवर जन्मे ।
अपना यह सौभाग्य रहा, गुरूवर के युग में हम जन्में
—------🙏—-------
प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी
बी. २३/४५, पी .६, शारदानगर कॉलोनी,
खोजवां, वाराणसी – २२१०१०
मो. ९४५०१७९२५४ , ८७६५६३२०६४
email : anekantjf@gmail.com
Comments
Post a Comment