*21- जैन धर्म में देव, शास्त्र और गुरु*
जैन धर्म में *देव, शास्त्र और गुरु* को ही परम पूज्य माना जाता है और इन्हीं की आराधना की जाती है. इन्हें सच्चे मार्ग (मोक्ष मार्ग) के तीन मुख्य स्तंभ माना जाता है।
जैन धर्म में सच्चे *देव* के रूप में *तीर्थंकरों* को पूजा जाता है। तीर्थंकर वे महान आत्माएं हैं जो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक चारित्र के माध्यम से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और अन्य जीवों के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर होते हैं, और प्रत्येक काल चक्र में ये तीर्थंकर आते हैं। वर्तमान काल के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं, जिन्होंने जैन धर्म के मूल सिद्धांतों को पुनः स्थापित किया और उनका प्रचार किया। जैन धर्म में देवयोनि में जन्म लेने वाले देवता भी होते हैं, लेकिन उनकी इस तरह की पूजा नहीं की जाती. देवयोनि के देवता भी संसार के बंधन में होते हैं और उन्हें भी मोक्ष की प्राप्ति के लिए तीर्थंकरों के दिखाए मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है।जैन मान्यताओं के अनुसार ऐसे देवताओं को मनुष्य जन्म लेकर ही मोक्ष मिल सकता है।
*शास्त्र* अर्थात *जिनवाणी* का अध्ययन और अध्यापन जैन साधुओं और आचार्यों द्वारा किया जाता है, और इसे जैन समुदाय के सदस्यों द्वारा बहुत श्रद्धा और सम्मान के साथ सुना जाता है। जैन दर्शन में *जिनवाणी* का शाब्दिक अर्थ है *जिनों का वचन* या *जिनों की वाणी* । जिनवाणी जैन धर्म के आध्यात्मिक ग्रंथों और शिक्षाओं का संदर्भ देती है, जो तीर्थंकरों द्वारा उपदेशित की गई थीं। जैन धर्म में तीर्थंकरों को *जिन* कहा जाता है, और उनके उपदेशों को उनकी अंतर्दृष्टि और ज्ञान का प्रतिनिधित्व माना जाता है। यह जैन धर्म के मूल ग्रंथों, जैसे कि आगम साहित्य और अन्य शास्त्रों की टीका का संग्रह है। आगम साहित्य में जैन सिद्धांतों, दर्शन, नैतिकता, धर्म, और योग के बारे में विस्तृत जानकारी होती है।इसमें तीर्थंकर भगवान गुरुओं की पूजा, स्तुति और आरती आदि का संग्रह भी शामिल किया जाता है। जैन आगम को मूल रूप से महावीर स्वामी के उपदेशों के रूप में माना जाता है, जिन्हें उनके शिष्यों ने सुना और याद किया था। बाद में, इन उपदेशों को लिखित रूप में संकलित किया गया। जैन आगम साहित्य को दो मुख्य शाखाओं, श्वेतांबर और दिगंबर, के अनुसार विभाजित किया जाता है, और प्रत्येक शाखा के अपने ग्रंथ होते हैं। इस तरह, जैन समुदाय आध्यात्मिक दृष्टि से जिनवाणी को अत्यंत पवित्र ग्रंथ और श्रद्धा का सर्वोच्च महत्व का विषय मानते हैं।
*गुरु* जैन दर्शन में गुरु का भी बहुत महत्व होता है। गुरु वह होते हैं जो ज्ञान का प्रसार करते हैं, शिष्यों और श्रावकों को आध्यात्मिक मार्ग पर मार्गदर्शन करते हैं, और उन्हें जैन सिद्धांतों और अनुशासन का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। गुरु न केवल ज्ञान के स्रोत होते हैं, बल्कि वे अपने आचरण और व्यवहार के माध्यम से भी शिष्यों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
जैन धर्म में गुरु के कई रूप हो सकते हैं:
*1. आचार्य:* जैन संघ के आध्यात्मिक नेता जो धर्म के गहन ज्ञानी होते हैं और संघ के अन्य साधुओं का मार्गदर्शन करते हैं।
*2. उपाध्याय:* वे जैन साधु जो शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन में विशेषज्ञ होते हैं।
*3. साधु:* जैन संघ के सामान्य सदस्य जो धार्मिक जीवन जीते हैं और जैन सिद्धांतों का पालन करते हैं।
जैन धर्म में गुरु का अनुसरण करना आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। गुरु शिष्यों को धर्म के सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं और उन्हें सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक चारित्र के महत्व को समझाते हैं। गुरु शिष्यों को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह के पांच महाव्रतों का पालन करने के लिए भी प्रेरित करते हैं। जैन धर्म में गुरु को आध्यात्मिक जीवन में एक मार्गदर्शक और प्रेरक के रूप में देखा जाता है, जो शिष्यों को उनके आत्म-साधना के पथ पर चलने में सहायता करते हैं।
इस तरह देव, शास्त्र और गुरु जैन दर्शन में श्रद्धा, स्तुति, आराधना और अनुसरण के प्रमुख आधार हैं।
*🖋️आभार (14अप्रैल, 2024)*
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