।।जापान में जैन धर्म।।
उपरोक्त विषय को देखकर आप आश्चर्यचकित हो सकते हैं, लेकिन यह सच है। जापान में लगभग 5000 स्थानीय जापानी जैन परिवारों के घर है ।जो सभी अनुष्ठानों के साथ ,जैन जीवन शैली एवं आहार शैली का सख्ती से पालन कर रहे हैं। वे सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त से पहले भोजन करते हैं। व गर्म पानी का उपयोग करते हैं ।घंटों तक ध्यान करते हैं, जैन धर्म के त्योहार जैसे महावीर जयंती , चतुर्मास ,पर्युषण पर्व ,दीपावली आदि को जैन दर्शन के अनुसार मनाते हैं ।फलतः जापान में जैन दर्शन एक आगे बढ़ता हुआ दर्शन है।
मुज़े यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि 1950 में, भारत सरकार ने 40 जापानी छात्रों को भारतीय धर्मों का अध्ययन करने के लिए प्रायोजित किया था। जापानी छात्र अध्ययन के लिए गुजरात और वाराणसी आये ।इनमें से कुछ छात्रों ने जैन दर्शन, विशेष रूप से कर्म की अवधारणाओं के प्रति गहरी आश्ता विकसित की, और जैन दर्शन को अपनाने का फैसला किया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे घर वापस चले गये।जैन जीवन पद्धति को अपनाया एवं अपने इष्ट मित्रों में भी इसका प्रचार प्रसार किया ।
जैन धर्म पर पहली ज्ञात जापानी भाषा की पुस्तक, “मिनाकाता कुमागुसु” द्वारा लिखित हैं ।पुस्तक में जापानी भक्तोंके लिए जैन अवधारणाओं का सरल जापानी भाषा में अनुवाद दिया गया है ।
धीरे-धीरे जैन धर्म अपनी जड़ें जापान में जमाने लगा हैं । कोबे(Japan) में, वर्ष 1985 में, भारत के वहाँ बसे जैन समुदाय की मदद से एक जैन मंदिर का निर्माण किया गया हैं ।
2005 में, श्री चुरिस्ट्रीमियाज़ावास, जो एक जापानी जैन हैं । जैन तीर्थ स्थलों की यात्रा के लिए जापान से भारत पधारे थे । उन्होंने गच्छाधिपति जयन्त सूरीश्वरजी से मुलाकात की। वह गुरूजी से बहुत प्रभावित हुए एवं साल में 4 -5 बार भारत आने लगे।
वे जैन भिक्षु बनना चाहते थे। उन्होंने गच्छाधिपति से अपनी इच्छा व्यक्त की। गच्छाधिपति जयन्त सूरीश्वरजी ने उन्हें सलाह दी कि "यदि भिक्षुत्व स्वीकार करते हैं तो, आप जैन भिक्षु जीवन शैली के अनुसार जापान वापस नहीं जापाएंगे। इसलिए श्रावक के रूप में रहना बेहतर होगा, जापान वापस जाएं और जैन दर्शन का प्रचार प्रसार करें, ताकि अन्य लोग भी जैन दर्शन रूपी अमृत का स्वाद ले सकें।" उन्होंने चुरिष्ट्री मियाज़ावास को नया नाम “तुलसी” प्रदान किया ।
तुलसी हरवर्ष भारत का दौरा कर रहे हैं । पालीथाना, शंकेश्वर पारसनाथ और अन्य तीर्थ स्थानों का दौरा करते हैं। वे गच्छाधिपति के शिष्य श्री नित्यसेन सूरीश्वरजी महाराज से मिलते हैं, उनकी सलाह लेते हैं और सभी अनुष्ठानों का पालन करते हैं। मुनि श्री नित्यसेन सूरीश्वरजी ने उन्हें बताया कि भिक्षुत्व की दीक्षा से पहले अत्यधिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
इसके बाद तुलसी साल में 4 से 5 बार अच्छी संख्या में भक्तों के साथ भारत आने लगे हैं।
जापानी जैन परिवार प्रतिदिन सामूहिक प्रार्थना करते हैं एवं सादगीपूर्ण जीवन जीते हैं। हालाँकि उन्हें भिक्षु के रूप में दीक्षित नहीं किया गया है, फिर भी वे भिक्षु का जीवन जीते हैं। वे सफेद वस्त्र पहनते हैं। 1980 से हिंदी और प्राकृत सीख रहे हैं और जैन अध्ययन में विशेषज्ञता हासिल कर रहे हैं।
वर्तमान में कोबा-ओसाका और नागानोकेन (जापानी)शहरों में तीन जैन मंदिर हैं। जापानी जैन कर्म सिद्धांत पर पूरा विश्वास रखते हैं।
जापान में जैन जनसंख्या में धीरे-धीरे वृद्धि हो रही है। वर्तमान में जापान में 5000 जापानी जैन परिवार हैं। यह जानकर खुशी हुई कि जापान में जैन धर्म की आबादी बढ़ रही है। जबकि भारत में जैनियों की जनसंख्या घटती जा रही है। भारत में जैन परिवारों में जन्मे व्यक्ति धर्म और उसके सिद्धांतों को भूलते जा रहे हैं।
साभार -Google-Jainism in Japan .
एन सुगलचंद जैन
चेन्नई-23-4-24.
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