Skip to main content

जैनधर्म में भगवान हनुमान Hanuman

*जैनधर्म में भगवान हनुमान का महत्वपूर्ण स्थान* 
🍁
*जैन धर्म में 20 वें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ के शासन काल में वीर, बलशाली, पराक्रमी  तेजस्वी, ओजस्वी, तपस्वी,मनस्वी  हनुमान का जन्म  पराक्रमी पवन की धर्म -पत्नी अंजना सती के गर्भ से हुआ।* 
*पति -पत्नी का आपस में 22 वर्ष का वियोग भी रहा। हनुमान की पवनपुत्र के रूप में  पहचान रही।* *जनमानस उन्हें वीर, महाबलशाली महावीर के रूप में याद करते हैं।*
🍁
*वह भारतभूमि में कामदेव के रूप में उत्पन्न हुए।सर्वांग सुंदर, दिव्यता और भव्यता से भरपूर मनमोहक उनका अलौकिक शक्तिशाली रूप था। वे वानरवंशी थे। वानर/बंदर नहीं थे। उसके मुकुट में वानर का चिन्ह अंकित था वानरवंशी होने से। उनकी मनोज्ञ मानवाकृति थी।*
🍁
*जैन धर्म में भगवान जन्मते नहीं ,बनते हैं। जन्म से कोई भगवान नहीं होते। सभी महापुरुषों ने मानव देह धारण कर मानवीय मूल्यों को आत्मसात करते हुए अपने आत्मपुरूषार्थ जागृत कर, मोक्षमार्गी बनकर , निजस्वभाव की साधना साधकर ,कर्मकालिमा से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं।*
🍁
*कामदेव हनुमान ने रामचंद्र जी के सहयोगी और सच्चे साथी बनें , कदम- कदम पर उनका साथ दिया और अंत में रामचन्द्र जी की तरह मोक्षगामी बनें। अभी सिद्ध क्षेत्र सिद्धालय में लोक के अंतिम भाग में सिद्ध परमेष्ठि के रूप मे विराजमान हैं।*
🍁
*वंदित्तु सव्व सिद्धे ध्रुव-मचलमणोवमं गदिं पत्ते.*
*सभी सिद्ध भगवंतों को बारंबार नमन और वंदन।*
🙏
*मेरी भी दशा मोक्षगामी महापुरुषों जैसी हो।*
🙏
*प्रस्तुतकर्ता* 
*डॉ अशोक जैन गोयल दिल्ली*

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन्नत्ति में तीन लोक तथा उ

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश

जैन चित्रकला

जैन चित्र कला की विशेषता  कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं विकास मानव जीवन के उद्भव व विकास के साथ ही हुआ है। जिसके प्रमाण हमें चित्रकला की प्राचीन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होते हैं। जिनका विकास निरन्तर जारी रहा है। चित्र, अभिव्यक्ति की ऐसी भाषा है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन काल से अब तक चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें से जैन शैली चित्र इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन चित्रित प्रत्यक्ष उदाहरण मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में जोगीमारा गुफा में मिलते है। जिसका समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।१ ग्यारहवीं शताब्दी तक जैन भित्ति चित्र कला का पर्याप्त विकास हुआ जिनके उदाहरण सित्तनवासल एलोरा आदि गुफाओं में मिलते है। इसके बाद जैन चित्रों की परम्परा पोथी चित्रों में प्रारंभ होती है और ताड़पत्रों, कागजों, एवं वस्त्रों पर इस कला शैली का क्रमिक विकास होता चला गया। जिसका समय ११वीं से १५वी शताब्दी के मध्य माना गया। २ जैन धर्म अति प्राचीन एवं अहिंसा प्रधान