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जैन दर्शन में वैयावृत्ति

जैन दर्शन में वैयावृत्ति

     इस शब्द की संधि विच्छेद करने पर यह दो शब्दों में विभाजित होता है: *वै* और *आवृत्ति*। यहाँ *वै* एक उपसर्ग है और *आवृत्ति* मूल शब्द है। इस प्रकार, *वैयावृत्ति* शब्द का संधि विच्छेद होगा:
वै + आवृत्ति
यहाँ *आवृत्ति* का अर्थ होता है आचरण या व्यवहार, और *वै* उपसर्ग के साथ मिलकर यह एक विशेष प्रकार के आचरण या व्यवहार की ओर संकेत करता है 
इस तरह, वैयावृत्ति जैन दर्शन में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो अहिंसा के सिद्धांत को और भी गहराई से समझाती है। जैन धर्म में अहिंसा का अर्थ केवल शारीरिक हिंसा से बचना ही नहीं है. विचार, वाणी और कर्म से भी किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचाना भी इसका लक्ष्य है। इस तरह, *वैयावृत्ति* का अर्थ है किसी भी प्राणी के जीवन की  रक्षा करना और उसके प्राणों को  बचाने के उपाय और प्रयास सोचना भी वैयावृत्ति का अहिंसामयी प्रयास है।
        जैन धर्म में पांच महाव्रत होते हैं, जिनमें से अहिंसा प्रथम है। वैयावृत्ति इस अहिंसा व्रत का एक विस्तारित कार्यकारी रूप  है। यह न केवल अपने आचरण में हिंसा से बचने का अभ्यास है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि हमारे आस-पास के प्राणी भी हिंसा से सुरक्षित रहें। इसमें यह भावना शामिल है कि एक जैन साधक अपने आस-पास के जीवों की रक्षा के लिए भी जिम्मेदार है।
      वैयावृत्ति का अभ्यास करने वाले जैन साधु और साध्वियां अक्सर अपने चलने के पथ को मोर पंख से बनी पिच्छी से साफ करते हैं. ताकि, छोटे जीवों को दबने से हो सकने वाली हिंसा से  बचाया  जा सके, मुंह पर मुखवस्त्र पहनते हैं ताकि हवा में उड़ने वाले कीटाणुओं को स्वांस से निगलने से बचा जा सके तथा  बहुत सावधानी से खाना खाते हैं ताकि अनजाने में भी किसी जीव की हिंसा न हो।
        इस प्रकार, वैयावृत्ति जैन दर्शन का एक ऐसा पहलू है जो अहिंसा के सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारने का मार्ग दिखाता है और यह दर्शाता है कि जैन साधक किस प्रकार अपने जीवन को जीवन के हर पहलू में अहिंसा के सिद्धांत के अनुरूप ढालते हैं। जैन साधु साध्वियों सदैव निरन्तर अपना स्थान बदलते रहते हैं और अपनी सम्पूर्ण यात्रा पैदल ही चलकर पूरी करते हैं. गहन त्याग और तपस्या के कारण वे शारीरिक कष्ट बहुत सहते हैं. जैन अनुयायी (पुरुष) के साधुयों और साध्वियों की (महिला अनुयायी) अर्थात श्रावक श्रद्धावश उनके शारीरिक कष्ट देख उनकी सेवा कर आशीर्वाद पाते हैं. यह साधुओं की वैयावृत्ति का सर्वोत्तम अवसर और समय समझा जाता है. उनके सानिध्य का यह समय सबसे निकटतम प्रत्यक्ष सम्पर्क का होता है. इस समय वैयावृत्ति के साथ तत्व चर्चा कर जैन अनुयायी उनकी साधना में उनके  शरीर की सेवा कर अपने को धन्य समझता है.   
       इस तरह, वैयावृत्ति का अभ्यास जैन धर्म के अनुयायियों को अन्य के जीवन के प्रति अधिक समर्पित, संवेदनशील और जागरूक बनाता है. यह उन्हें जीवन के प्रति गहरी समझ विकसित करने और त्याग और तपस्या के महत्व को निकट से मेहसूस करने का अवसर प्रदान करता है।
🖋️आभार (13अप्रैल, 2024)

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